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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Romance

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Romance

नई फिरदौस ...

नई फिरदौस ...

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इन दिनों में इधर, हरिश्चंद्र सोचने लगे थे कि फिरदौस, उनसे हुए अलग कौम के विवाह को निभाने के लिए बड़े त्याग कर रही है। जबकि उधर, फिरदौस के प्रत्यक्ष में बदले लग रहे व्यवहार का कारण कुछ और ही था। 

फिरदौस ने इसका राज, पति हरिश्चंद्र पर खोलने में, कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई थी। वह सोचती थी कि हरिश्चंद्र जी के भी इस विवाह के पीछे, इसमें मिलने वाले सुख के अतिरिक्त, कुछ पावन लक्ष्य निश्चित ही होंगे। कौन सा वे, अपने इन विचारों को, फिरदौस से शेयर करते हैं।

विवाह को, अभी कुछ ही दिन तो हुए हैं। हरिश्चंद्र जी, फिरदौस को पूरी तरह अभी ही जान लें इसकी जल्दबाजी की जरूरत, अभी ही क्या है? 

फिरदौस सोचती कि आजीवन का साथ निकल जाता है। तब भी प्रायः पति-पत्नी के बीच कुछ राज, उनके कुछ विचार या परस्पर सुखमय साथ के लिए किये गए त्याग से, पति-पत्नी अनजान ही रह जाते हैं। 

एक दूसरे से छुपा लेना, कोई बुरी भावना से ही थोड़ी होता है। कभी कभी अच्छा किया जतला देना, उसकी अच्छाई कम कर देता है। यह सोचकर भी अपनों में, अपनी की जा रही अच्छाई छुपा ली जाती है। ऐसे छुपा जाने में आनंद अधिक आता है। 

यह भी तथ्य फिरदौस जानती थी कि पति और पत्नी कुछ समय के साथ में ही, दूसरे की बिन बताये की जा रही (बुराई)-अच्छाई, परस्पर अनुभव कर लेने की समझ प्राप्त कर लेते हैं।   

अपने, नए साथ, नए घर में फिरदौस का जीवन चल निकला था। तब एक दिन, कोर्ट में फिरदौस का कोई भी केस सुनवाई में नहीं लगा था। उस दिन उसने, कोर्ट जाने की जगह घर में आराम करना पसंद किया। दोपहर तक बिटिया स्कूल से वापिस आ चुकी थी। दोनों ने भोजन भी कर लिया था। बेटी, माँ (फिरदौस) के साथ ख़ुशी ख़ुशी खेल-थक कर सो गई थी।

तब बिटिया के बाजू में, बिस्तर पर लेटे-लेटे फिरदौस, पिछले कुछ दिनों के बीते घटनाक्रम को याद करते हुए उसमें डूब गई थी। कुछ ही माह के समय में, उसके जीवन में अत्यंत बड़े बड़े बदलाव आ गए थे। 

उसका शौहर, उसका ससुराल, उसका खान पान उसका पहनावा बदल गया था। और तो और उसे, अपनी धार्मिक आस्था भी बदलती प्रतीत होने लगी थी। वह सोचने लगी थी कि शायद ये बदलाव इतने आसान नहीं होते- 

अगर उसके पूर्व शौहर ने उसे, तीन तलाक कह कर, उस दिन, उस सुनसान जगह बाइक से उतार ना दिया होता। वह जगह, शौहर के जाने के बाद फिरदौस को अत्यंत भयावह लगी थी। डर कर वह, एक पेड़ के पीछे छुप कर बैठ गई थी। 

वह छुपी रहते हुए, सड़क पर इस आशा से दृष्टि डालती कि कोई महिला सड़क पर आते जाते दिखे तो उसके साथ वह वीरान जगह से सुरक्षित निकले। तब, ग्रामीण सड़क होने से, उस पर से यदा कदा कोई राहगीर या वाहन निकलता दिखाई पड़ रहा था। वे सभी ही पुरुष थे, दुर्योग से उस दिन उनके साथ कोई औरत नहीं दिखी थी। 

लगभग दो घंटे की यातना देने वाली प्रतीक्षा में, उसके नकारात्मक विचारों ने उसे अत्यंत भयभीत कर दिया था। उसके पूर्व कभी उसे लड़की/औरत होने का इतना डर नहीं लगा था। 

मनो-मस्तिष्क पर नकारात्मक विचार हावी होने से उस पर गहन निराशा छा गई थी। उसके शौहर के द्वारा तलाक दे दिए जाने से उसे, अपना भविष्य अंधकारमय दिख ही रहा था। सुनसान जगह पर बीत रहा हर पल उसे युगों सा लंबा लग रहा था। 

ऐसे में उसे एक डरावना विचार आ गया था कि कोई इंसान वेश में फरिश्ता उसे, यहाँ मिल ना सकेगा। फिर रात हो जायेगी, तब अंधकार में उसके खाँसने-छींकने की आवाज सुन कर कुछ मर्द उसे पेड़ के पीछे से, खोज लेंगे।

वे सब उस पर सामूहिक तथा कई कई बार दुराचार करेंगे। फिर सुबह का उजियारा होने के ठीक पहले, उसकी गर्दन मरोड़ कर उसे मार डालेंगे। 

इस विचार से वह सिहर गई थी उसका गला सूख गया था मगर तर कर लेने को उसके पास, पानी भी नहीं था। 

तब उसे लगा कि उसका भविष्य अंधकारमय है यह तो कम मुश्किल की बात है। अधिक दुःखदायक तो उसका कोई भविष्य ही नहीं बच पाना दिख रहा है। 

निराशा के इस हद तक बढ़ जाने ने तब उसमें, आश्चर्यजनक साहस का संचार कर दिया था। उसने सोचा अभी छुपे रहकर, रात में इसी पेड़ के पीछे मारे जाने से बेहतर, यहाँ से पैदल ही चल देना है। हो सकता है, वह सुरक्षित निकल जाए या कोई खुदा का बंदा या फरिश्ता उसका मददगार बन कर आ जाये। 

तब फिरदौस ने अपना बुर्का ठीक किया और सड़क पर आ गई थी। निराश एवं प्यासी होने से उससे चला नहीं जा रहा था। संध्या का धुंधलका छाने लगा था ऐसे में तब उसे, अपने पीछे से एक कार का क्रमशः पास आता शोर सुनाई दिया था। 

फिरदौस ने, अपनी सारी हिम्मत बटोर कर उसे रोकने के लिए हाथ दिया था, जिससे कार रुकी थी। उसे लिफ्ट मिल गई थी। उसे, कुछ मिनट लगे थे तब उसने, कार वाले प्रौढ़ व्यक्ति का, सज्जन होना जान लिया था। 

उस दिन कार में बैठे बैठे, उसने अनुभव किया कि पूर्व वाली फिरदौस, उस पेड़ के पीछे मर चुकी है। यह फिरदौस अब नई जन्मी फिरदौस है। कार में ही उसने, तय कर लिया था कि यह “नई फिरदौस”, दुनिया को अब नई दृष्टि से देखेगी। 

पिछली सभी धारणाएं जो उसके मन में घर किये बैठी हैं। उन्हें वह, मन से निकाल फेंकेगी। अपने दिलो दिमाग को खुला रखेगी एवं अपने में, उन परिवर्तनों का स्वागत करेगी जो उसे तर्कसंगत प्रतीत होंगे। ऐसे इस नई फिरदौस की नई सोच की उम्र, अब छह महीने की हुई थी। 

इसमें ही उसने शक्की एवं दक़ियानसी पूर्व शौहर को, उसके कानून विरुद्ध कार्य (तीन तलाक) का दंड दिलवाया था। फिर पूर्व शौहर के रजामंदी की पेशकश को ठुकरा कर, खुद कानून मान्य विधि से डिवोर्स लिया था। 

जज हरिश्चंद्र के विवाह प्रस्ताव को, कार वाले व्यक्ति की भलमनसाहत का स्मरण करते हुए स्वीकार किया था। हरिश्चंद्र जी ने उसे पहली ही रात बुर्का उपहार किया था। पेड़ के पीछे उस दिन पुरानी फिरदौस, बुर्का पहन कर ही बैठी थी। बुर्के के होने से तब उसका भय कम नहीं हो सका था। 

वास्तव में, कोई युवती बुर्के के होने या ना होने से निर्भया नहीं हो जाती है। बुर्के में होना तो उस दिन उसके अन्य कौम की होने की साफ पहचान दे रहा था। जिससे कार वाला व्यक्ति, उस पर दुराचार को अधिक उत्सुक हो सकता था। 

यह दुःखद तथ्य तो स्वयं अधिवक्ता होने से फिरदौस भली तरह जानती थी कि कौमी वैमनस्य की बलि, कोई अन्य कौम की औरत ही ज्यादा चढ़ती है। 

अतः नई फिरदौस ने, इस तर्क पर बुर्का त्याग दिया कि सभी नारी, बुर्के में या बुर्के बिना, समान रूप सुरक्षित या असुरक्षित रहती हैं। तब बुर्के की बंदिश को, अपने नए घर में जहाँ इसकी बाध्यता नहीं है, आखिर क्यों ढोना? 

आरंभ में, अपने नए इस घर में फिरदौस ने मांसाहार की इच्छा भी की थी। लेकिन कुक के अभिमान पूर्वक यह कहने से कि -

“नहीं, नहीं मैडम जी, हम मांसाहार ना तो खाते हैं ना ही बनाते हैं, हम ब्राह्मण हैं।" 

नई फिरदौस ने, शाकाहार में अभिमान होने की बात क्या है, अनुभव करने का फैसला किया था। फिर हरिश्चंद्र जी के चाहे जाने पर भी घर में, मांसाहार पकाने को दृढ़ता से मना कर दिया था। 

इतना सब सोच कर फिरदौस स्वयं ही हँस पड़ी थी। उसने, हरिश्चंद्र जी पर दया अनुभव कि वे, जिसे फिरदौस के त्याग समझ रहे हैं। वह वास्तव में नई फिरदौस की तार्किक अच्छी बातों को स्वीकार करने का संकल्प है। फिर फिरदौस की नींद लग गई थी। 

अगले दिन कुक ने छुट्टी ली थी। संयोग से वह दिन रविवार था। हरिश्चंद्र जी ने फिरदौस से कहा - 

चाय नाश्ता आप बनाइये, लंच, आज मैं बनाऊँगा। 

फिरदौस ने हँसकर कहा - 

जी, आप के द्वारा बनाया, खाना कुछ गिने चुने लोगों के भाग्य में ही होगा। मैं, भाग्यवान हूँ जिसे वह खाने को मिलेगा। 

दोपहर, डाइनिंग टेबल पर हरिश्चंद्र जी ने अपने हाथों से टेबल पर अपना बनाया खाना लगाया था। फिर, बेटी, फिरदौस सहित स्वयं उन्होंने, साथ ही भोजन आरंभ किया था। 

हरिश्चंद्र ने पूरी-छोले एवं आटे का हलुआ बनाया था। साथ ही फ्रूट एवं वेजिटेबल सलाद, सुंदर सजावट के साथ टेबल पर रखी थी। फिरदौस ने जब यह सब खाया तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उसने चटकारे ले लेकर खाते हुए कहा - 

मैं, कुछ दिनों पहले तक यह सोच भी नहीं सकती थी कि शुद्ध शाकाहारी भोजन इतना स्वादिष्ट हो सकता है। और बड़ी बात यह भी है कि इसमें प्याज-लहसुन तक नहीं है। आप विश्वास करो, आज के पहले मुझे खाना इतना रुचिकर कभी नहीं लगा, जितना रुचिकर आज लग रहा है। 

हरिश्चंद्र ने परिहास करते हुए कहा - 

कोई और खाना, आपको इतना अच्छा लग ही नहीं सकता था, कारण किसी अन्य के बनाये खाने में मेरा, आपके लिए वाला प्यार, मिलाया ही नहीं जा सकता था। 

फिरदौस खिलखिला कर हँस पड़ी थी साथ ही बेटी भी हँसने लगी थी। फिर फिरदौस ने ओवर ईटिंग की और कहा - 

बस, अब आगे से कभी आप, भोजन नहीं बनाया कीजियेगा अन्यथा मैं, मोटी हो जाऊंगी। 

हरिश्चंद्र हाजिर जवाब किस्म के व्यक्ति थे। उन्होंने कहा - तब तो मुझे, बार बार भोजन बनाना होगा। 

फिरदौस ने कारण जानने की उत्सुकता से पूछा - जी, वह क्यों?

हरिश्चंद्र जी ने फिरदौस की नकल करते हुए कहा - जी, वह यों कि मुझे, अपनी पत्नी का मोटी होना बहुत पसंद है। 

ऐसे, किसी दिन जीवन की आशा खो बैठी फिरदौस के दिन अब इतनी हँसी ख़ुशी में बीतने लगे थे, जितनी ख़ुशी से बिरले किसी औरत के बीतते हैं … 



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