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Pradeep Kumar

Classics Inspirational

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Pradeep Kumar

Classics Inspirational

एक कप चाय की कीमत

एक कप चाय की कीमत

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चाय की असली कीमत

सुबह की पहली भाप उठती प्याली—

भारत में दिन की शुरुआत नहीं,

एक मौन संवाद होती है।

चाय कहीं दस रुपये की है,

कहीं सौ की।

पर मैंने सीखा कि चाय की असली कीमत

न दुकान तय करती है,

न मेन्यू—

उसे तय करता है भाव।

बचपन में घर कोई आता था,

तो सवाल नहीं होता था कि चाय पीएगा या नहीं—

सवाल बस इतना होता था:

“कब बनानी है?”

चाय हमारे यहाँ

मेहमाननवाज़ी नहीं,

मेहमाननवाज़ी की भाषा थी।

मुंबई आकर यह भाषा

थोड़ी खामोश हो गई।

यहाँ लोग समय बचाते हैं,

भाव नहीं।

कई बार चाय न पूछना

यहाँ सामान्य बात है।

इन्हीं दिनों मेरे घर

पेंटिंग का काम चल रहा था।

नई दीवारें, नया रंग—

पर फर्श पर

पेंट के छींटे गिर चुके थे।

मैं जानता था—

अगर अभी साफ़ नहीं हुए,

तो ये दाग़

घर से पहले

मन में बस जाएँगे।

शाम हो चुकी थी।

काम करने वाले लड़के

अपने ब्रश और बाल्टियाँ समेट रहे थे।

मेरे भीतर बेचैनी थी,

पर मैं सौदा नहीं करना चाहता था।

तभी मैंने

बिल्कुल साधारण स्वर में कहा—

“चाय पीकर जाओ।”

चाय बनी।

प्याली से उठती भाप

कमरे में नहीं,

दिल में फैल गई।

कुछ ही देर में

मैंने देखा—

वे बिना कुछ कहे

झुककर फर्श साफ़ करने लगे।

कोई निर्देश नहीं,

कोई शर्त नहीं।

बस चुपचाप काम।

आधे घंटे में

वह फर्श वैसा हो गया

जैसा कभी गंदा हुआ ही न हो।

और मेरा मन—

उससे भी ज़्यादा साफ़।

मैंने कहा—

“यह तो एक्स्ट्रा काम हो गया,

इसके पैसे…?”

उनमें से एक मुस्कराया।

उस मुस्कान में

थकान नहीं,

सम्मान था।

उसने कहा—

“नहीं साहब।

आपने चाय पिलाई।

दिल खुश हो गया।

यह हमारी तरफ़ से

चाय का तोहफ़ा समझिए।”

उस पल

मैं समझ गया—

चाय सिर्फ़ पेय नहीं।

यह बराबरी का आमंत्रण है।

यह कहना है—

तुम सिर्फ़ काम करने वाले नहीं, इंसान हो।

उस दिन मैंने सीखा—

एक कप चाय

कभी-कभी

सबसे महँगा भुगतान बन जाती है।


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