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Dinesh Divakar

Horror Thriller

4  

Dinesh Divakar

Horror Thriller

वेडिंग डेस्टिनेशन

वेडिंग डेस्टिनेशन

6 mins
32

बारात के शोर, बैंड की गूँज और रिश्तेदारों की हँसी के बीच एक हल्का सा साया घूम रहा था जिसे कोई देख नहीं सकता था, लेकिन वो सबको देख रहा था। राजस्थान की सीमा पर बसा एक पुराना महल अब एक लग्ज़री वेडिंग डेस्टिनेशन है।

आज शादी की रात थी। रवि और संध्या का कमरा महल के सबसे ऊपरी माले पर था वही कमरा जो पिछले 50 सालों से बंद पड़ा था। कहते हैं, पिछली बार वहाँ किसी की शादी हुई थी… तो दुल्हन जिंदा नहीं बची थी।

रात 12 बजे… कमरे में धीमी धीमी हवा चल रही थी, जबकि खिड़कियाँ बंद थीं। बिस्तर पर बैठी संध्या चुप थी। रवि ने धीरे से पूछा, “ठीक हो?” उसने सिर हिलाया… लेकिन उसकी आँखें छत की तरफ थी। एक टक नज़रें गड़ा कर जैसे कुछ देख रही हो।

रवि ने भी ऊपर देखा… कुछ नहीं था। फिर अचानक कमरे का लाइट बल्ब टिमटिमाया… और बंद। अब बस थी एक लालटेन की धीमी रौशनी।

“क्या ये रूम पहले कभी इस्तेमाल नहीं हुआ?” रवि ने पूछा।

संध्या ने पहली बार उसकी ओर देखा… और बोली, “यह कमरा सिर्फ उसी रात के लिए खुलता है… जब कोई ‘पुनर्जन्म’ लेता है…”

रवि हँसने लगा, “क्या मतलब?”

लेकिन संध्या अब उसकी तरफ देख भी नहीं रही थी… वो अपना घूंघट धीरे से हटा रही थी… और घूंघट के नीचे कुछ था… कुछ... पर इंसानी नहीं।

कमरे में बस लालटेन की मद्धम रौशनी थी। दीवारों पर बनी पुरानी तस्वीरें अजीब सी परछाइयाँ बना रही थीं, और कमरे में सन्नाटा इतना घना था कि रवि की धड़कनों की आवाज़ भी साफ़ सुनाई दे रही थी।

संध्या ने जैसे ही अपना घूंघट हटाया, रवि की साँस अटक गई।  उसके सामने संध्या का चेहरा नहीं था... बल्कि... वो चेहरा था जो अधजला था। आधी खाल झुलसी हुई, आँखें सुर्ख... और होंठों पर एक ऐसी मुस्कान जो इंसानों की नहीं होती।

“त... तु... तुम कौन हो?” रवि ने काँपती आवाज़ में पूछा।

संध्या की आवाज़ अब बिलकुल अलग थी गहरी, खुरदरी और जैसे कई ज़िंदगियों की पीड़ा समेटे हुए... "वापस आना आसान नहीं होता... और मैं अधूरी रह गई थी।"

अचानक कमरे की दीवार पर एक छाया उभरी एक लड़की का प्रतिबिंब... जो लहंगे में थी, लेकिन उसका चेहरा नहीं था… वहाँ सिर्फ एक काली धुँध थी।

दरवाज़ा अपने-आप बंद हो गया। रवि ने दौड़कर खोलना चाहा, लेकिन कुंडी जाम थी... जैसे किसी ने बाहर से बंद कर दी हो।

नीचे, दादीसा की आँख खुली। उन्होंने तुरंत उठकर अपनी पुरानी माला निकाली और बुदबुदाने लगीं "फिर से वही कमरा... फिर से वही आत्मा…"

महल के नौकर, जिनमें से कई पुराने थे, आपस में फुसफुसा रहे थे: “50 साल पहले यही लड़की जलकर मरी थी... शादी की पहली रात… अपने ही लहंगे में आग लगाकर।”

उधर, कमरे में संध्या अब रवि के बहुत पास आ चुकी थी।

उसकी जली हुई त्वचा से धुआं निकल रहा था। और वो कह रही थी “मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कौन हो... मुझे बस अपनी शादी पूरी करनी है।”

रवि की आँखों में डर था… लेकिन उससे ज्यादा सवाल थे कौन थी ये लड़की? क्यों वो इस कमरे में हर बार लौटती है? और असली संध्या कहाँ है? 

तभी दीवार पर एक और चीखती हुई परछाई उभरी... और कमरे में हर तरफ आग की गंध भर गई…

कमरे में जैसे वक़्त थम गया था। रवि की आँखें उस "संध्या" पर जमी थीं जो अब पूरी तरह इंसान नहीं लग रही थी। वो हर पल के साथ और अधिक बदलती जा रही थी… उसकी आँखें अब गड्ढों में बदल चुकी थीं… और हाथों की उंगलियाँ लंबी, नुकीली और स्याह हो रही थीं।

रवि ने हिम्मत करके दीवार की ओर भागने की कोशिश की…
लेकिन फर्श पर जैसे उसके पाँव चिपक गए।

संध्या या जो भी वो थी धीरे-धीरे उसके पास आई, और बोली, "हर साल कोई आता है… हर साल कोई जाता है… लेकिन इस बार मैं नहीं चाहती कि कोई जाए।"

रवि ने डरते हुए पूछा, "तुम क्या चाहती हो?"

उसने सिर झुकाया और कहा, "मैं चाहती हूँ… एक अधूरी रूह को पूरा जिस्म मिले…"

तभी, महल के तहख़ाने में एक पुरानी अलमारी अपने आप खुली। दादीसा, जिनकी उम्र 80 पार थी, भागती हुई वहाँ पहुँची। उनके हाथ में 50 साल पुरानी एक डायरी थी… जिस पर नाम लिखा था "संध्या देवी राठौड़"।

उन्होंने काँपते हाथों से डायरी खोली… और लिखा था “मेरी शादी के दिन उन्होंने मुझे आग में झोंक दिया… मैं ज़िंदा जल गई थी। मुझे शक था उनके रिश्तों पर… और उन्होंने मुझे ही दोषी ठहराया। अब मैं हर साल वापस आती हूँ… उसी कमरे में… अपनी अधूरी विदाई लेने। जब तक कोई मुझे स्वीकार नहीं करेगा, मैं मुक्त नहीं हो सकती…”

रवि की नज़रों के सामने अचानक असली संध्या की एक झलक आई जो महल के पिछवाड़े बेहोश पड़ी थी। यानी… ये आत्मा किसी और की थी!

और तभी, "संध्या" की रूह ने रवि के माथे पर हाथ रखा…
और उसकी यादों में झाँकने लगी।

हर वह पल रवि का बचपन, उसकी माँ की मौत, अकेलेपन की पीड़ा सभी बातें उस आत्मा ने महसूस कीं… और उसके चेहरे पर एक रहस्यमयी करुणा उभरी।

"तू अकेला है... मैं भी... चल, अधूरी बातें पूरी करते हैं।"
उसकी आवाज़ अब मानवीय हो चली थी… लेकिन डर अब भी मौजूद था।

रवि की साँसें तेज़ हो रही थीं… कमरा ठंडा हो गया था… और दीवारों पर लाल रंग से एक नया नाम लिखा गया था, रवि।

महल की घड़ी ने रात के 12 बजा दिए थे… लेकिन वो रात, किसी भी आम रात जैसी नहीं थी। वो एक ऐसी रात थी जो किसी के जीवन का अंत… और किसी की अधूरी मृत्यु की शुरुआत थी।

रवि की आँखों के सामने अब दो संध्याएँ थीं एक बेहोश, ज़मीन पर पड़ी… और दूसरी, एक रूह बन चुकी, जो अब रवि के और पास आ चुकी थी।

उस रूह की आँखों में अब कोई गुस्सा नहीं था… बल्कि एक अजीब सी उम्मीद थी… जैसे सालों से वो इसी पल का इंतज़ार कर रही हो।

"रवि…" उसने अपना ठंडा हाथ रवि की छाती पर रखा।

"एक बार 'हाँ' कह दो… ये विवाह, सिर्फ रस्मों से नहीं… रूहों से बंधेगा।"

रवि काँपते हुए पीछे हटा “लेकिन… ये सही नहीं है… तुम इंसान नहीं हो।”

रूह मुस्कुराई, “इंसानों ने ही मुझे रूह बनाया। अब मैं सिर्फ अपना अधूरा वादा पूरा करने आई हूँ…"

“और वो क्या है?” रवि ने पूछा।

"मुझे एक दूल्हा चाहिए… जो मेरी चिता की राख से शादी कर सके… ताकि मैं मुक्त हो सकूँ।”

रवि की रगों में खून जमा-सा गया। पर तभी, दादीसा ने कमरे में प्रवेश किया। उनके हाथ में एक पुराना मंगलसूत्र था, जो संध्या की शादी से पहले ही जला दिया गया था।

“ये वही मंगलसूत्र है जिसे तेरे साथ जलाया गया था,” दादीसा बोलीं “अब इसे स्वीकार कर ले बेटा… नहीं तो ये आत्मा कभी चैन नहीं पाएगी।”

महल के कमरे में अचानक दीये जल उठे। रूह ने रवि की आँखों में देखा… और कहा,

“मुझे सिर्फ मुक्ति चाहिए… अगर तू मेरे साथ एक अंतिम फेरा लेगा, मैं तुझे छोड़ दूँगी… और इस महल को भी।”

रवि ने काँपते हाथों से वो राख से सना मंगलसूत्र उठाया…
और मौन रूप से एक रूह की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगा…

महल के पिछवाड़े, एक टूटी हुई चिता फिर से सजाई गई…
राख में वो मंगलसूत्र रखा गया।

रवि और उस रूह ने, बिना मंत्रों के… आग के चारों ओर 7 कदम चलकर एक चुपचाप विवाह पूरा किया।

सातवें फेरे पर… उस रूह ने हवा में घुलते हुए कहा “अब मैं जा रही हूँ… लेकिन तू हमेशा मेरी कहानी का हिस्सा रहेगा…”

और फिर… अचानक सन्नाटा… धुआँ… और कुछ पल बाद, संध्या जो बेहोश पड़ी थी होश में आने लगी।

रवि वहीं ज़मीन पर बैठा था… आँखें बंद… और होंठों पर हल्की-सी मुस्कान।

अगली सुबह, जब लोग महल के अंदर आए… तो वहाँ सिर्फ एक पुरानी राख थी, और उस पर लिखा था  “जिसने डर को अपनाया… उसी ने किसी को आज़ादी दी।”


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