Chandresh Chhatlani

Abstract

5.0  

Chandresh Chhatlani

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पराजित हिन्द

पराजित हिन्द

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“जय हिन्द सर।” उसने जोश भरे स्वर में कहा। मोबाइल फोन पर बात करते हुए वह तन कर भी खड़ा था।

“जय हिन्द।” दूसरी तरफ से आवाज़ आई।

“हुजूर, बात यह है कि... मॉडर्न स्कूल के प्रिंसिपल साब ने बुलाया था। दिवाली पर वे आपको लैपटॉप और ए.सी. उपहार में देना चाहते हैं।”

“क्यूँ?” दूसरी तरफ से प्रश्न पूछा गया लेकिन संयत स्वर में।

“हुजूर, उनके स्कूल में फीस दूसरे स्कूलों से थोड़ी-बहुत ज़्यादा है, ऐसी ही कुछ और छोटी-मोटी कमियाँ थीं तो... जिला शिक्षा अधिकारी साहब ने उनको पाबन्द कर दिया। प्रिंसिपल साहब बता रहे थे कि उन्हें अपने टीचरों को अच्छी-खासी तनख्वाह देनी पड़ती है, स्कूल के बच्चों पर भी बहुत खर्चे होते हैं, इसलिए फीस भी ऊँची रखनी पड़ती है। बच्चों के पैरेंट्स भी खुशी-खुशी फीस भरते हैं।”

“छोटी-मोटी कमियाँ... उनसे पूछना स्कूल के खर्चे स्कूल के बच्चों पर होते हैं या प्रिंसिपल के बच्चों पर ? खैर... लेकिन इसमें मैं क्या कर सकता हूँ ?”

“हुजूर, डीईओ साहब आपके बड़े अच्छे मित्र हैं, आप उन्हें कह दें तो...”

“लेकिन वे मेरी बात क्यूँ मानेंगे ?”

“स्कूल वाले उन्हें भी एक कार उपहार में देना चाह रहे हैं।”

“हूँ...”

“जी हुजूर...तो”

“तो... उन्हें यह ज़रूर कह देना कि लैपटॉप और ए.सी. छोटी-मोटी क्वालिटी का नहीं हो...”

“जी-जी हुजूर... बेस्ट क्वालिटी।” उसने खिलखिलाते स्वर में प्रत्युत्तर दिया।

एक क्षण की शांति के बाद फिर दूसरी तरफ से स्वर आया, “ठीक है, मैं उनसे बात करता हूँ।”

अब उसने पहले से भी ज़्यादा जोश भरे स्वर में कहा, “जी हुजूर, जय हिंद सर।”

“जय हिन्द।”


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