Kumar Vikrant

Horror

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Kumar Vikrant

Horror

मुक्ति मार्ग

मुक्ति मार्ग

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मौत के सामने 

देवदुर्ग से चंद्रपुर जाने वाली चार्टेड बस छात्रों से भरी हुई थी। लेकिन आज सबके बैठने के लिए सीटें थी। हमेशा की तरह उत्सुक छात्र मुझे घेरे हुए थे और अपनी तैयारी के विषय में मुझे बता रहे थे या मुझसे सलाह मांग रहे थे।

अचानक रिया मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी। वो दुबली पतली, गेंहुए रंग की लड़की एक अजीब सा आकर्षण लिए हुए थी, संतरी रंग की लिपस्टिक उसके पतले होठों व चेहरे पर जंच रही थी।

"सर मुक्ति का मार्ग क्या है?" रिया ने अपनी थोड़ी भारी आवाज में पूछा।

"एक छात्र के लिए पढ़ाई करके एक अच्छा जॉब पाना ही उसकी मुक्ति का मार्ग है।" मैंने अपना दर्शन भरा रटा- रटाया वाक्य उसके सामने बोल दिया।

उसकी आँखों में असंतुष्टि के भाव थे वो थोड़ा कर्कश आवाज में बोली, "राहुल सर, मुक्ति का मार्ग क्या है?"

पूरी बस में सन्नाटा था और रिया लाल लाल आंखे लिए मेरे सामने खड़ी थी, मैं असमंजस में था।

"तुम किस मुक्ति की बात कर रही हो?" मैंने थोड़े चिड़चिड़े स्वर में पूछा।

रिया की आंखे अब लाल अंगारों के सामान हो चुकी थी और मुझ पर गड़ी हुई लग रही थी।

"राहुल मेरी मुक्ति का मार्ग क्या है?" रिया दहाड़ कर बोली। इस बार उसकी आवाज बिलकुल मर्दाना लगी।

उसकी इस दहाड़ के बावजूद सारे छात्र अपने में मस्त लगे जैसे रिया और मुझसे उनका कोई सरोकार ही न था।

रिया थोड़ा झुकी और उसकी गर्म सांस मेरे चेहरे पर लगने लगी।

"जानता है मेरी मुक्ति का मार्ग क्या है?" रिया की आवाज पहले से ज्यादा कर्कश और मर्दाना थी और उसका चेहरा कुरूप हो गया था।

मेरे मुंह से आवाज न निकली।

"आ जा तुझे दिखाती हूं कि मेरी मुक्ति का मार्ग क्या है। " कहते हुए रिया मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खींचते हुए बस के दरवाजे तक ले गयी।

"ये है मेरी मुक्ति का मार्ग। " कहते हुए उसने मुझे कस कर पकड़ लिया और तेजी से चलती बस से छलांग लगा दी।

आने वाली भयानक मौत के डर से मैं जोर से चीखा।

"क्या हुआ क्यों चिल्ला रहे हो?" मेरी पत्नी की घबराई आवाज मेरे कानो में गूंजी।

मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। मेरा पूरा शरीर ठंडे पसीने में नहाया हुआ था और बुरी तरह कांप रहा था।

"क्या हुआ? कोई बुरा सपना देखा?" मेरी पत्नी अदिति ने मेरा माथा छूते हुए पूछा।

"हाँ बुरा सपना देखा.....पानी पियोगे?"

"हाँ। "

चार साल पहले 

छोटा सा कस्बा, कस्बे में मौत 

मैं राहुल, उम्र ३३ साल, कद पांच फिट दस इंच, राजकीय डिग्री कॉलेज, विल सिटी के इंग्लिश विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर। चार साल पहले मेरा स्थानांतरण राजकीय डिग्री कॉलेज, चंद्रपुर में हो गया था। यह कस्बा पहली ही निगाह में मुझे जंचा नहीं इसलिए मैंने वापस विल सिटी में ट्रांसफर के प्रयास शुरू कर दिए। तमाम प्रयासों के बावजूद मेरा ट्रांसफर न हो सका और एक साल तक मुझे चंद्रपुर में ही नौकरी करनी पड़ी। जगह मुझे जंची नहीं थी इसलिए पत्नी और बेटी को यहाँ लाने का विचार त्याग दिया।

बड़े शहर देवदुर्ग की सीमा से लगा ये  छोटा सा क़स्बा चंद्रपुर आज एक एजुकेशन हब बन चुका है। वहां पर अनगिनत कोचिंग संस्थान है जहाँ विभिन्न एक दिवसीय परीक्षाओ की तैयारी कराई जाती है। बमुश्किल २ कि. मी के दायरे में फैले इस कसबे में दड़बों जैसे कमरों में हजारों छात्र रह रहे है, जहाँ वो अपने लिए खाना बनाते है और पढ़ते भी है।

कस्बे में बिजली ग्रामीण रोस्टर के अनुसार ही आती है, आलम ये है की पानी की सप्लाई और स्ट्रीट लाइट के लिए म्यूनिसपिल्टी का जनरेटर सुबह शाम चलाया जाता है। लेकिन एक सरकारी नौकरी की तलाश बहुत से छात्रों को, जो आसपास के गांवो और शहरों में रहते है, चंद्रपुर में खींच लाती है।

कस्बे की संकरी गलियों में बहुत से छात्र कोचिंग संस्थानों में आते जाते दिखाई दे जाते है। ज़्यादातर के चेहरे पर एक अजीब सी मायूसी और बेचैनी दिखाई दे जाती है, चयन का प्रतिशत बहुत कम होने के कारण कुछ बिरले छात्र ही नौकरी हासिल कर पाते है बाकि अपने माँ बाप की गाढ़ी कमाई लुटाकर वापस अपने गांवो कस्बो में चले जाते है।

कस्बे के साथ लगे शहरों और कस्बो से भी छात्रों की एक बड़ी भीड़ बसों में भरकर यहाँ आती है और शाम को वापिस चली जाती है। इस भीड़ के ज्यादातर छात्र प्राइवेट बसों में यहाँ आते है, जिसकी दो वजह है एक तो रोडवेज बसों की क़म उपलब्धता और दूसरे प्राइवेट बस वाले उन्हें आधे भाड़े पर ही चंद्रपुर ले आते है।

स्थानीय लड़के जिन्हें इन कोचिंग संस्थानों से कोई मतलब नहीं है, छोटे- मोटे कारोबारों में लगे है और शाम के समय ब्रांडेड कपड़ो व जूतों की घटिया नक़ल पहनकर कसबे की गलियों में भटकते मिल जायेंगे। नाइकी, एडिडास के जूतों की और ली, लिवाइस जीन्स की नक़ल यहाँ खूब बेचीं व पहनी जाती है।

कस्बे की अर्थव्यवस्था, कृषि उत्पाद मंडी, किराना व्यापारियों और फल व्यापारियों से चलती है।  कुछ बड़े ब्रांड के शोरूम भी खुले थे परन्तु वो मंदी की भेट चढ़कर बंद हो गए।  एक सिंगल स्क्रीन का सिनेमाघर भी है जिसमे पुरानी हिंदी फिल्मे और साउथ की डब की गयी फिल्मे लगाई जाती है।

हिन्दू मुस्लिम की संयुक्त आबादी से आबाद इस कस्बे के मुस्लिम युवा प्राय गल्फ देशों में जाकर नौकरी करने का प्रयास करते है, इस कारण यहाँ छिटपुट ट्रेवल एजेंट भी मिल जाते है। कई बार ये युवा इन एजेंट्स के हाथ लूटकर अपना पैसा भी गँवा देते है।

प्राय शांत से रहने वाले कसबे में कुछ हलचल भी हो जाती। देश के दूसरे कस्बो की तरह यंहा भी ऑनर किलिंग होती रहती है, जिससे कस्बे की फिजा कुछ दिन खराब रहती है उसके बाद सब कुछ सामान्य हो जाता है।

चंद्रपुर में मेरा दो महीने का प्रवास अत्यंत उबाऊ और खिन्न कर देने वाला था। मेरे सहकर्मियों की सलाह पर मैंने चंद्रपुर से लगे शहर देवदुर्ग में रहने का निर्णय लिया, जो ठीक भी रहा, कम से कम बिजली और पानी तो ठीक से उपलब्ध था वहा।

देवदुर्ग से चंद्रपुर आने का सबसे बेहतर साधन चार्टेड बसे थी जो सुबह आठ बजे से ग्यारह बजे तक और शाम को चार बजे से आठ बजे तक हर पंद्रह मिनट के अंतराल पर देवदुर्ग से चंद्रपुर  और चंद्रपुर से देवदुर्ग आती जाती रहती थी। इन बसों में ज्यादातर देवदुर्ग और चंद्रपुर में नौकरी करने वाले डेली पैसेंजर ही चलते थे। इन बसों की मंथली मेंबरशिप काफी सस्ती मिल जाती थी इसलिए देवदुर्ग से चंद्र्पुर के कोचिंगो में आने वाले बहुत सारे छात्र भी इन्ही बसों से आते थे।

वो लड़की खोई- खोई सी...

चंद्रपुर के साथ रिया की याद आती है, वो खोई- खोई सी लड़की एक दिन अचानक मुझे यो ही मिल गयी थी।

वो एक दिवसीय प्रतियोगी परीक्षाओ की तैयारी के सिलसिले में देवदुर्ग से चंद्रपुर जाती थी। एक सर्दी की सुबह भरी बस में मैंने उसे सीट ऑफर की और भूल गया। कुछ दिन बाद वो मुझे फिर मिली और उसने उस दिन सीट देने के लिए धन्यवाद करते हुए अपना परिचय देते हुए मेरे बारे में पूछा।

मेरे बारे में जान कर वो बोली, "आपसे मिलकर तो बड़ा फायदा हो गया, अब तो कम्पटेटिव एग्जाम पास करने के सारे ट्रिक आप से सीख लेंगे। "

उसके बाद बातों का एक सिलसिला चल पड़ा और बस में सफर करने वाले दूसरे लड़के लड़कियाँ भी अपने एग्जाम के बारे मुझसे बात करने लगे। मेरे लिए ये सब बिलकुल सामान्य था क्योंकि अपनी इस नौकरी से पहले मैं क्लास १२ तक के बच्चों को ट्यूशन देता था।

कुछ दिन बाद मैंने रिया की आँखों में कुछ ऐसा देखा जो मेरे लिए बिलकुल नया नहीं था, परन्तु मैं एक शादीशुदा व्यक्ति हूँ और अपनी पत्नी का मैं बहुत सम्मान करता हूँ इसलिए मैं किसी ऐसे रिश्ते में नहीं पड़ना चाहता था जिसका बुरा अंजाम पहले से ही तय था।

एक फरवरी की सुबह जिस बस में मैं चंद्रपुर जा रहा था, उसमे मेरे समेत गिनती के तीन यात्री थे।  चौथा यात्री रिया थी, वो अपने बस स्टॉप से बस में चढ़ी और सीधे मेरी सीट पर आकर बैठ गयी और मुस्कराते हुए पूछा, "इस वैलेंटाइन पर क्या कर रहे हो आप?"

"कुछ नहीं। "

"कुछ तो करना चाहिए ना, आप चाहे तो मेरे लिए गिफ्ट खरीद सकते है। " उसने हँस कर कहा।

"आर यू सीरियस?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए पूछा।

"अरे नहीं, मैं तो मजाक कर रही थी। आपको अपनी वाइफ के लिए गिफ्ट खरीदना चाहिए। "

"स्योर, थैंक्स रिया यू आर ऐ नाइस गर्ल। " मैंने ठंडी सांस लेते हुए कहा।

मैंने बात को खत्म समझा और रोजमर्रा की जिंदगी में व्यस्त हो गया।

१४ फरवरी मेरे लिए कुछ खास मायने नहीं रखता था, सुबह मैंने पत्नी को फ़ोन पर एक औपचारिक हैप्पी वैलेंटाइन डे कहा और मेरा वैलेंटाइन डे खत्म। लेकिन ये किसी और के लिए बस एक शुरुआत थी।

दोपहर बाद मेरे मोबाइल में मैसेज आया।

हैप्पी वैलेंटाइन डे राहुल! वेयर इज माय गिफ्ट?

मैसेज रिया का था।  

मैसेज को अनदेखा कर देने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था।

अगले दिन से मैंने अपनी बस का टाइम बदल लिया।

चार दिन बाद रिया का फ़ोन आया, "आप तो नाराज हो गए सर, आपके सारे स्टूडेंट्स आपको मिस कर रहे है, या तो कल हमसे मिल लीजिये नहीं तो हम आपके ऑफिस पर धावा बोल देंगे। "

बहुत कठिन डगर प्रेम की

समस्याओं से भागने में इस दुनिया में मेरा कोई मेरा मुक़ाबला नहीं कर सकता। मैंने रिया का नंबर ब्लैकलिस्ट में डाला और बस का टाइम भी बदला।

एक महीने बाद अचानक एक डिपार्टमेंटल स्टोर में रिया मिल गयी, उसके बाल उलझे-उलझे से थे, चेहरा बुझा हुआ था। वो मुझे देख कर बोली, "कैसे है सर?"

मैं उसके सामने बहुत असहज महसूस कर रहा था, मैंने हकलाते हुए कहा, "सॉरी रिया..... फॉर एवरीथिंग। "

"अरे छोड़िये सर, क्या बात ले बैठे, आपका भूत मेरे सिर से उतर चूका है। अब मैं अपनी जिंदगी में कुछ बनाना चाहती हूँ, आपके बताये फॉर्मूलों से ही पढ़ रही हूँ। "

मैं ख़ामोशी से उसे देखता रहा, उसकी बुझी-बुझी सी आँखे नम थी।

"बेस्ट ऑफ़ लक!" कहकर मैं जाने के लिए मुड़ा।

"सर क्या यही मेरी मुक्ति का मार्ग है?" मेरे पीछे से आवाज आई।

मैंने मुड़कर देखा, रिया ने अपना सवाल दोबारा पूछा।

"अपने आप से पूछ कर देखो, तुम्हे जवाब मिल जायेगा। " मैं उसकी तरफ देखते हुए बोला।

"बहुत पूछा है, पिछले एक महीने से हर पल पूछा है, जवाब नहीं मिलता है सर। "

"प्लीज अपनी स्टडी पर ध्यान दो सब सही हो जायेगा। "

"सच्ची सर?"

मैं खामोश रहा और स्टोर से बाहर चला आया।

दीवाने

उसके बाद मैंने रिया का नंबर ब्लैक लिस्ट से निकाल दिया, लेकिन रिया का फ़ोन कभी नहीं आया और न ही वो कभी बस में मिली। एक धुंध भरी सुबह रिया एक लड़के के साथ अपने स्टैंड से बस में चढ़ी, जो मेरे लिए अपरिचित था। रिया ने मुझे मुस्करा कर अभिवादन किया और दोनों पीछे वाली सीट पर जा बैठे।

उसके बाद वो दोनों मुझे अक्सर मिल जाते और रिया हमेशा खुश नजर आती थी। एक या दो बार वो मुझे अकेले भी मिली, लेकिन खाली होने के बावजूद वो मेरी सीट पर नहीं बैठी। ज्यादातर वो फ़ोन पर बातें कर रही होती थी या फ़ोन की स्क्रीन पर कोई मैसेज देख कर मुस्करा रही होती थी।

मै जानता था दीवानों को दीवाने मिल ही जाते है। रिया को भी कोई दीवाना मिल गया था। वो खुश थी और मै उसके लिए खुश था।

कुछ दिन बाद मेरा ट्रांसफर विल सिटी में हो गया और मै विल सिटी में अपने परिवार के पास वापिस आ गया।

चार साल बाद 

मुक्ति मार्ग 

सर्दी के महीनो में मुझे सफर करना पसंद है, इसलिए विनोद, जो जयगढ़  में रहने वाला मित्र है, की बहिन की शादी में जाना अच्छा लगा। मै देवदुर्ग का रास्ता छोड़कर रामपुर से होते हुए जयगढ़ आया था। अदिति,  बिटिया की पढ़ाई में व्यस्त थी इसलिए मैं अकेले ही इस शादी में शामिल हुआ।

शादी का प्रोग्राम सारी रात का था लेकिन मैं दस बजे विनोद से विदा ले कर वापिस चल पड़ा।  रास्ता धुंध भरा था। नारा तक आते आते रात के बारह बज गए। सड़के धुंध से भरी थी, मैं बाजपुर जाने के लिए मुड़ा ही था कि साड़ी पहने एक महिला ने फ्ट देने का इशारा करते हुए सड़क के बीचो बीच आ गयी। मुझे मजबूरी में कार रोकनी पड़ी। महिला ने पास आकर कार की स्क्रीन को खटखटया।  

"बाजपुर तक जाना है मुझे, ले चलेंगे?" बंद कार में उसकी आवाज आयी।

जाने क्या सोचकर मैंने कार का दरवाजा खोल दिया, वो मेरे पास वाली सीट पर आ बैठी। तब तक मैं कार के अंदर की लाइट जला चूका था। जो चेहरा मेरे सामने था वो रिया का था।

"रिया तुम?---- इतनी रात में यहाँ क्या कर रही हो? मैंने उसकी और देखते हुए पूछा।

"मुकुल से मिलने आयी थी, वो यही छुपा हुआ है। "

"मुकुल कौन?" मैंने कार को आगे बढ़ाते हुए पूछा।

"मुकुल मुझसे शादी करेगा, मैं उसे ढूंढने आयी थी। " उसने मेरी बात को अनसुनी करते हुए कहा।

"कोई एग्जाम पास किया?" मैंने बात बढ़ाते हुए पूछा।

"नहीं, मुझे मुक्ति न मिल सकी। " वो सर्द आवाज में बोली।

ज्यादा कुछ बात करने के लिए नहीं था, इसलिए मै खामोशी से कार चलने लगा।

करीब दो बजे बाजपुर आ गया। दोराहे पर जाकर उसने कार रोकने का इशारा किया और ख़ामोशी से उतरकर कोहरे में खो गयी।

मैंने सिर को झटका दिया और कार आगे बढ़ा दी।

थोड़ी दूर जाकर सड़क के किनारे चाय की एक दुकान खुली मिली। आँखे नींद से भारी हो रही थी इसलिए चाय पीने के लिए मैंने कार उस दुकान के बाहर रोक दी।

चाय वाला गर्म चाय का कप मुझे देते हुए बोला, "बाबू जी एक बात पूछूं , बुरा तो नहीं मानोगे?"

"नहीं, बुरा नहीं मानूंगा, पूछो। "

"बाबू जी रास्ते में आपको कोई औरत भी मिली थी क्या?"

"हाँ, क्यों?"

"उसने आपको ऐसे ही जाने दिया?"

"क्यों? क्या करना था उसने?"

"कुछ नहीं बाबूजी। "

मै चाय पीकर उठ बैठा और कार की स्क्रीन साफ़ करने के लिए चाय वाले से कुछ अख़बार मांगे। अख़बार लेकर मैंने कार की स्क्रीन से कोहरा साफ़ किया और बचे हुए अख़बार को कार के डैशबोर्ड पर रख कर कार आगे बढ़ा दी।

चार या पांच किमी चलने के बाद मौसम बदल गया और तेज हवाएं चलने लगी। काली नदी के पुल तक पंहुचते पंहुचते तेज बारिस होने लगी। नदी के पुल पर पानी भरा हुआ था जो बहकर नदी में गिर रहा था। मैंने सावधानी से कार आगे बढ़ाई, पानी में जाते ही कार का इंजन बंद हो गया और मेरे बहुत कोशिश करने के बाद भी स्टार्ट न हुआ। अचानक पानी का एक बड़ा रेला आया और मेरी कार बहते हुए नदी की और चल पड़ी, मैंने कार का दरवाजा खोल कर बाहर निकलना चाहा, परन्तु दरवाजा जाम था और कार तेजी से नदी की और बह रही थी।

मैं बेबस कार में फंसा अपनी खुद की मौत को आते देख रहा था। तभी हवाओ में एक अजीब सी हँसी गूंजी और पुल की रेलिंग के पास रिया नजर आयी और मेरी कार तेजी से जाकर नदी के पुल की रेलिंग से टकराई, मेरा सिर तेजी से स्टेरिंग से टकराया और मैं अपने होश खो बैठा।

उदास सी सुबह, उदास सा दिन

सूरज की तेज रोशनी से मेरी आँख खुली। मैं तेजी से कार के बाहर आया और देखा की मेरी कार काली नदी के पुल पर रेलिंग को तोड़कर खड़ी हुई थी परन्तु पुल से निकला एक सरिया मेरी कार के टायर में घुसा हुआ था और कार को नदी में गिरने से रोके हुए था।

रात के तूफ़ान की वजह से कोहरा छंट गया था और गुनगुनी धुप निकली हुई थी। पुल से गुजरने वाले लोगों की मदद से मैंने कार को रेलिंग से हटाया और कार का टायर बदला।  

विंड स्क्रीन को साफ़ करने के लिए मैंने अख़बार कार से निकाला लेकिन अख़बार में छपी एक तस्वीर को देखकर मैं रुक गया। अख़बार में एक मृतक लड़की का फोटो छपा था। इनसेट में जो तस्वीर थी वो रिया की थी। मौत से विकृत उसके चेहरे पर एक दर्द था।

नीचे की खबर पढ़ने पर जानकारी मिली की लड़की को कहीं और से ला कर, मार कर काली नदी में फेंक दिया गया था। पुलिस के अनुसार यह हत्या प्रेम सम्बन्धों का परिणाम थी और अज्ञात व्यक्तियों के नाम रिपोर्ट दर्ज कर जाँच की जा रही थी। अख़बार तीन साल पुराना था।

मैं बिना विंड स्क्रीन साफ़ करे कार में आ बैठा और आगे का सफर शुरू किया। रिया मर चुकी थी, क्यों मारी गयी थी पता नहीं। उसका दिल मेरी वजह से टूटा था और शायद किसी गलत लड़के से दिल लगा बैठी थी और इस अंजाम को प्राप्त हुई थी।

उसकी मौत का बोझ दिल में लिए मैं आगे बढ़ गया। रात जो कुछ हुआ मेरी समझ से बाहर सा था। भूत प्रेत को मैं नहीं मानता हूं, परन्तु रात में कुछ तो हुआ था, जिसको सोच कर मेरी रूह काँप उठी।



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