सीमाओं का सबक
सीमाओं का सबक
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“सीमाओं का सबक” —
बात मेरे बचपन की है। मैं तब शायद मैट्रिक में पढ़ता था। जिस कस्बे में मैं रहता था, वह असल में एक छोटा-सा देहात ही था। वहां एक समिति होती थी, जहाँ से राशन का सामान—आटा, चावल, चीनी—मिलता था।
एक दिन मैं सोसाइटी से सामान लेने गया तो देखा कि सामने बड़ी भीड़ जमा है। पता चला कि समिति की सचिव (सेक्रेटरी) के लिए चुनाव होने वाला है। दो प्रतिद्वंद्वियों में ज़बरदस्त टक्कर थी और बाहर से एक पर्यवेक्षक (ऑब्ज़र्वर) आया हुआ था, जिसका काम चुनाव को संपन्न कराना था।
चुनाव की गर्माहट हवा में महसूस हो रही थी। यह मेरे जीवन में किसी चुनाव को इतने क़रीब से देखने का पहला मौका था।
माहौल धीरे-धीरे गरम होता जा रहा था। कुछ लोग पहचान पत्र मांग रहे थे। एक बूढ़े व्यक्ति से पूछा गया—
“आपकी पहचान क्या है?”
वह ग़ुस्से में तमतमाकर बोले—
“अस्सी साल से इस गांव में रह रहा हूँ! और मेरी पहचान पूछते हो? शर्म नहीं आती? देखो ये जूता… कस के मारूँगा!”
भीड़ दो धड़ों में बँट चुकी थी।
आख़िर मतदान का समय आया। वोटिंग ‘खड़ा होकर गिनती’ वाली प्रणाली से होनी थी। पर्यवेक्षक ने लोगों को बताया कि कैसे लाइन में खड़ा होना है, कैसे गिनती होगी।
शाम 5 बजे वोटिंग संपन्न हुई और परिणाम की घोषणा हुई।
परिणाम बताते हुए पर्यवेक्षक ने कहा—
“आपने मतदान में इतना जोश दिखाया है, अगर इतना उत्साह विकास में लगाएँ, तो यह इलाका बहुत आगे बढ़ जाए।”
भीड़ में से किसी ने तुरंत जवाब दिया—
“आपका काम चुनाव कराना है, विकास का काम हम खुद देख लेंगे।”
उस दिन मुझे एक गहरी सीख मिली—
आदमी को अपनी सीमाओं में रहना चाहिए।
कई झगड़े और कठिनाइयाँ इसलिए पैदा होती हैं, क्योंकि लोग अपनी सीमाएँ लाँघ जाते हैं।
यह बात मेरे मन में बस गई। आज भी जब कोई व्यक्ति बेवजह हस्तक्षेप करता है, मुझे वह दृश्य याद आ जाता है।
ऐसा ही एक उदाहरण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी देखा।
किसी विदेशी नेता ने कभी भारतीय किसानों पर टिप्पणी की थी, तो हमारे उच्च नेताओं ने कहा—
“यह हमारा आंतरिक मामला है, कृपया दख़ल न दें।”
यहां तक कि ट्रंप ने भी भारत-पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता की बात कई बार उठाई, लेकिन दोनों देशों ने उसे स्पष्ट रूप से नकार दिया।
बात छोटी-सी थी, पर उसका प्रभाव बहुत गहरा था—
हर जगह, हर स्तर पर—
व्यक्ति हो या देश—
सीमाओं का सम्मान होना चाहिए।
दूसरे की सीमा पार करना ही संघर्षों की जड़ है।
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