कन्या की वाणी और कर्म का फल
कन्या की वाणी और कर्म का फल
दिल्ली से ग्रेजुएशन और B.Ed करने के बाद जितेंद्र पाल अपने पैतृक गाँव—देहरादून के पास बसे छोटे से गांव खेड़ा लौट आया था। सपनों से भरा मन, पर जेब में सीमित साधन। टीचिंग की नौकरी के लिए वह पूरी मेहनत कर रहा था, पर दो-तीन साल बीत जाने के बाद भी कहीं नियुक्ति नहीं हुई।
धीरे-धीरे हताशा मन में घर करने लगी। लेकिन जितेंद्र का स्वभाव था,ठहरना नहीं। वह गाँव के बच्चों को पढ़ा देता, खेती-बाड़ी में हाथ बँटा देता, ताकि मन में बोझ न चढ़े।
एक दिन वह गाँव के कुछ बच्चों के साथ पास के एक फंक्शन में गया। आरती, ढोल-नगाड़ों और भंडारे की खुशबू से भरी वह शाम मन को हल्का कर रही थी। वापस लौटते समय सबने भंडारे का भारी खाना खाया था। चलते-चलते उसी मज़ाक में जितेंद्र ने अपने पास चल रही छोटी बच्ची मंजू से पूछा—
“अरे मंजू, बता तो… मेरी नौकरी कब लगेगी?”
मंजू ने दुपट्टा हवा में उछालते हुए हँसकर जवाब दिया
“भैया, अगले महीने।”
जितेंद्र हँसा,“अच्छा? तो तारीख भी बता दे!”
मंजू ने बिना सोचे कहा
“अठारह… हाँ, अगले महीने की 18 तारीख!”
सामने सड़क किनारे खड़ा एक छोटा-सा स्कूल दिख रहा था। मंजू ने उसी की ओर इशारा कर दिया—
“यही में लगेगी… यह वाला स्कूल।”
सब हँस पड़े। जितेंद्र भी हँसकर रह गया। उसे लगा—मासूमियत का खेल है, बच्चों की बातें भला कौन सच मानता हैl
अगले महीने की 18 तारीख की सुबह ही जितेंद्र के दरवाज़े दस्तक हुई। गाँव वाले ने आवाज़ दी— “जितेंद्र, तेरी अपॉइंटमेंट लेटर आया है… पास वाले पलसोई स्कूल में!”
जितेंद्र कुछ पल तक सुनता ही रह गया। खबर हवा बनकर पूरे गाँव में फैल गई। लोग बोले, “अरे! मंजू की बात सच हो गई!”
जितेंद्र ने पहले वेतन से सबसे पहला काम किया— दो अच्छे कपड़े खरीदे और मंजू के घर पहुँच गया।
कपड़े आगे रखकर बोला
“अरे देवी! तुम्हारे मुँह में सचमुच सरस्वती बसती है!”
मंजू हँसते-लजाती बोली, “हमने क्या बोला था भैया… बस यूँ ही।”
गाँव की औरतें मुस्कुरा उठीं, “कन्याओं में देवी का वास होता है, हृदय निर्मल हो तो वाणी सच्ची होती है।”
जितेंद्र अब रिटायर हो चुका है। पर यह घटना आज भी उसकी आँखों में ताज़ा है। वह अक्सर सोचता है,
“क्या यह संयोग था? क्या सच में कोई अदृश्य शक्ति हमारे निर्णयों को दिशा देती है? क्या यह भाग्य था या भगवान का संकेत?”
और हर बार उसके मन से वही उत्तर निकलता है—
“मेहनत इंसान करता है, पर सही समय और सही दरवाज़ा… प्रकृति खोल देती है।”
