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Pradeep Kumar

Abstract

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Pradeep Kumar

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ट्रेन यात्रा संस्मरण : गाड़ी बुला रही है…

ट्रेन यात्रा संस्मरण : गाड़ी बुला रही है…

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गाड़ी बुला रही है, सीटी बजा रही है… चलने का नाम ज़िंदगी भी चलती ही जा रही है। ट्रेन यात्रा का भी अपना एक अलग आनंद है, और मुझे तो यह सफर बेहद प्रिय है।

मुंबई से अपने पैतृक घर मैं साल में एक-दो बार अवश्य जाता हूँ। बचपन और युवावस्था में हम सेकेंड क्लास में यात्रा करते थे। एक बैग में चादर-कंबल, एक हवा भरने वाला तकिया,यही हमारा सामान होता था। धीरे-धीरे रुतबा बढ़ा और हम 3-टियर एसी में जाने लगे। वहाँ का साफ-सुथरा कंबल, तकिया, और व्यवस्थित वातावरण—सब कुछ यात्रा को और भी सुखद कर देते थे। राजधानी एक्सप्रेस का सफर तो मानो उत्सव ही होता—खाना-पीना, सेवा, और आराम।

जब मैं बैचलर था, तो एक उपन्यास साथ ले लेता,रास्ता बीतता रहता और मैं पढ़ता रहता। बीच-बीच में चाय, समोसा या कुछ और उठा लेता। लेकिन परिवार के साथ सफर हो तो कहानी ही दूसरी होती है,पूरी यात्रा पिकनिक में बदल जाती है।

ट्रेन में अक्सर सहयात्रियों से दोस्ती हो जाती है। कुछ घंटे के लिए लगता है कि हम सब एक ही परिवार हैं—एक ही डिब्बे में जीवन का एक छोटा-सा संसार बस जाता है।

एक बार मैं पश्चिम एक्सप्रेस से दिल्ली जा रहा था। सामने बैठे सज्जन को देखकर मेरे मन में आया कि इन्हें कहीं देखा है। मैंने पूछ ही लिया— “आप कहीं टीवी पर आए हैं? संजय दत्त जी जेल में थे, उसमें एक जेलर आपकी ही तरह दिखता था…”

वे मुस्कराए, “शक्ल वाला नहीं, मैं वही असली जेलर हूँ।”

मैं चकित! फिर तो बातचीत का सिलसिला बढ़ता ही गया। किसान परिवार से थे, बोले, “भैंस ने बच्चा दिया है, पिताजी दूध लेकर मुंबई आए हैं।” यह सुनकर लगा, हमारी भारतीय परंपराएँ कितनी खूबसूरत हैं,नए बछड़े का दूध रिश्तेदारों और पड़ोसियों में बाँटना जैसे एक अनकही रीत है।

पास वाली बर्थ पर एक पंजाबी लेडी थीं,दो छोटी बच्चियों के साथ। पंजाबी लोग अपनेपन में भरपूर होते हैं। चाहे बातें करें या न करें, खाना आने पर जरूर कहेंगे, “लो जी, रोटी खा लो।” उन्होंने भी कहा। मुझे बहुत अच्छा लगा। बच्चियाँ चंचल थीं, किसी फिल्म में काम भी कर चुकी थीं,उनके साथ खेलकर मन खिल उठता था।

एक बुजुर्ग दंपत्ति भी मिले,हिमाचल से। पता चला दोनों शिक्षक रहे थे। उन्होंने किस तरह पढ़ाते-पढ़ाते अपनी पढ़ाई जारी रखी, कैसे यूनियन में काम किया,सब बताया। उस क्षण लगा जैसे सब हम एक ही गाँव से हो,एक ही इलाका, बस अलग-अलग फूलों की तरह खिले हुए।

रात में दादी जी कभी-कभी भजन गुनगुनाती रहीं। नींद कम आई, पर दिल भरा-भरा था।

सुबह मथुरा पहुँचे। वे पेड़े खरीदने उतरे, पर स्टॉप केवल पाँच मिनट का था और उन्होंने पंद्रह मिनट समझ लिया! ट्रेन चलने लगी तो मैंने उन्हें पकड़ा और डिब्बे में चढ़ाया। उनके चेहरे पर जो कृतज्ञता थी, वह आज भी याद है।

दिल्ली में जेलर साहब उतर गए,जैसे कोई अपना ही जा रहा हो। यह सफर का अद्भुत रिश्ता है,करीबी भी, और क्षणिक भी।

अंबाला पर पंजाबी लेडी अपने घर चली गईं—उनकी विदाई में भी अपनापन था। बुजुर्ग दंपत्ति को उनके बेटे ने कालका में रिसीव किया—l,उन्हें सुरक्षित पहुंचाकर मुझे जो संतोष मिला, वह शब्दों में नहीं।

कभी-कभी सोचता हूँ, ट्रेन का सफर केवल स्टेशन बदलना नहीं होता,एक जीवन यात्रा भी होती है। हम अजनबियों के बीच बैठते हैं, थोड़ी देर में दोस्त बन जाते हैं। किसी से सुख-दुख बाँट लेते हैं, किसी से ज्ञान मिल जाता है। और जैसे ही स्टेशन आता हैसब अपने-अपने बैग उठाते, और टाटा बाय बाय कहते हुए चले जाते हैं 


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