निशि डाक- अंतिम भाग
निशि डाक- अंतिम भाग
निष्ठा के चले जाने के करीब एक घंटे बाद निशीथ थकान से ज़रा स्वस्थ महसूस करने लगा था! उस समय पौ फटने ही वाली थी। पर निशीथ घर नहीं गया। बेंच पर से वह उठा और सीधे सड़क पर चलने लगा।कुछ देर चलने के बाद यंत्रचालित -सा वह राम ओझे के घर पर पहुँचकर उनका दरवाज़ा खटखटाने लगा!ओझा जी उसी का इंतज़ार कर रहे थे।निशीथ के आते ही उन्होंने तुरंत दरवाजा खोलकर उसे अपने कमरे में ले आए। निशीथ के बैठ जाने पर वे बोले--
" क्या लाए हो,, दिखाओ?"
निशीथ ने मुट्ठी खोल कर उन्हें वह बूटी दिखाई।ओझा, रामचंद्र ने उसकी हथेली पर से वह जड़ी- बूटी उठा ली! फिर उसे नाक के पास ले जाकर सूँघते हुए बोले--
" मार्ग में कोई असुविधा तो नहीं हुई?"
निशीथ इतना थक हुआ था कि उसकी जवाब देने की शक्ति भी चली गई थी। उसने किसी तरह से अपने सिर को दो बार हिला दिया।
" प्रेतिनी ने कुछ शक तो नहीं किया?"फिर निशीथ ने अपना सिर एक बार फिर से दाए से बाए हिला दिया!
" ठीक है, निशीथ!! बहुत बढ़िया!! अब तुम बिलकुल सुरक्षित हो।
सुनो, अब घर जाने की जरूरत नहीं है। तुम्हारा बिस्तर बगल वाले कमरे में लगवा देता हूँ। यहीं पर आराम कर लो, थोड़ी देर!!"
" जैसा आप कहे।" अपनी सारी शक्ति को समेट कर कुछ देर बाद निशीथ बोला!
" कुछ खाओगे?"
" नहीं, धन्यवाद!"
पंडित जी उठकर घर के अंदर गए और अपनी पंडिताइन से बोलकर निशीथ के लिए बिस्तर लगवा दिए।
" चलो, अब थोड़ा लेट लो, बेटा। काफी कुछ झेलकर आए हो! शरीर और मन तुम्हारा बहुत थक गया होगा!!
तब तक मैं तुम्हारे जीजा जी को संदेश भिजवा देता हूँ!"
जिस समय निशीथ जागा तो शाम होने वाली थी। वह इतना थका हुआ था कि पूरे बारह घंटे तक बेखबर सोता रह गया!उसके उठने पर पंडिताइन ने उसके जलपान का समुचित बंदोबस्त कर दिया!खाना खकर, निशीथ ने अपने हाथ धोए फिर वह पंडित जी के कमरे में गया तो देखा कि जीजा जी और ग्रैबरियल,, दोनों वहाँ पहले से बैठे हुए हैं!तीनों कुछ मशवीरा कर रहे थे!
" आओ निशीथ ,,,आओ, " कहकर जीजा जी उसका हाथ पकड़ कर ले आए और उसे वहीं रखी एक कुर्सी पर बिठा दिए!
" निशीथ तुम सच में खुश्किस्मत हो कि तुम्हें ऐसे पिता समान
जीजाजी मिले हैं। और ग्रैबरियल,,, जैसा दोस्त तो बहुत तपस्या करने पर ही मिलता है।" पंडित जी ने उसकी ओर देख कर कहा।
" निष्ठा बहुत चालाक प्रेतिनी है। उसके साथ मेरा एकबार पाला पहले भी पड़ा था, परंतु उसने अपनी शक्ति से और बुद्धि से मुझे नेस्तानाबुद कर दिया था! उस बार वह जीत गई थी। तभी मैं समझ गया था कि उसे हराने के लिए उसी का इस्तेमाल करना पड़ेगा। ईश्वर को बहुत शुक्रिया कि उन्होंने इस बार हमारी सुन ली! और तुम्हें बचाने में उन्होंने मेरा भरपूर साथ दिया!!" हाथ जोड़कर राम ओझा कुछ देर तक मौन रूप से प्रार्थना करने लगे। उन्हें ऐसा करते देखकर निशीथ और उसके जीजा ने भी ईश्वर को धन्यवाद दिया! ग्रैबरियल भी तब जीसस को याद करने लगा!
कुछ देर के बाद ओझा जी अपनी ध्यानमग्न मुद्रा से बाहर आए और निशीथ की ओर कुछ बढ़ाते हुए बोले--
" लो, बेटा!!मैंने तुम्हारे लिए यह ताबिज़ बना दी है। इसे चौबिसों घंटा हाथ में पहने रहना!! तुम्हारे द्वारा लाए हुए जड़ी- बुटियों से यह बना है!! इसे पहनने के बाद, या साथ रखने से भी कोई भूत-प्रेत तुम्हारे सामने कभी नहीं आ पाएगा।"
" जी पंडित जी, बहुत धन्यवाद आपका!" कहकर निशीथ ने हाथ बढ़ाकर वह ताबिज़ ले ली। उसने उसे अपने दाए हाथ की कलाई में कसकर बाँध ली। इस काम में ग्रैबरियल ने उसकी मदद की!
" निशीथ,मैं पहले ही कह चुका हूँ कि यह प्रेतिनी बहुत भयंकर चालाक है। इसलिए तुम ज़रा सम्हलकर रहना। वह तुमसे बहुत छल करेगी पर तुम उसकी बातों से पिघल मत जाना। जहाँ तुमने इतनी देर तक मेरा साथ दिया है, कुछ समय और दे देना।"
" जी पंडित जी। आप न होते तो मेरा क्या होता,,, " कह कर निशीथ ने पंडित जी के दोनों पैरों को कसकर पकड़ लिया।
" मैं आपका यह उपकार कभी नहीं भूलूँगा!"
" नहीं मेरा बच्चा, तुम भी बहुत दिलेर हो।
मैं तो सिर्फ उपाय सूझा सकता था। पर उसे अमल में तुम ही लाए। यह काम इतना आसान न था! हर कदम पर जोखिम भरा था। पर तुम घबराए नहीं! और उस जंगल से यह बुटी लेकर आए।
बस, अब एक माँ का लाडला सही सलामत अपनी माँ की गोद में लौट जाए, बस तब मेरा काम खतम!"सब लोग पंडित जी को उचित दक्षिणा और धन्यवाद देकर बाहर निकल आए।
उस रात को जीजाजी निशीथ के साथ ही उसके कमरे में रुके। तय यह हुआ था कि जितनी जल्दी टिकट मिलेगा वे निशीथ को वापस गाँव लेकर जाएँगे।
बहुत कर ली शहर में रह कर पढ़ाई! अब घर जाकर अगले वर्ष गाँव के नजदीक ही किसी काॅलेज में दाखिला ले लेगा निशीथ।उस रात को फिर से निष्ठा आई थी। वादे के मुताबिक वह निशीथ को बुलाने लगी। पर जब निशीथ ने अनसुना कर दिया तो उससे अनुरोध करने लगी, अपने प्यार का वास्ता देने लगी कि वह ताबिज़ हटा ले!!पहले खूब अनुनय किया, फिर निष्ठा वहीं दरवाजे पर सिर पटक- पटक कर रोने लगी। तरह- तरह के प्रलोभन उसने दिए पर जब उससे भी निशीथ का दिल न पसीजा तो वह उसे डराने लगी।
निष्ठा अब अपने असली रूप में आ गई! जो बहुत ही डरावना था और फिर निशीथ को भाँति- भाँति से डराने लगी।
अगली रात, फिर उसकी अगली रात को भी निष्ठा का वही नाटक चलता रहा!! वह दिल पसीजने वाली आवाज़ निकाल- निकाल कर निशीथ को पुकारने लगी,
" निशीथ, मेरे प्यारे ,एकबार दरवाज़ा खोल दो! तुम्हारे दोनों पैरों पड़ती हूँ!"एक दो बार निशीथ सच में द्रवित हो गया था। उसका दिल नहीं माना और वह निष्ठा के पास जाने लगा! उससे तब रहा न गया और वह सच मुच ताबिज़ हाथ से निकाल दी और दरवाजा खोलकर बाहर जाने को हुआ।
परंतु सही समय पर चित्तो बाबू ने कठोरता से निशीथ का रास्ता रोक लिया था!
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निशीथ रात के अंधेरे में अकेले रेलगाड़ी के डिब्बे में बैठकर सारी घटनाओं को एक- एक कर याद करने लगा था!उसने निष्ठा से सच्चा प्यार किया था। परंतु उसका यह प्रथम प्रेम यूँ विफल हो गया!! क्या वह उसे कभी जिन्दगी भर भूला पाएगा? या किसी और लड़की को कभी दिल दे पाएगा?रह रह कर उसके मन में विपरीत ख्याल भी आ रहे थे! उसे यह भी याद आ रही थी कि उसने निष्ठा के भोलेपन का फायदा उठाया था।
चलो, मान लेते हैं कि वह प्रेतिनी थी परंतु उसने भी तो इंसान होकर वही किया,,,, उसे धोखा दिया!!! क्या इस बात के लिए भी कभी वह अपने आपको माफ कर पाएगा?
ग्रैबरियल और उसकी माता जी आई थी स्टेशन पर निशीथ को छोड़ने।सच ही कहा था उस पंडित जी ने---" ग्रैबरियल जैसे दोस्त पाने के लिए बड़ी तपस्या करनी पड़ती है!"
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( अमृत बाजार पत्रिका के पूर्व संपादक स्वर्गीय तुषार कांति घोष द्वारा विरचित एक कहानी का भावानुवाद। उनकी कहानी का शीर्षक अभी मुझे याद नहीं है। वर्षों पहले पढ़ी थी उनकी एक किताब-- " आरो बिचित्रो काहिनि" जिसमें यह कहानी थी। कहानी कुछ इस प्रकार थी कि उसका कथानक आज भी मुझे याद रह गई। भौतिक कहानी लिखते समय वही कथानक फिर से मेरी मार्ग में आकर खड़ी हो गई, जिसको लिखे बिना मेरे कलम को चैन न मिला !)

