फ्लाई ओवर
फ्लाई ओवर
नया फ्लाईओवर बनते समय ऐसा लगता था जैसे पूरे शहर में भूकम्प सा आया हो, हर तरफ धूल - मिट्टी, मशीनों का शोर, आने - जाने का रास्ता नहीं, अव्यवस्था ही अव्यवस्था।
फ्लाईओवर बनने के बाद सबको सुविधा होने लगी थी,
अब लोग शहर की भीड़ - भाड़ से बचते हुए सीधे निकल जाते थे पर उस खाली पड़े रास्ते पर अब एक छोटी बस्ती बसने लगी थी । उस नए फ्लाईओवर ने पता नहीं कितने लोगों को शरण दी थी। दिन में जहां गाड़ियों का शोर होता था।
वहां शाम होते ही रैन बसेरे दिखने शुरू हो जाते थे। एक चारपाई पर पूरी गृहस्थी। इसका नजारा सुबह या रात के समय देखने को मिलता था। खाना बनाते हुए, बर्तन धोते हुए महिलाएं, आधे कपड़ों में बच्चे,आदमियों की चौपाल सब कुछ। एक लड़की को वसुधा अच्छे से पहचान गई थी। वह कभी वहां पैन बेचते, कभी गुलाब का फूल बेचते, कभी खिलौने बेचती दिखाई पड़ती थी।
कुछ दिन बाद वह लड़की अगली लाल बत्ती पर दिखाई दी। उत्सुकता वश वसुधा ने पूछ ही लिया, "यहां कैसे ? तुम तो पिछले लाल बत्ती पर फ्लाईओवर के नीचे रहती थीं ।" उसने कहा," अब हम यहां रहने लगे हैं। वहां का किराया ज्यादा हो गया था। रोज़ लड़ाई होती थी। उस पुल के नीचे जगह पाने के लिए हर कोई कोशिश करता था। धूप - बारिश से बचने के लिए छत जो थी। हममें से ही कोई एक कब मुखिया बना, फिर बिचौलिया और अब दलाल बन गया था। झगड़े का निपटारा करता और फिर जो ज़्यादा पैसा देता, उसको चारपाई डालने की जगह दे देता।
हमारे पास ज़्यादा पैसे नहीं है। मैं ही तो अकेले कमाने वाली हूं। इसलिए यहां आ गए। छत तो नहीं है पर डर भी नहीं है। सुना है, यहां भी नया पुल बनने वाला है, फिर हमारे पास भी छत होगी।" वसुधा सोच में पड़ गई,' ये लाल बत्ती, ये फ्लाइओवर जो सबको आने-जाने का रास्ता देते हैं , किसी के ठहरने की जगह भी बनते हैं।
