मेरी किचन यात्रा, अनुभवों का रसास्वादन
मेरी किचन यात्रा, अनुभवों का रसास्वादन
बात 80 के दशक की है। मैट्रिक अच्छे अंकों से पास किया था और कॉलेज जाने का उत्साह उतना ही था जितना गाँव से बाहर पहली बार निकलने वाले नौजवान में होता है। कॉलेज घर से दूर था, इसलिए शहर में रहकर पढ़ाई करनी थी। एक छोटा-सा किराए का कमरा लिया और वहाँ मेरी नई जिंदगी शुरू हुई।
घर में माँ के हाथ का गरमागरम खाना मिलता था, धुले कपड़े मिलते थे, कोई चिंता नहीं थी। लेकिन शहर में आते ही पहली चुनौती सामने खड़ी थी— खाना खुद बनाना।
मैंने कभी रसोई में पैर तक नहीं रखा था, पर जब समस्या सिर पर आती है, तो इंसान रास्ता ढूँढ ही लेता है।
माँ ने समझाया—
“बेटा, एक बर्तन में चावल डाल देना, पानी-नमक दे देना। दूसरे में दाल, घी-मिर्ची डाल देना—बस बन जाएगी।”
पहले दिन ही मैंने उसी नुस्खे से खाना बना लिया। अजीब-सी खुशी हुई— कुछ सीखने की शुरुआत हो चुकी थी।
चाय बनाना, चावल-दाल बनाना — धीरे-धीरे रूटीन बन गया। उम्र रही होगी सत्रह साल।
हफ्ते में एक बार घर जाता था और माँ से कहता—
“माँ, रोटी नहीं बनती।”
माँ हँसकर बोलीं— “पहले सबकी रोटी भारत का नक्शा बनती है। तुम बनाओगे, धीरे-धीरे बिल्कुल गोल हो जाएगी।”
और वैसा ही हुआ। शुरू में रोटी कुछ भी लगती थी, बस रोटी नहीं! फिर एक हफ्ते बाद खाने लायक रोटी बनने लगी।
मुझे सिर्फ पीली दाल बनानी आती थी। एक महीने बाद उसका नाम सुनकर ही मन उचट जाता था।
उड़द की दाल, राजमा—सबका टाइम ज़्यादा लगता था, और मेरे पास प्रेशर कुकर नहीं था। पास का फार्महाउस था, जहाँ कोई नहीं रहता था। एक दिन हिम्मत करके वहाँ से चुपके से कुकर उठा लाया।
उस दिन उड़द की दाल बनी—और मन खिल उठा। घर पर कबूल भी कर लिया कि कुकर फार्महाउस से लिया है। डाँट नहीं पड़ी। “कोई बात नहीं बेटा”, बस इतना ही कहा गया।
धीरे-धीरे खाना बनाना मेरे लिए सिर्फ एक जिम्मेदारी नहीं रहा। वह मेरे जीवन का एक शांत, अवेयरनेस वाला कोना बनकर उभरा।
मैंने महसूस किया—
“मेरे लिए खाना बनाना एक डायनेमिक मेडिटेशन है। एक हल्की-सी गतिविधि, जिसमें मन बेहद जाग्रत हो जाता है। उस छोटी-सी प्रक्रिया में एक अनोखा आनंद मिलता है।”
चूल्हे की आँच, सब्जी की खुशबू, चावल की भाप — सब जैसे मन को केंद्रित कर देते थे।
तारापुर की पोस्टिंग में 4 साल बैचलर लाइफ़ रही। वहाँ किसी को चाय भी बनानी नहीं आती थी। और मैं… धीरे-धीरे सबका कुकिंग लीडर बन गया।
एक साथी को चेन्नई से फोन आता था— “बेटा, चावल कैसे बनते हैं?”
सब हँसते थे। उनकी शादियाँ हुईं, और उनकी पत्नियाँ मज़ाक में कहतीं—
“इन्हें खाना बनाना तो प्रदीप जी ने सिखाया है।”
फ्रांस में ट्रेनिंग के दौरान खाना बनाना वरदान साबित हुआ। बाहर खाना महँगा भी था और मन को सूट भी नहीं करता था। मैंने भारतीय खाना बनाकर पैसे भी बचाए और स्वास्थ्य भी।
एक पाकिस्तानी परिवार को घर बुलाया। उनके लिए रोटियाँ बनाईं। वे चकित रह गए और पाकिस्तान फोन कर कहा—
“हिंदुस्तान से एक शख्स आया है, जो खातून की तरह रोटियाँ बनाता है!”
पत्नी ने खाना बहुत जल्दी सीख लिया। एक बार हमारे घर बस-ड्राइवर खाना खाने आए। उन्होंने कहा—
“बहुत अच्छा खाना बनाया है।”
पत्नी बोलीं— “इन्होंने बनाया है।”
और मैं मुस्कुराते हुए चुपचाप इधर-उधर देखने लगा
बचपन में रसोई सिर्फ स्त्रियों का क्षेत्र माना जाता था। चूल्हे के पास एक अलग जगह होती थी, जहाँ सब जाने की अनुमति नहीं थी।
लेकिन आज समय बदल चुका है। आज के बच्चों को सर्वाइवल कुकिंग आनी चाहिए— थोड़ा आमलेट, थोड़ी चाय, कोई एक सिंपल डिश।
मेरा बेटा ओजस्वी भी मुझे देखकर टिक्की तलना सीख गया है।
अगर आप युवक हैं, घर से बाहर रहते हैं, या आगे कहीं जाना है—
खाना बनाना सीखिए। यह सिर्फ एक कला नहीं, बल्कि आंतरिक शांति और आत्मनिर्भरता का डायनेमिक मेडिटेशन है।
