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Pradeep Kumar

Inspirational

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Pradeep Kumar

Inspirational

फ्रांस का छोटा-सा मंदिर

फ्रांस का छोटा-सा मंदिर

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फ्रांस का छोटा-सा मंदिर

फ्रांस पहुँचे मुझे कुछ ही दिन हुए थे। पोस्ट-डॉक्टरेट का सपना लेकर मैं एक नए देश, नई भाषा और नए जीवन में क़दम रख चुका था। पर सबसे बड़ी मुश्किल थी — फ्रेंच भाषा। फ्रेंच लोग अंग्रेज़ी कम बोलते थे, और मैं फ्रेंच लगभग न के बराबर।

एक शाम मैं अपने हॉस्टल से पास की मार्केट में गया। मुझे मोबाइल रिचार्ज करने के लिए एक एडेप्टर चाहिए था, क्योंकि वहाँ के प्लग अलग प्रकार के होते थे। इलेक्ट्रॉनिक्स की एक छोटी-सी दुकान में मैं घुसा। काउंटर पर लगभग 23–24 साल की एक लड़की थी — गोल चेहरा, हल्की मुस्कान और सफ़ेद दुपट्टे जैसा लाइट स्कार्फ़। वह सिर्फ फ्रेंच बोलती थी; मैं इशारों में बोलता था। फिर भी आश्चर्य यह कि हम दोनों एक-दूसरे को समझ रहे थे।

मैंने अपना मोबाइल दिखाया, हाथों से प्लग का आकार बनाया। वह हँसी, समझ गई, और शेल्फ़ से सही एडेप्टर निकाल लाई। फिर उसने अचानक पूछा — “इंदे” मैं समझ गया — वह पूछ रही है, “इंडिया?”

मैं बोला, “Oui… इंडिया।” उसके चेहरे पर एक अजीब-सी सहजता आ गई। जैसे उसने कह दिया हो— "ठीक है, मैं समझ लूँगी तुम्हें।"

जिस धैर्य से उसने समझाया…

मुझे शहर में दूसरी जगह से भी कुछ सामान खरीदना था, पर मैं रास्ता समझ नहीं पा रहा था। उसने एक मैप उठाया और समझाना शुरू किया। नए शहर का नक्शा, नई भाषा… मेरे लिए सब धुंधला।

लेकिन वह? उसने 9–10 बार उसी मैप पर अलग-अलग तरीके से समझाया। हर बार वही patience, वही smile।

आख़िरकार मुझे समझ आया— “यहाँ से ट्राम पकड़ो, 7–8 स्टॉप बाद उतरना… वहाँ बड़ी इलेक्ट्रॉनिक मार्केट है।”

उसके चेहरे की खुशी देखते लायक थी — मानो उसने कोई बड़ी पहेली हल कर दी हो।

फ्रांस से पहली बार इंडिया फोन

कुछ दिन बाद मैं फिर उसी दुकान पर गया। इस बार मुझे भारत फोन करना था। मुझे न कार्ड चलाना आता था, न बूथ। वह फिर उसी उत्साह से इशारों में समझाने लगी।

2 यूरो का कार्ड लिया, उसने उँगलियों से नंबर बनाने का इशारा किया, फिर बूथ की दिशा दिखाई।

मैंने कोशिश की — नहीं हुआ। फिर वापस आया।

वह हँस पड़ी, फिर से समझाया। इस बार मैं फोन बूथ में गया और कार्ड का नंबर डायल किया।

लाइन लगी। और अचानक दूसरी तरफ — “हैलो, बेटा?”

मेरे माता-पिता की आवाज़ सुनते ही मेरी आँखें भर आईं।

फ्रांस की ठंडी हवा में वह आवाज़ किसी मंदिर की घंटी जैसी लगी।

“मुंबई… मंदिर…”

जब मैं वापस दुकान पर आया, उसने एक नया इशारा किया।

बार-बार अपने हाथ को सामने ले जाकर “मुम्बै… मुम्बै” जैसा कुछ कह रही थी।

मैं समझ किया —

तीन स्टॉप आगे एक भारतीय रेस्टोरेंट है — ‘Mumbai’।

फिर उसने गर्दन झुकाकर हाथ जोड़ने जैसा इशारा किया।

मैं समझ गया —

"मुंबई रेस्टोरेंट के आगे एक छोटा मंदिर भी है।"

मैं गया…

रेस्टोरेंट तो मिला,

पर मंदिर नहीं मिला।

बाद में एक भारतीय मित्र ने कहा—

“यहाँ मंदिर बड़े भवन नहीं होते। कभी-कभी किसी कमरे में एक मूर्ति होती है।

शायद वही था।”


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