ननिहाल , बचपन के वो दिन
ननिहाल , बचपन के वो दिन
ननिहाल की यादें
रामप्रसाद गुप्त उस रविवार की सुबह दिल्ली के जनकपुरी स्थित अपने ड्राइंग रूम में नाश्ता कर रहे थे। अचानक ही उनका मन बचपन की उन प्राइमरी स्कूल वाली स्मृतियों में खो गया। उनके पिताजी जिस कस्बे में कार्यरत थे, वहाँ से उनका ननिहाल लगभग पाँच किलोमीटर दूर था। रामप्रसाद अक्सर अपनी दो साल बड़ी दीदी के साथ वहाँ जाया करते थे। आज भी जब वे दोनों उन दिनों को याद करते हैं, तो शरीर में सिरहन-सी दौड़ जाती है और दिल में अजीब-सी गुदगुदी होने लगती है।
शनिवार की दोपहर होते ही वे दीदी के साथ टेढ़ी–मेढ़ी, ऊबड़–खाबड़, ऊँची–नीची पगडंडियों से होकर ननिहाल पहुंचते। मस्ती करते हुए पूरा दो घंटे का रास्ता कब कट जाता, पता ही नहीं चलता।
नाना–नानी खुले दिल से मुस्कान लिए उनका स्वागत करते और प्यार से गले लगा लेते। रामप्रसाद उनके पैर छूता और घर में अपनापन घुल जाता।
सुबह उठते ही वह हाथ–मुँह धोकर पास के नाले से पानी लाता। बड़े घर के सामने अलग से बना रसोईघर था, जिसमें चूल्हा जलता रहता। नानी रोज सुबह स्नान कर चूल्हे के पास गाय के गोबर से आँगन लीपतीं। एक बड़े बर्तन में चाय बनती और मामा–मामी को बड़े मग में भरकर भेजी जाती। चाय दो–तीन बार बनती क्योंकि घर में हमेशा कोई न कोई कामवाला आता–जाता रहता था।
मामा–मामी खेतों में काम पर चले जाते। बच्चों के नाश्ते में मक्की की रोटी पर ताज़ा निकला मक्खन मिलता। फिर रामप्रसाद और दीदी गाँव के अन्य बच्चों के साथ जंगल में पशु चराने चले जाते। रविवार उनके लिए पूरी तरह खेल–कूद और मस्ती का दिन होता था।
नाना–नानी की हिदायत रहती कि पशु किसी के खेतों में न घुसें। फिर भी कभी–कभी भूल हो जाती और गाँव वाले उलाहना लेकर आ जाते। शाम को लौटकर दीदी नानी को पूरा ब्यौरा देती—कितनी बार गाय खेतों की ओर भागी और कितनी बार उसे रोका।
दोपहर में पशुओं को पानी पिलाने वे तालाब जाते। गाय, भैंसें और बैल तालाब में नहाते, बच्चे गीत गाते और पानी में पत्थर उछालते। कई बार वे खुद भी तालाब में उतर जाते। शरारती लड़के कभी-कभी उनके कपड़े छिपा देते, तब वे मामा से शिकायत लगाते।
गाँव की लड़कियाँ ‘चबा’ बड़े चाव से खेलतीं—जिसमें चार–छह खाने बनाकर एक पैर पर खड़े होकर लकड़ी का चबा उसमें धकेलना होता था। लड़के पिट्ठू खेलते। गाँव के एक लड़के ने लोहार से चार पहियों वाला लकड़ी का ‘गड्ढा’ बनवाया था। बच्चे उसे ढलान से फिसलाते, फिर धक्का देकर ऊपर लाते—यह उनके लिए किसी खेल से कम न था।
जंगल में मोर दिख जाते। रामप्रसाद उनके पीछे–पीछे पंख पाने भागता, पर कभी सफल नहीं होता। उसे याद है—शाम होते ही मोर और जंगली सूअर तालाब पर पानी पीने आते। वह घंटों तालाब किनारे बैठकर उनका इंतज़ार करता और जब वे दिखते तो आनंद का ठिकाना नहीं रहता।
लड़कियाँ गीत गातीं, लड़के नाचते। कोई अचानक तेज़ आवाज़ में गाना छेड़ देता तो राह चलते लोग भी ठहरकर सुनने लगते। कुश्ती गाँव का सबसे बड़ा आकर्षण थी—बराबरी वालों में दंगल होता और जीतने वाले को छोटा–मोटा इनाम मिलता। कई बार पूरे गाँव में घुमाकर उसकी शान बढ़ाई जाती।
गाँव से सटा घना जंगल था। उसके बीच एक सिद्ध स्थान था—पीपल के नीचे रखा पत्थर, जिसे फसल आने पर गाँव वाले पूजते थे। वह दिन रामप्रसाद को बेहद प्रिय था—पूजा, भोग और प्रसाद खाने की खुशी कुछ अलग ही होती थी।
जंगल में लकड़ियाँ काटने नेपाली मजदूर आते, जिन्हें गोरखा कहा जाता था। उनका रहन–सहन, गीत और नृत्य बच्चों को बहुत अच्छे लगते। वे दूर से ही बैठकर उन्हें देखना पसंद करते।
रामप्रसाद को मामा–मामी को खेत में हल चलाते देखना अच्छा लगता। खेतों में बीज बोए जाते, और कुछ ही दिनों में फसलें झूमने लगतीं। वे ककड़ी (काकरिया) तोड़कर बड़े चाव से खाते। नाना के बाग से अमरूद तोड़ना और खाना उनके बचपन की सबसे स्वादिष्ट यादों में से एक है।
कभी–कभी वे शरारत में दूसरों के खेतों से भी ककड़ी तोड़ लेते और पकड़े जाने पर गाँव वाले नाना को शिकायत कर जाते। पानी की कमी के दिनों में पनघट पर लंबी लाइनें लगतीं और घड़ा भरने में घंटों लग जाते।
गिल्ली–डंडा उनका प्रिय खेल था। सोमवार आते ही वे वापस स्कूल लौट जाते। नाना उन्हें पाँच–दस पैसे देकर विदा करते और इन्हीं पैसों को वे खज़ाने की तरह सँभालकर रखते।
दीवाली पर नई ड्रेस मिलती थी। साल में छह महीने ननिहाल में बिताना उनके लिए जीवन का सबसे बड़ा उपहार था। आज भी उन स्मृतियों को याद कर रामप्रसाद का मन तरोताज़ा हो उठता है—जैसे बचपन की खुशबू फिर हवा में घुल गई हो।
