पानी वाँ छे (लघुकथा)
पानी वाँ छे (लघुकथा)
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"चल अंदर चल!"
"पानी वाँ छे!"
"हाँ, तो अंदर आ!"
ये आवाज़ें सुनकर ऊपरी मंज़िल पर मैं अपने फ़्लैट की बालकनी पर आ गया। आवाज़ें मेरे से नीचे वाले फ़्लैट की बालकनी से आ रहीं थीं। कुछ देर नीचे देखता रहा। नीचे वाली बालकनी पर एक मासूम चेहरा आसमाँ की ओर देख रहा था। उसकी चंचल आँखें और उसके माथे पर जमे बार्बी डॉल जैसे घने चमकीले काले बाल उसके होठों की मुस्कान की तरह मुस्करा रहे थे और उसके पास रखा टैडी बिअर भी ख़ूबसूरत लग रहा था। यह सब देखकर मेरा सारा तनाव और थकावट दूर हो गई। घने रौबीले काले बादल आसमाँ पर छाये हुए थे। रुक-रुक कर बूँदें गिर रहीं थीं। मैं कभी ऊपर देखता, तो कभी नीचे। तभी उसने अपना नन्हा हाथ ऊपर उठा कर मेरी ओर देखकर ज़ोर से कहा :
"पानी वाँ छे! अंतल, देथो... पानी वाँ छे!" यह सुनकर मैं मुस्कराने लगा और अपना सिर हिलाकर उससे "हाँ..हाँ" का इशारा किया ही था कि उसके डॉक्टर पिता जी उसका हाथ खींचते हुए अंदर ले गये। मैंने सिर्फ़ इतना सुना :
"मना किया था ना... मत जाना बालकनी पर! नीचे टपकना है क्या! कितनी बार डिस्टर्ब करेगा मुझे!"
इस वाक्य में आये शब्द 'डिस्टर्ब करेगा' ने मुझे चौंका दिया; वरना डॉक्टर साहब के उस बेटे के मासूम ख़ूबसूरत चेहरे में मैं अपनी दिवंगत बिटिया को देखने का सुख हासिल कर रहा था। तभी मैंने पुनः बालकनी से नीचे झांका। नीचे के कमरे से सिसकती आवाज़ में मुझे बस यही सुनाई दिया :
"पापा, पानी.. पानी वाँ छे!"
तेज़ बारिश होने लगी थी। लेकिन... मेरे दिमाग़ में दृश्य उभर रहा था सिसकते बच्चे का और उस टैडी बिअर का, बस!"