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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Romance Tragedy

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Romance Tragedy

पीली साड़ी वाली लड़की

पीली साड़ी वाली लड़की

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343

शफ्फाक चेहरा उस लड़की का दिखा, मंत्रमुग्ध हो रितिक सब भूल गया। अपनी बाइक से उसके पीछा करने लगा। वह पीली साड़ी में थी। उसने बाल खुले रखे थे, जो पीठ से भी लंबे हो रहे थे। जिनके पीछे वह बैठी थी, वह उम्र से उसके पिता जैसे मालूम पड़ते थे। एक अंतर रखते हुए लगभग तीन किमी तक रितिक ने पीछा किया था। तब लड़की की बाइक रुकी थी। वह लड़की उतर कर वहाँ एक गेट के अंदर चली गई और जिनके साथ आई थी, वे व्यक्ति अकेले वापिस चले गए थे। 

रितिक को तब याद आया उसे स्कूल जाना है। अपने 'लव एट फर्स्ट साइट' के बारे में, पता हुई इतनी जानकारी से अभी वह संतुष्ट हुआ था। वह स्कूल चला गया था। अगले तीन दिन वह स्कूल के लिए पंद्रह मिनट पहले निकलता था। जिस भवन के सामने लड़की ने ड्राप लिया था, वहाँ पहुँचता और लड़की के बारे में अपने तरीके से विवरण प्राप्त करता रहा था। उसे जो मालूम हुआ वह इस प्रकार था -

अगले दिन वह लड़की स्कूल बस से उतरी थी। वह स्कूल यूनिफार्म में थी। स्कूल दिव्यांगों का था। उसे अचरज हुआ कि यह सामान्य दिखती लड़की, वहाँ क्यों पढ़ती है। उसने स्कूल स्टॉफ से दोस्ती गाँठी थी। उसे पता चला कि लड़की ‘परवीन’ मुस्लिम है। वह दसवीं क्लास में पढ़ती है। वह कहने सुनने में असमर्थ मगर इंटेलिजेंट है। पिछले दिन वह शिक्षक दिवस होने के कारण साड़ी पहनकर स्कूल आई थी।

रितिक, डॉक्टर पिता का इकलौता बेटा था। अभी बारहवीं में पढ़ता था। स्कूल के अलावा कोचिंग जाता था। वह पढ़ने में कुशाग्र था। उसका लक्ष्य NEET में चयनित होकर एम्स से डॉक्टर बनना था। पढ़ने और अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित होने से कोई भी लड़की और प्रेम-व्रेम से उसे कोई सरोकार नहीं था। मगर उस दिन परवीन को देख कर उस पर जो असर हुआ वह जादुई सा कुछ था। रितिक पर यह प्रभाव उसके लिए वेदनाकारी हो गया जब उसे पता चला कि परवीन मुस्लिम थी एवं दिव्यांग थी। उसके प्रेम के मुकम्मल होने की कोई संभावना नहीं बची थी।

रितिक, पिछले तीन दिनों में देखा-जाना सब, दिमाग से झटकना चाहता था मगर परवीन का रूप उसके मनो-मस्तिष्क से निकल ही नहीं पा रहा था। ऐसे में अपनी पढ़ाई में वापिस ध्यान केंद्रित करने के लिए उसे लगा, उसका एक बार परवीन के मम्मी-पापा से मिलना चाहिए। परवीन के बारे में सहानुभूति की बात कर वह हमेशा के लिए सब भुला देगा।

जितना सोचने में आसान था उतना इस विचार को यथार्थ करना सरल नहीं था। यह बहुत खतरनाक हो सकता था। परवीन के घर वाले यदि कट्टर हुए तो उसके जान पर आ सकती थी। अनुभवहीन किशोरवय रितिक के ऊपर एकतरफा प्रेम का तूफान हावी था। संभावित खतरा भी उसे रोक नहीं सका। 

रितिक, एक शाम परवीन के घर पहुँच ही गया। बेल बजाऊँ या नहीं पशोपेश में था तभी गेट खुला था। सामने सलवार कुर्ती में परवीन थी, उसे दरवाजे पर खड़े पाया तो प्रश्नवाचक निगाहों से उसे देखा - 

रितिक ने पूछा - पापा हैं ?

परवीन सुन नहीं सकती थी हाथ के इशारे से ठहरने कहा, कुछ देर में परवीन नहीं एक महिला सामने आईं थीं उन्होंने पूछा - किससे मिलना है ? 

रितिक हकलाते सा बोला - पर र र...परवीन... परवीन के पापा से। 

वह बोलीं - वह अभी घर पर नहीं हैं। 

बोलने के साथ वह पीछे हट कर दरवाजा लगाने लगीं थीं। यह देख रितिक तत्परता से बोल पड़ा - मैं आप से बात करना चाहता हूँ। 

उन्होंने पूछा - किस बारे में? मैं आपको नहीं पहचानती!

 कहते हुए उन्होंने उसे ऊपर से नीचे तक गौर से देखा था। 

रितिक बोला - बैठ कर बता सकूँगा। 

मालूम नहीं कैसे उन्होंने मंजूर किया था। उनके संकेत पर वह उनके पीछे दरवाजे से दाखिल हुआ था। सामने बीच में खुला आँगन था जिसमें चार फाइबर चेयर रखीं थीं। एक में उसे बैठने का इशारा किया और वे सामने खुद बैठ गईं थीं। फिर पूछा - कहो क्या बात है। 

रितिक ने आसपास नजरें दौड़ाई थी। वहाँ कोई नहीं था, बस दो मुर्गियाँ यहाँ वहाँ घूम रहीं थीं। 

पूरी हिम्मत बटोरकर रितिक ने कहना आरंभ किया - मैं रितिक हूँ, डॉ अनूप जोशी का बेटा हूँ। 

उन्होंने टोका - गेस्ट्रोएंट्रोलॉजिस्ट? 

रितिक ने हामी में सर हिलाया और पूछा - आप जानतीं हैं उन्हें? आप परवीन की माँ हैं? 

उन्होंने दोनों प्रश्न के जबाब हामी में सर हिलाकर दिया और कहा - मैंने उनसे ट्रीटमेंट लिया है। 

अब थोड़ा साहस रितिक में बढ़ गया था। उसने बताया - 

"मुझे हफ्ते भर पहले परवीन दिखी थी। देखते ही उससे मेरे हृदय में प्यार का सागर, लहरें उछाल लेने लगा था। बाद में मुझे पता चला, वह मुस्लिम है साथ ही दिव्यांग भी,तभी मुझे समझ आ गया था कि मेरा प्यार एकतरफा रह जाने वाला है। फिर भी मेरा ध्यान पढ़ाई से उचट गया है। मैं डॉक्टर होने के लिए पढ़ रहा हूँ। मैं वापिस पढ़ाई में मन लगाना चाहता हूँ। इसलिए आज एक बार और अंतिम बार आपके दरवाजे पर आया हूँ। मुझे यह कहना है कि परवीन के प्रति मुझे, मेरे मन में जन्मी उससे प्यार की असीम अनुभूति के कारण, उसकी कमीं को लेकर उससे सहानुभूति है। उसे लेकर मन दुखी है। मैं इस सच्चाई से भली-भाँति परिचित हूँ कि यदि मैंने कोशिशें कर परवीन के दिल में भी अपने लिए प्यार की कोंपलें जगा दीं तब भी मुस्लिम संप्रदाय को कदापि हमारा साथ पसंद नहीं होगा। इससे एक अनावश्यक दबाव उस बेचारी लड़की के हृदय पर पड़ेगा। परवीन के साथ पहले ही ईश्वर ने अन्याय किया हुआ है, उसे वाणी और श्रवण शक्ति से वंचित रखा है। अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए मैं उससे यह अन्याय करने की भूल नहीं करूँगा। अतः अब मैं कभी उसका पीछा नहीं करूँगा। हालाँकि ज़िंदगी में उसकी कभी कोई सहायता कर सका तो अपने जीवन को सफल मानूँगा। बस इतना कहना था मुझे, अब चलूँगा।"

रितिक सब जल्दी जल्दी एक श्वांस में कह गया था। परवीन की माँ कम उम्र में ही रितिक की इतनी बुद्धिमत्ता, उसकी स्पष्टवादिता तथा हिम्मत पर चकित थी। हैरानी से उसे देख रही थी। 

वह उठने लगा तो उन्होंने उसे बैठने का इशारा किया फिर बोलीं - तुम मशहूर पिता की संतान हो। छोटे हो अतः क्या कहने आये हो उसके खतरे से अनजान हो। अच्छा हुआ कि परवीन के पापा अभी घर पर नहीं अन्यथा तुम्हारी ऐसी हरकत बर्दाश्त नहीं करते, मालूम नहीं क्या कर डालते। ऐसी बातों के लिए कभी तुम किसी मुसलमान घर नहीं जाना, यह कसम खा लो। मैं एक दिव्यांग बेटी की माँ हूँ, संतान के प्रति ममता से अतिरिक्त जानकार हूँ। तुम्हें माफ़ करतीं हूँ, तुम परवीन की कोई सहायता या परेशान करने का कोई दुस्साहस नहीं करना। मेरी दुआ है तुम अपने पापा जैसे सफल डॉ. बनना। 

(यह कहते हुए उन्होंने उसे उठने का इशारा किया और कहा) - अब तुम जाओ। 

रितिक एक तरह से अपमानित, परवीन के घर से लौटा था लेकिन उसने इसका पछतावा नहीं किया। वह उसका सच्चा प्यार था, सब आसानी से उसने पचा लिया।

समय बीता, परवीन के लिए अनुभूत सच्चा प्यार रितिक की अच्छाई की प्रेरणा बना। फिर कभी परवीन की तरफ मुँह नहीं करेगा, इस संकल्प के साथ अपने लक्ष्य को हासिल करने में लग गया था। बुद्धिमान वह था ही उस वर्ष की NEET में उसने देश में टॉप किया फिर एम्स दिल्ली में मेडिकल की पढ़ाई हेतु उसने प्रवेश ले लिया था। 

~~

इधर -

रितिक मन में भरा सब, आबिदा को कह के चला गया लेकिन आबिदा की दुखती रग को छेड़ गया। वह यादों में खो गईं। दो बच्चों (एक बेटी, एक बेटा) के बाद उनकी तीसरी बेटी जब जन्मी तभी से घर में खुशियों के ताँता लग गया था। उन्हें अच्छे इलाके में बहुत अच्छा घर, काफी कम कीमत में मिल गया। उनके खाविंद बहुत खुश रहने लगे। उत्साहित हो व्यापार में लगे तो कमाई एकाएक बढ़ने लगी। 5 - 7 दिनों में ही नवजन्मी बेटी की शक़्ल, छवि निखर गई थी। दिखाई पड़ने लगा की वह निहायत खूबसूरत है। खाविंद और उन्होंने उसके लिए परवीन नाम तय किया। 

आबिदा की बड़ी बेटी नूरी, साढ़े तीन की थी। वह परवीन के पास से हटती ही नहीं थी। 15 - 20 दिन यूँ बीते कि उन्हें एक बात का खटका हुआ कि परवीन तेज होती आवाज से भी चौंकती क्यों नहीं है? पहले इसे अपने तक रखा लेकिन चिंता बढ़ गई तो परवीन के पापा को बताया। दो तीन दिनों उन्होंने भी परखा था। फिर डॉ. को दिखाया, जाँच से पता चला कि समस्या तो है मगर ऐसी कुछ तकलीफें खुद ठीक भी होतीं हैं। इस आशा से कि शायद ठीक हो जायेगी, दिन बीतने लगे थे। परवीन डेढ़ वर्ष की हुई तो कानों की समस्या तो दूर नहीं हुई बल्कि आवाज भी साफ नहीं हुई। फिर डॉ. के चक्कर शुरू हुए थे। हैदराबाद - मुंबई तक दिखाया गया था। पता चला कि कोई नसें हैं आपस में चिपकीं हैं। जन्मजात समस्या है, जिसका इलाज अब तक नहीं निकाला जा सका है। आबिदा गहन दुःखी हो गईं। उनको ख्याल सताने लगा, इस खूबसूरत, मासूम बच्ची का पूरा जीवन ओंठों पर शब्द और कानों में श्रवण शक्ति के बिना कितना चुनौतीपूर्ण होगा। उनका दिल कहता

"या अल्लाह तूने - हमें खूबसूरत बेटी से तो नवाज दिया

सितम मगर उस पर - तरन्नुम और श्रवण छीन लिया"

उसको मिली कमियों के अहसास आबिदा, उनके खाविंद को होने से परवीन, अतिरिक्त लाड़ दुलार से पलने लगी थी। वह नूरी का तो पसंदीदा खिलौना थी। 

पास पड़ोस से भी उसे बहुत प्यार मिलता। पढ़ने के लिए इस तरह के बच्चों का एक अच्छा स्कूल पास ही था। पढ़ने में उसका मन अच्छा लगा करता। परवीन 12 -13 की हुई तो लिखकर पूछती संगीत कैसा होता है? आप सब का बोलना क्या होता है? सभी के ओंठ हिलते दिखते शब्द नहीं सुनती, उसके लिए शब्द तो किताबों और कॉपियों में लिखे /छपे बस थे। नूरी, गानों और म्यूजिक पर नृत्य किया करती। परवीन के लिए थिरकन संगीत प्रेरित ना होकर अप्पी की नकल प्रेरित होता था।

परवीन 15 की हुई तो अपनी अप्पी से भी ऊँची हो गई, अब आबिदा को उसका बाहर निकलना परेशान कर दिया करता था। परवीन ज़माने की खराबियों से अनभिज्ञ, बिंदास पहले जैसे पास पड़ोस में जाना आना करती लेकिन आबिदा की फ़िक्र उसके बाहर जाते ही नूरी को उसके पीछे भेज देती। यूँ तो संकेतों और लिख कर उसे बहुत कुछ बताया समझाया जाता लेकिन बोलने और सुनने के बिना समझबूझ 100 % पर्याप्त कैसे होती। अब 17 की हुई परवीन ने मम्मी-पापा से बायोलॉजी पढ़ने एवं डॉक्टर बनने की एम्बिशन बताई तो कम पढ़े लिखे वे, संवेदना से भावुक हो गये, वे उसके लिए लैपटॉप ले आये थे।

आबिदा, परवीन की फ़िक्र में ही अक्सर ग़मगीन सी रहतीं थीं। आज रितिक ने उनके घर इस तरह दस्तक दी थी। 

रितिक तो मनमानी कह कर चला गया था मगर आबिदा को डर लग रहा था। अब वे चाहतीं थी, परवीन के पापा को इस की भनक नहीं लगे अन्यथा सब पर खतरा हो जाएगा। अन्यथा परवीन के बाहर - स्कूल आदि पर बंदिशों का डर हो जाएगा।

मुस्लिम औरतों को अपने मर्दों की क्रूरताओं का ज्ञान होता है। अतः ऐसी बातें वे अपने सीने में ही दफन रखतीं हैं। रितिक के आने की भनक उन्हें न पड़े आबिदा इस फ़िक्र में परेशान हो गईं थीं। 

आबिदा ऐसी तंद्रा में खोई सी थीं कि नूरी ने आकर उनकी तंद्रा भंग की थी। वह पूछने लगी कि - वह कह क्या रहा था, मम्मी? 

झूठ कह कर आबिदा बात खत्म करना चाहतीं थीं। उन्होंने कहा - कुछ नहीं, किराये के कमरे हैं क्या, पूछने आया था। 

मगर नूरी ने पूछ लिया - मम्मी मगर वह तो परवीन के बारे में कुछ कह रहा था, ना? 

उन्होंने नूरी को समझाया कि वह पापा के सामने इस बात की कोई चर्चा न करे। फिर आबिदा ने सारा वाकिया उसे कह सुनाया। पापा कैसा रियेक्ट कर सकते हैं, नूरी को भी अंदाजा था। इसलिए उसने भी कोई चर्चा नहीं करने की बात मान ली। 

मगर ...

नूरी को, रितिक की अनोखी दीवानगी दिलचस्प लगी थी। मम्मी के सामने से हट कर वः अपनी पढ़ने की टेबल पर जा बैठी सोचने लगी थी, कितना अंतर है हमारे लड़कों (मुसलमान) में, कहाँ वे लव जिहाद के नाम पर बहुसँख्यकों की लड़कियों को प्रेमपाश में फँसाने में लगे हैं और कहाँ ये रितिक जो ऐसा इसलिए नहीं करता कि हमारी कौम क्या ख्यालात रखती है, इसकी फ़िक्र करता है। अपने (भले ही एकतरफा) प्यार को हासिल करने का इरादा नहीं करता है। कितना फर्क है संस्कारों में, कितना जिम्मेदारी बोध है, कितना अपनापन है इस समाज से कि -

“जिन कार्यों से कौमों में नफ़रत बढ़ने का अंदेशा होता है ऐसे कार्यों को ये लोग नहीं करते”। 

उसके मन में रितिक के लिए सम्मान पैदा हुआ। फिर वह उठी थी और उसने परवीन के पास जा कर उसके चेहरे को ध्यान से देखा था। उसने अपनी बहन के सुंदर चेहरे को देखा, उसके माथे को चूम लिया था। उसे सही लगा कि रितिक क्यूँ इस तरह दीवाना हुआ था। 

परवीन प्रश्न वाचक निगाहों से अप्पी को देख रही थी। नूरी, उसे प्यार से देख सिर्फ हँसे जा रही थी।

दिन बीतने लगे परवीन अब ग्यारहवीं में आ गई थी, उसने बायोलॉजी सब्जेक्ट लिया था। एक दिन अखबार में नूरी को रितिक के NEET में टॉपर होने का समाचार पढ़ने मिला। वह मन ही मन रितिक की प्रशंसक हो गई थी। नूरी ने फेसबुक पर रितिक को खोज लिया था। उसने उसे फ्रेंड रिक्वेस्ट सेंड की थी। जिसे एक्सेप्ट करने के पहले मैसेज से रितिक ने नूरी से उसमें इंट्रेस्ट की वजह पूछी थी। नूरी ने परवीन की बड़ी बहन होने की जानकारी दी तो रितिक ने ऐड कर लिया था। पढ़ने में व्यस्त होने पर भी रितिक, कभी कभी ही नूरी से मैसेंजर में चैट करता था।

एक दिन रितिक ने नूरी को लिंक भेजी थी। जिसमें दिव्यांग कोटे से एम्स में प्रवेश की जानकारी थी। भगवान को क्या मंजूर होता है, कोई जानता नहीं है। प्रतीत हो रहा था कि रितिक को परवीन के घर, ईश्वरीय न्याय ने भेजा था। रितिक द्वारा, नूरी को मार्गदर्शन कराते हुए कोचिंग, प्रिपेरशन के तरीके आदि के मैसेज मिलते रहे। नूरी आबिदा को तो यह सब बताती और पापा से बिना रितिक की जानकारी दिए, परवीन के लिए वह सब बातों की व्यवस्था कराती रही थी। 

यह शायद रितिक का निच्छल, निःस्वार्थ एवं सच्चे प्रेम का परिणाम था कि रितिक के दो वर्ष बाद, इन सारे बैकग्रॉउण्ड से अनभिज्ञ परवीन को एम्स में दिव्यांग कोटे में प्रवेश मिल गया था।

(हालाँकि कुशल कहानीकार के आदर्श कल्पनाओं की उड़ान अंतहीन होती है। फिर भी इस कहानी के विस्तार पर अभी मैं यहीं विराम देता हूँ)


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