Nisha Singh

Abstract

4.5  

Nisha Singh

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पंछी

पंछी

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545



चेप्टर -7 भाग-1

‘क्या बात है… आज तू बड़ी चुप-चुप सी है? कॉलेज बस में बैठते हुए अंशिका ने मुझसे पूछा।

क्या करूँ, कहीं मन ही नहीं लग रहा था। कॉलेज पहुंचने में अभी आधा घंटा बाकी था और मुझे एक-एक पल बहुत भारी सा महसूस हो रहा था। बार-बार वही 2 दिन पुरानी बातें याद आ रही थी। अंशिका की बात का जवाब नहीं दिया मैंने, जवाब देने के लिए कुछ था ही नहीं। बार-बार रोहित का चेहरा ऐसे सामने आ जाता था जैसे वह मेरे सामने ही खड़ा हो। जब हर तरह से बेबस हो गई तो बस की सीट पर ही सिर टिकाकर आंखें बंद कर ली। पर कमबख्त इन ख़यालों को भी चैन नहीं था। बार बार आकर परेशान करते जा रहे थे। एक एक लम्हा मेरे सामने आकर मुझे परेशान किये जा रहा था।

मैं 2 दिन पीछे पहुंच चुकी थी अपने ख़यालों में, अंशिका कॉलेज नहीं आई थी। मैं अकेली ही थी, कॉलेज में यूं तो वक़्त का पता नहीं चलता है पर अंशिका नहीं आई थी तो ज़रा मन लगाना पड़ रहा था, वक़्त काटना पड़ रहा था। क्लासेस के बीच में हमें 30 मिनट का ब्रेक मिलता है उसी ब्रेक में मैं, अंशिका और समीर कहीं ना कहीं मिल लेते हैं, गुफ्तगू हो जाती है वक़्त अच्छा गुज़र जाता है। अंशिका तो थी नहीं, मैं ही समीर से मिलने कैंटीन पहुंच गई। वहीं बैठा था हमेशा की तरह, टेबल फिक्स है ना हम लोगों की, लेफ्ट से कॉर्नर वाली सीट पर बाहर का नज़ारा अच्छा दिखता है ना वहाँ से।

‘हाय समीर’ मैंने सामने वाली सीट पर बैठते हुए कहा तो जैसे उसकी नींद सी टूट गई।

‘ओह…हाय यार… हो गयी तेरी क्लासेज़? मोटी नहीं आई आज?’

उसकी आवाज़ में थोड़ी परेशानी सी महसूस हो रही थी मुझे।

‘नहीं, वो नहीं आई आज… तू कुछ परेशान सा लग रहा है… क्या बात है?’

‘नहीं यार, कुछ खास नहीं… ‘कहते हुए समीर ने अपनी गर्दन झुका ली। शायद आंखों में आई नमी को छुपाने की कोशिश की जा रही थी पर नाकाम कोशिश थी। 


‘उत्तम अंकल… दो कॉफ़ी, प्लीज़…’

समीर को उदास देखकर मैंने ही ऑफर कर दिया। वैसे उसके होते हुए किसी को बोलने की जरूरत नहीं पड़ती है।

पर आज मेरा दोस्त बहुत शांत था, पता नहीं क्या बात थी जो समीर को परेशान किए जा रही थी ।

‘बता ना यार क्या बात है….’

इस बार भी पूछने का कोई असर दिखाई नहीं दे रहा था। पर उसके अंदर का गम आंखों के रास्ते बाहर निकलने को बेताब था। उसकी लाख कोशिश के बावजूद भी दो बूंदे सैलाब की बह ही निकली। हर बार वो मुझे संभालता था इस बार बारी मेरी थी। मैं उठी और समीर के पास वाली चेयर पर आकर बैठ गई।

उसके कंधे पर हाथ रखकर मैंने फिर पूछा ‘बोल ना यार… क्या हुआ है?’ मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा तो आंसुओं की धार बह निकली। समीर को मैंने अपने पास ला कर गले लगा लिया। अब तो समीर बच्चों की तरह है फफक-फफक के रो पड़ा।

‘अवनी… यार मैं मर जाऊंगा…’

‘ऐसे मत बोल यार…’

‘तू नहीं समझेगी…’ कहते हुए समीर में ने अपने आंसू मेरे दुपट्टे से पोंछ दिए केवल आंसू ही पोंछे होते तो ठीक था नाक साफ करने की क्या जरूरत थी। मेरा सारा प्यार गुस्से में तब्दील हो गया।

‘कुत्ते साले… नाक क्यों पोंछी? मेरा दुपट्टा खराब कर दिया।’ कहते हुए मैंने उसे एक प्यार भरा थप्पड़ मार दिया।

‘तू बहुत बुरी है… मेरी आफरीन होती तो ऐसा बिल्कुल नहीं करती।’

अब उसका रोना ड्रामेबाज़ी में बदल चुका था।

‘अब तू सीधे-सीधे बता वरना तेरा गला दबाकर आफ़रीन को विधवा कर दूंगी मैं’

‘यार… मैं आफ़रीन से बहुत प्यार करता हूँ।’

‘वह पता है मुझे… पर इसमें रोने वाली क्या बात है?’

‘रोने वाली बात दूसरी है।’

‘क्या?’

‘आफ़रीन के पापा हमारी शादी के लिए तैयार नहीं है।’

‘क्यों… क्या कमी है तुझमें?’

‘मैं हिंदू हं।’ 


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