वापसी

वापसी

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सुबह बगीचे में टहलते हुए स्वयं से बातें करना वसुधा का प्रिय काम रहा है। उस समय वह अपने साथ इतनी व्यस्त रहती है कि किसी से नमस्ते भी नहीं करती। इसी सब में अपने भटके पति का भी ख्याल आया। वसुधा जिसे देवता समझ पूजती रही, कब उसने चुपके से अपने कदम पीछे कर किसी और का हाथ पकड़ लिया, उसे पता ही नहीं चला। बस रह गई - शिकायतें।


यही सोचते हुए उसकी नज़र अपने आस - पास फैली पत्तों पर पड़ी ओस की बूंदों पर गई। पता नहीं, यह बूंदें दिनभर कहां रहती है, कहां भटकती हैं और पता नहीं, रात की किस घड़ी में इन पत्तों पर आ जाती है ठीक वैसे ही जैसे सब प्राणी रात में अपने घर आ जाते है।


शराबखाना हो या तवायफ खाना, सिर्फ सबका दिल लगाते है। पर अंत में यही कहते है, अब अपने घर जाओ। बस वसुधा भी चल पड़ी, अपने पति को वापिस अपने घर लाने, ओस की बूंदों की तरह।


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