शिखंडी
शिखंडी
असीम के जन्म से पहले ही उसका नाम सोच लिया गया था , असीम । लड़का हो या लड़की दोनों पर ही जंचेगा। पर ऐसा नहीं हुआ । उसका नाम तो ठीक था , पर वह नहीं । उसका जन्म किसी को खुशी नहीं दे सका । सब कुछ ठीक होते हुए भी कुछ ठीक नहीं था। सब हैरान और दुखी थे, पूरे परिवार में कोईभी ऐसा नहीं था , फिर यह कैसे ऐसा हो गया ?
" मेरा बच्चा कहां है? मैं उसको देखना चाहती हूं, अपने गले से लगाना चाहती हूं। " स्नेहा ने परेशान होते हुए कहा। स्नेहा अंदर आ गई और उसने बच्चे को उठाकर सीने से लगा लिया । जैसे ही वह अपने नवजात को दूध पिलाने लगी तभी एक कड़क स्वर उभरा ," यह क्या अनर्थ करने जा रही हो ? तुम्हें पता भी है कुछ । अभी तक कोई फैसला नहीं हुआ है । थोड़ी ही देर में वे लोग आते ही होंगे । " सास ने कहा । अचानक कहां से स्नेहा में शक्ति आ गई थी , उसने दृढ़ स्वर में कहा ," अनर्थ मैं नहीं आप करने जा रही हैं। मैं मां हूं इसकी और ये मेरा बच्चा , बस मेरे लिए इतनी वास्तविकता बहुत है । मुझे किसी के फैसले से कोई लेना देना नहीं।मेरे बच्चे के बारे में फैसला करने का हक सिर्फ मेरा है और किसी का नहीं। आपने किन लोगों को बुला लिया , मुझसे बिना पूछे। यह कहीं नहीं जाएगा । आपको शर्म आती होगी । मुझे नहीं आती। भगवान ने मुझे मां बनाया है। अगर वे इस बच्चे को लड़के या लड़की होने का अंश देना भूल गए तो इसमें इस बच्चे का क्या दोष? ये किन्नर है तो क्या हुआ , इसकी रगों में मेरा खून दौड़ रहा है । पूरे नौ महीने जिसको अपने गर्भ में रखा और दुआएं मांगती रही,आज उसे किसी और को दे दूं। अब तो कानून भी इनके साथ कोई भेद भाव नहीं करता , फिर आप क्यों ? यह हमारे साथ रहेगा । मेरा बच्चा , मेरा असीम। " स्नेहा ने बच्चे को उठाकर गले से लगा लिया। पर स्नेहा और असीम की राहें इतनी आसान न थीं। हर पल घर - परिवार की तीखी निगाहें, समाज के कहे - अनकहे प्रश्न दोनों के आत्म सम्मान और आत्म विश्वास दोनों को छलनी कर देता ।
एक किन्नर बच्चे का पालन - पोषण तथा कथित सभ्य , सुशिक्षित और उच्च समाज में सामान्य रूप से करना हमेशा चलने वाले एक युद्ध के समान था। ज़रा सी गलती होने पर माफी की कोई गुंजाइश नहीं थी। हर कदम बहुत संभाल कर चलना था। स्नेहा से ज़्यादा मुश्किल असीम के लिए था। वह बच्चा था और बाल सुलभ चेष्टाएं करना स्वाभाविक था और उसको समझाना सबसे ज्यादा मुश्किल था। पर यह प्रकृति सबसे बड़ी जादूगरनी होती है। जिन चीज़ों की औपचारिक शिक्षा नहीं दी जा सकती , उनकी समझ वह नैसर्गिक रूप से उस प्राणी को दे देती है। असीम को भी लगने लगा था कि वह सब बच्चों से अलग था । इन्हीं सब एहसासों का अहसास उसकी पाठ्य पुस्तकों ने भी दे दिया था। उसके साथी उससे बचने की कोशिश कभी स्वयं करते , कभी उनके मां - बाप करते । पर यह समय कब किसके लिए ठहरा है ? असीम भी बड़ा हो रहा था। यह भी अच्छा है कि समय पर किसी का ज़ोर नहीं वरना लोग अपना अच्छा समय और दूसरों का बुरा समय कभी बीतने ही नहीं देते । पढ़ाई में बहुत होशियार , हमेशा कक्षा में अव्वल आता , पर कोई खुश न होता सिवाय उसकी मां के । असीम की सच में कोई सीमाएं न थीं । वह पुरुष और स्त्री होने की सीमाओं में बंधा हुआ न था। एक उन्मुक्त पक्षी की तरह विचरण करते हुए भी वह एक जिम्मेदार संतान था। परिवार के लिए एक सदस्य के जो भी उत्तर दायित्व होते हैं, वह उसने पूरे दिल से निभाए। दोस्त तो उसके कुछ खास बने नहीं तो उसने किताबों से दोस्ती कर ली । उसने हर तरह की किताब पढ़ी , ज्ञान की , विज्ञान की, समाज की , इतिहास की , बड़े बड़े लोगों की जीवनियां , कविताएं , कहानी , उपन्यास आदि - अनादि कुछ नहीं छोड़ा । जब भी मौका मिलता तो वह भी सामाजिक या पारिवारिक संवादों में अपनी उपस्थिति अंकित करता । सब हैरान होते उसके ज्ञान की गहराई देख कर पर तारीफ़ नहीं करते । उसकी तारीफ़ करना उन्हें स्वयं के लिए गाली लगता । असीम सोचता ," कौन होगा वह जिसने किन्नर समाज को बनाया होगा ? उन्हें समाजिक जीवन से निष्कासित किया होगा ?? किसने उनके लिए नियम बनाए ? " अपने उलझे प्रश्नों का जवाब न पाकर वह धार्मिक किताबों की ओर मुड़ गया । श्रीमद भगवद्गीता को भी पढ़ा । महाभारत का वर्णन पढ़ते हुए उसने शिखंडी के विषय में पढ़ा । शिखंडी ही शायद पहला किन्नर है जिसका वर्णन किताबों में है । किस प्रकार अर्जुन ने भीष्म पितामह को मारने के लिए शिखंडी का प्रयोग किया । भीष्म पितामह ने शिखंडी को सामने देख अपने अस्त्र - शस्त्र रख दिए कि वे एक किन्नर पर वार नहीं कर सकते । किन्तु अर्जुन ने उसी शिखंडी की आड़ लेकर उन्हें परास्त कर दिया । उसे कई सवालों का जवाब खुद ब खुद मिल गया । किन्नर युद्ध नहीं कर सकते , स्त्री या पुरुष विशेष कर्म नहीं कर सकते पर स्त्री - पुरुष अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए उनका सहारा ले सकते हैं। वह माध्यम बन सकते हैं , साधन बन सकते हैं किन्तु साध्य नहीं। पर असीम खुद को किसी योद्धा से कम नहीं समझता था। उसे घर - बाहर हमेशा अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष जो करना पड़ता था। अब असीम कॉलेज जाने लगा था। युवा हो गया था। पर क्या वह सचमुच युवा था? कॉलेज में लड़के - लड़कियों को घूरती निगाहों ने उनके मन का भेद बता दिया था। पहले कुछ दिन तो सब ठीक था क्योंकि वह टॉपर था। हर कोई उसका दोस्त बनने के लिए लालायित सा लगा । उसका लम्बा कद , बढ़िया डील - डौल ने सबको आकर्षित भी कर लिया था। असीम के सामान्य एवम संतुलित व्यवहार को देखते हुए किसी के मन में कोई शक की गुंजाइश ही नहीं थी। पर कुछ चीजें कभी पीछा नहीं छोड़ती । उसका दर्द और लोगों का मज़ाक यहां भी आ ही गया था। ' हिजड़ा ' , यह शब्द उसके कानों में सीसे की तरह पड़ा । किसी ने आज तक यह शब्द उसके सामने उसके लिए प्रयोग नहीं किया था।
पर यह कॉलेज था । जवानी के तूफान में मचलते हुए लड़के - लड़कियों को रोकने की हिम्मत किसमें है ? इस जवानी के आगे तो अच्छों - अच्छों को घुटने टेकने पड़ते हैं। राजा - महाराजा , बड़ी सेनाएं भी इनके जुनून को काबू नहीं कर पाई तो वह तो एक किन्नर था , लाचार किन्नर , न स्त्री न पुरुष फिर भला वह यह साहस कैसे कर सकता था? असीम ने बात को अनसुना कर दिया और अपनी कक्षा की ओर चल पड़ा । उसके किन्नर होने की बात जंगल में आग की तरह पूरे कॉलेज में फ़ैल गई। पर असीम ने इन सब बातों से स्वयं को तटस्थ कर लिया था। उसका पूरा ध्यान सिर्फ अपनी पढ़ाई पर ही केन्द्रित था। इस पूरे कॉलेज में वह अकेला ही रह गया था और अकेला ही रह जाता अगर अनन्या ने उसके जीवन में दस्तक न दी होती। " अगर आपको ऐतराज न हो तो क्या मैं आपके पास बैठ सकती हूं? " अनन्या ने विनम्रता से पूछा । इससे पहले कि असीम कोई उत्तर देता पीछे से आवाज़ अाई , " अरे मैडम , हम जैसे जवान भी हैं या यहां । वहां क्या मिलेगा आपको ? " कॉलेज का बिगड़ा हुआ लड़का सुजीत बोला । अनन्या ने उसको जवाब देना ठीक नहीं समझा और मुस्कराते हुए असीम के बगल में बैठ गई। क्लास खतम होने पर इससे पहले कि असीम कुछ कहता , अनन्या बोली ," इतना हैरान होने की जरूरत नहीं है। सब कुछ जानती हूं तुम्हारे बारे में। तुम कितने होशियार हो और कितने उदार भी। इनको इनकी गलतियों की सजा भी नहीं देते बस अर्जुन की तरह अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित किए हुए हो । मुझे लड़का , लड़की या कुछ और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । मेरे लिए तुम एक मनुष्य हो, इस कॉलेज के विद्यार्थी हो और मेरे सहपाठी हो । इतना काफी है तुमसे बात करने के लिए , तुमसे दोस्ती करने के लिए।" , कहते हुए उसने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया । एक ही पल में हजारों ख्याल असीम के ज़हन में बिजली की तरह कौंध गए । उसने बिना कुछ बोले अपना हाथ भी आगे बढ़ा दिया । अनन्या और असीम जल्दी ही अच्छे दोस्त बन गए। अनन्या को देखकर कुछ और लोग भी असीम के दोस्त बन गए थे जो अब तक किसी शर्म या संकोच के कारण उससे दोस्ती नहीं कर पा रहे थे। अब असीम खुश रहने लगा था। दोस्ती का स्वाद अब उसने चखा था। वह शुक्र गुजार था अनन्या का , जिसकी वजह से आज उसके पास कुछ अच्छे और सच्चे दोस्त थे जिनमें लड़के और लड़कियां दोनों ही थे। पर यह दोस्ती सुजीत को रास नहीं आ रही थी। उसके पुरुषत्व और अहम पर करारी चोट पड़ी थी जिसका दर्द उसे रह रह कर साल रहा था। अभी तक किसी ने उसे ठुकराया नहीं था , मना नहीं किया था। पर एक हिजड़े की हिम्मत तो देखो , उससे मुक़ाबला करने चला है । असीम ने कभी उसे अपना प्रतिद्वंदी नहीं माना था और न ही कभी कोई ऐसी मंशा जाहिर की थी। पर सुजीत के मन में उसके लिए विष वृक्ष पनप चुका था और दिन पर दिन अपनी जड़ें गहरी करता जा रहा था। एक दिन उसने बदला लेने की ठान ही ली । कॉलेज का वार्षिक कार्यक्रम था । हर कोई व्यस्त था , अनन्या और उनके बाकी साथी भी । कार्यक्रम खतम होते होते रात के दस बज गए । बस सुजीत को लगा यही सही मौका है अपना बदला लेने का । आज बहुत भीड़ है , किसी का उसपर ध्यान भी नहीं जाएगा । वह सड़क के किनारे पर अपने दो साथियों के साथ छुप कर खड़ा हो गया । उसे अपने शिकार का इंतज़ार था जिसने उसकी मर्दानगी को ललकारने की गुस्ताखी की थी। आज वह उसे रौंद कर अपने विजयी होने का ऐलान करेगा । कुछ ही देर में उसे अपना शिकार आता दिखाई पड़ा । वह और उसके साथी तैयार हो गए, उसके पास आते ही उन लोगों ने उस पर एक बोरा डाल दिया और खींचते हुए सड़क के पीछे की तरफ झाड़ियों में लेकर जाने लगे । वह जगह दिन में भी सुनसान ही रहती थी, पर शहर जाने की आखरी बस यहीं से मिलती थी। इसलिए अनन्या को इधर आना ही पड़ा । एक फोन आ जाने के कारण असीम को वापिस कॉलेज जाना पड़ा । अनन्या ने कहा ," तुम काम खतम करके आओ तब तक मैं बस रुकवाती हूं। वरना घर जाने में परेशानी होगी। " असीम ओके कहकर दौड़ते हुए कॉलेज चला गया । बस इसी में सुजीत को मौका हाथ लग ही गया । अनन्या भी कोई बेचारी या अबला नहीं थी। जूडो कराटे में माहिर थी। उसने उन तीनों मर्दों का जमकर मुकाबला किया । पर अभिमन्यु की तरह जब तीनों ने एक साथ मिलकर उस पर हमला किया तो वह खुद को बचा न सकी और उसके कुर्ते की आस्तीन फट कर सुजीत के हाथ में आ गई । " तुझे पूरे कॉलेज में वह हिजड़ा ही मिला था दोस्ती करने को । हमारी मर्दानगी को चुनौती दी थी न तूने तो अब अंजाम के लिए भी तैयार रह।" कहते हुए सुजीत ने आस्तीन का फटा हुआ टुकड़ा हवा में उछाल दिया । अनन्या की आंखों के सामने अंधेरा छा गया , अब उसकी इज्जत तार तार होने से कोई नहीं बचा सकता । इस युद्ध में कौन सा अर्जुन , कौन सा कृष्ण उसे बचाने आएगा । तभी सुजीत के सिर पर जोर से वार हुआ । वह पलटा , वहां सामने उसे असीम हाथ में डंडा लेकर खड़ा दिखाई दिया । असीम ने पूरी ताकत बटोरकर तीनों का सामना किया । अनन्या भी साथ में मिलकर लड़ने लगी। तभी पुलिस की गाड़ी की आवाज़ सुनाई देने लगी। पुलिस ने मौके पर आके तीनों को गिरफ्तार कर लिया । अनन्या और सुजीत को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है ? तभी असीम ने कहा ," मैं जब कॉलेज से वापिस आया तो तुम्हें यहां न पाकर परेशान हो गया और इधर उधर देखने लगा । तुम्हारी आवाज़ सुनाई दी , उसी दिशा में चला तो तुम्हें और सुजीत को देखा ।पलभर में ही सारा माजरा समझ में आ गया । मैंने तुरंत ही पहले पुलिस को फोन किया , फिर कॉलेज में और तुम्हें बचाने यहां आ गया ।" कॉलेज के विद्यार्थी और टीचर्स भी वहां पहुंच चुके थे। सब ने खुले मन से असीम के सूझ - बुझ और साहस की तारीफ की । पर असीम के मन में कुछ और ही चल रहा था। आज उसने एक दंभी पुरुषत्व से स्त्रीत्व की रक्षा की थी। अगर पुरुषत्व का अर्थ सिर्फ अपने अहम की तुष्टि करना है तो उसे अपने किन्नरत्व पर गर्व है। वह स्त्री या पुरुष होने भर से नहीं बल्कि सही होने से किसी भी स्त्री या पुरुष का साथ दे सकता है । आज उसे लग रहा था कि वह शिखंडी नहीं है । आज शिखंडी ने अर्जुन को पीछे कर दिया है , आज वह स्वयं अर्जुन बन गया था।