Jisha Rajesh

Horror Crime Thriller

3  

Jisha Rajesh

Horror Crime Thriller

मोनालिका

मोनालिका

19 mins
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“आप आ गये मोहित मोशाय,” एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने दरवाज़ा खोलते हुए पूछा, “सफ़र कैसा रहा आपका ?”

“जी, सफ़र तो ठीक–ठाक था,” मोहित ने मुस्कुराते हुए कहा। “आप बाबू दा हैं, न ? दीपांकर अक्सर आपका ज़िक्र किया करता था।”

“जब से दीपांकर बाबू अपने परिवार के साथ बिदेस जाकर बस गये हैं, ये बँगला बड़ा सूना-सूना सा लगता है,” बाबू दा ने आह भरी। “पिछले दो सालों से मैं ही इस बँगले का रखवाली कर रहा हूँ। यहाँ अकेला पड़ा रहता हूँ और बँगले की देख-रेख करता हूँ। फिर आपकी तरह कोई मेहमान आ जाए तो कुछ दिनों के लिए मेरा जी बहल जाता है। उनके चले जाने के बाद अपनी उसी पुरानी, तन्हा ज़िंदगी में लौट जाता हूँ।”

“काफी थक गया हूँ,” बँगले के अंदर नज़र घुमाते हुए मोहित ने कहा, “दिल्ली से कोलकत्ता तक की फ्लाइट तो बड़ी आरामदायक थी। मगर, हवाई-अड्डे से इस छोटे से कस्बे तक की कार-यात्रा ने थका दिया। अब, ज़रा आराम करना चाहता हूँ।”

“जी ज़रूर। आईए, आपका कमरा इस तरफ़ है,” बाबू दा आगे बढ़े और मोहित उनके पीछे चल पड़ा। “आपके कमरे में गर्म पानी रखवा दिया है। आप नहा लीजिए, तब तक मैं खाना लगा देता हूँ।”

“मैं खाना खाकर आया हूँ,” मोहित ने कमरे की एक-एक चीज़ को बड़े गौर से देखते हुए कहा।

“अच्छा तो फिर आप आराम कर लीजिए। अगर, किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बता दीजिएगा,” बाबू दा ने हाथ जोड़े और वहाँ से चल दिये।


  उनके जाने के बाद, मोहित ने दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया। अपना सूटकेस खोलकर उसमें से कुछ कपड़े और तौलिया निकाला और कमरे से लगे वाशरूम में नहाने चला गया। गर्म पानी में नहाने से मोहित की थकान काफी कुछ मिट गयी। उसने कमरे की खिड़की खोली तो देखा कि बाहर घना अँधेरा था। आस-पड़ोस के घरों से आता मद्धम-सा प्रकाश, अँधेरे की इस घनी चादर को यहाँ- वहाँ से चीरने की कोशिश करता हुआ सा नज़र आता था। मोहित ने अपने कुर्ते की जेब से सिगरेट निकाली और माचिस जलाकर उसे सुलगाया। कश लेता हुआ वो खिड़की से बाहर का नज़ारा देखने लगा।

  दीपांकर बनर्जी से मोहित की दोस्ती कॉलेज के दिनों में हुई थी। अभी चंद रोज़ पहले ही मोहित की पोस्टिंग पश्चिम बंगाल के एक छोटे से कस्बे, बालसा में हुई थी। दीपांकर भी इसी कस्बे का रहने वाला था इसलिए उसने मोहित के रहने का इंतेज़ाम अपने बँगले पर कर दिया। दीपांकर का बँगला पुराना ज़रूर था मगर उसमें सभी आधुनिक सुविधाएँ थीं। सिगरट को बुझाकर, मोहित पलंग पर लेट गया। अपने बेग से उसने एक उपन्यास निकाला और पढ़ने लगा। कुछ ही मिनटों बाद, उसकी पलकें भारी होने लगी। हालाँकि, उपन्यास बड़ा दिलचस्प था इसलिए नींद की परवाह किये बिना मोहित पढ़ता रहा। मगर, इस बीच वो कब नींद की आगोश में चला गया उसे खुद भी पता न चला।


  अचानक, मोहित की आँख खुल गयी और उसने चौंकते हुए अपने आस-पास देखा। कमरे की लाइट अब भी जल रही थी। दरवाज़ा अंदर से बंद था और बायीं तरफ़ की खुली खिड़की से ठंडी हवा आ रही थी। मोहित के माथे पर शिकन पड़ी और वो उठकर पलंग पर बैठ गया जैसे किसी गहन चिंता में हो। उसे ऐसा लगा जैसे किसी ने उसका नाम लेकर उसे पुकारा हो। और, उसी आवाज़ ने मोहित को नींद से जगा दिया। लेकिन, अब चारों तरफ़ सिर्फ़ सन्नाटा था। मोहित सोचने पर मजबूर हो गया कि उसने कोई ख्वाब तो नहीं देखा।

“नहीं वो ख्वाब तो नहीं हो सकता,” मोहित खुद से बोला, “मैंने बिल्कुल साफ़ – साफ़ सुना था किसी को अपना नाम पुकारते हुए। लेकिन, यहाँ तो कोई नहीं है। फ़िर, ऐसा कैसे हो सकता है ?”


  मोहित ध्यान लगाकर सुनने लगा। मगर, सिवाय झींगुरों के शोर के उसे कुछ न सुनायी दिया। थोड़ी देर इंतज़ार करने के बाद भी जब उसे कुछ सुनायी न दिया तो मोहित को यकीन हो गया कि उसे वहम हुआ है। वो दोबारा पलंग पर लेट गया और कमरे की बत्ती बुझा दी। कमरे में अँधेरा होने की देर थी कि मोहित ठिठककर उठ बैठा। उसके काँपते हाथों ने खुद-ब-खुद बत्ती जला दी। उसके दिल की धड़कनें तेज़ थी और वो हाँफ रहा था। अगले ही पल, वो पलंग से नीचे उतरा और पैरो में चप्पलें पहन लीं। पलंग के पास रखी कुर्सी पर पड़ी शॉल ओढ़कर उसने दरवाज़ा खोला और कमरे से बाहर चला गया।

  मोहित के कमरे के दरवाज़े के खुलने की आवाज़ सुनकर हॉल में सोये बाबू दा की नींद टूटी। वो आँखें मलते हुए उठ बैठे और हॉल की बत्ती जला दी। बाबू दा ने मोहित को हड़बड़ी में बाहर के दरवाज़े की ओर बढ़ते देखा।

“मोहित मोशाय,” बाबू दा ने हैरान होकर पूछा, “इतनी रात को कहाँ जा रहें हैं आप ?”

“मैंने अभी- अभी किसी की आवाज़ सुनी,” मोहित ठिठककर रुक गया। “शायद, बाहर कोई आया है।”

“नहीं...दरवाज़ा मत खोलिए,” बाबू दा फौरन खड़े हो गये और मोहित की तरफ़ बढ़े। “पहले ये बताइए कि आपने किस तरह की आवाज़ सुनी।”

“किसी लड़की की आवाज़ थी,” मोहित ने सोचते हुए भौंहें सिकोड़ी। “वो मुझे मेरा नाम लेकर पुकार रही थी।”

“ऐसा कैसे हो सकता है ?” कहते हुए बाबू दा के चेहरे का रंग उड़ गया। “आप तो पहली बार यहाँ आए हैं, न ? न आप यहाँ किसी को जानते हैं, न आपको कोई जानता है। फिर कोई आपका नाम लेकर आपको आवाज़ कैसे दे सकता है ?”

“मगर, उससे भी अजीब बात ये है, बाबू दा,” चिंतित मोहित ने अपनी ठुड्डी खुजलायी, “कि वो आवाज़ मुझे बड़ी जानी-पहचानी सी लग रही थी।”

“मुझे तो दाल में कुछ काला नज़र आता है,” बाबू दा के माथे पर चिंता कई सारी रेखाएँ उभर आयीं थी।

“मतलब ?” आश्चर्य से फैली मोहित की आँखें बाबू दा की ओर हो गयीं, “आप कहना क्या चाहते हैं ?”

“हो सकता है इसमें किसी शैतानी शक्ति का हाथ हो।” बाबू दा आवाज़ धीमी करके फुसफुसाए, “आपने निशि डाक के बारे में सुना है ?”

“नहीं तो,” मोहित ने सर हिलाया, “वो क्या होता है ?”

“हमारे यहाँ बंगाल में यह माना जाता है,” बाबू दा ने पहले तो डरी हुई आँखों से चारों तरफ़ देखा और फिर बोले, “कि 'निशि' यानी रात की आत्मा अपने शिकार को दो बार आवाज़ देती है। आमतौर पर वो अपने शिकार के किसी प्रियजन की आवाज़ निकालकर उसे पुकारती है। लेकिन वह दो से अधिक बार आवाज़ नहीं दे सकती, इसीलिए कहते हैं कि रात को तीसरी बार किसी की आवाज़ आने पर ही उसका जवाब देना चाहिए।“

“मैंने भी दो बार अपना नाम पुकारते सुना है,” मोहित नहीं जानता था कि वो खौफ़ था या कौतुकता जिसने उसकी आवाज़ में कँप-कँपी मचा दी।

“तो फिर आप थोड़ी देर इंतज़ार करें।” दरवाज़े की तरफ़ देखते हुए बाबू दा बोले, “अगर तीसरी बार भी वो आवाज़ आपको पुकारे तो ही आप जवाब दें।”

हालाँकि, मोहित भूत-प्रेत जैसे अंधविश्वासों को नहीं मानता था, मगर न जाने क्यूँ, आज बाबू दा की बातों पर विश्वास करने को उसका मन कर रहा था। वो चुप-चाप अपने कमरे में चला गया और दरवाज़ा बंद कर लिया। ज़ोरों से धड़कते दिल और चढ़ती सासों को काबू में करने के लिए संघर्ष करे हुए वो उस तीसरी पुकार का इंतज़ार करने लगा। पल-पल कर रात बीतती चली गयी मगर उसे कोई आवाज़ नहीं सुनाई दी। दूर क्षितिज पर जब सूरज की लाली दिखने लगी तब जाकर मोहित की आँख लगी।


• • •


 दिन भर, घर बैठे – बैठे ऊब जाने की वजह से मोहित शाम को टहलने निकल पड़ा। अगले दिन सोमवार था और मोहित को अपनी नयी कंपनी में चार्ज लेना था। उसने सोचा, एक बार ऑफिस जाना शुरू कर दिया तो फिर न जाने कब घूमने–फिरने का वक़्त मिले। इसलिए, वो रविवार की शाम, अकेले ही बालसा की सैर पर निकल पड़ा। न जाने क्यूँ उसे बालसा की गलियाँ बड़ी जानी – पहचानी सी लग रहीं थी। वो बिना देखे ही जान जाता था कि अगले मोड़ पर कौन-कौन सी दुकानें हैं। उसे पता चल जाता था कि कौन सी गली आगे चलकर किस सड़क पर खुलती थी। किसी राहगीर से पूछे बिना ही वह जान जाता था कि कौन सी सड़क उसे कहाँ ले जाएगी। उसके आस-पास से गुजरने वालों में से कुछ लोग तो उससे यूँ मुस्कुराये जैसे वे उसे जानते हों।

 मोहित को ये सब बहुत अजीब लग रहा था। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है। शाम ढल चुकी थी और चारों तरफ़ अँधेरा अपनी बाहें पसार रहा था। तभी उसकी नज़र कस्बे की भीड़-भाड़ से दूर, एक वीरान कोने में बेजान से खड़े एक कारखाने पर पड़ी। कारखाने की दुर्दशा को देखकर लगता था कि वो सालों से बंद पड़ा है। उसे देखते ही मोहित को ऐसा लगा कि वो इस कारखाने का चप्पा–चप्पा जानता है, जैसे वहाँ उसका रोज़ का आना-जाना था। उसके कदम खुद-ब-खुद ही उस कारखाने की तरफ़ बढ़ गये। उसने ज़ंग लगे लोहे के गेट को धक्का देकर खोला और अंदर आ गया।

 कारखाने में हर जगह, सूखे–पत्ते और घास–फूँस भरी पड़ी थी। दीवारों की रंगत फीकी पड़ चुकी थी और खिड़की-दरवाज़ों की लकड़ियों को दीमक खोखला कर चुके थे। धूल-मिट्टी की जमी परतें और मकड़ी के जाले, कारखाने को एक भयानक रूप दे रहे थे। मोहित खुद भी न समझ पाया कि वो क्या वजह थी जो उसके कदमों को खींचकर कारखाने के पिछवाड़े की तरफ़ ले गयी। वहाँ एक सुदूर कोने में एक बड़ा विशाल पीपल का पेड़ था। उस पेड़ के पास पहुँचकर, मोहित रुक गया और नजरें उठाए उसे टकटकी बाँधे देखता रह गया। उस पीपल के पत्तों से गुज़रकर आती हवा, न जाने उसके कानों में क्या फुसफुसाने की कोशिश कर रही थी।


   तभी अचानक, उन पत्तियों के बीच से उसे एक भयानक आकृति दिखायी दी। वो चेहरा एक लड़की का था, जिसकी आँखें अंगारों की तरह लाल थीं। उसके होंठों से खून टपक रहा था और गालों पर जहाँ-तहाँ गहरे जख्मों के निशान थे, जिनमें से माँस के सड़ने की बू आ रही थी। उसके चेहरे का आधा हिस्सा, आपस में उलझे घुँघराले बालों से ढका था। उसके दाँत किसी खूँखार जानवर की तरह पैने थे। उसका शरीर ऐसा लगता था मानो धुँध का बना हो। मोहित को ऐसा लगा जैसे उसने वो चेहरा और खासकर वो आँखें, पहली भी देखी हैं। मगर, तब वो चेहरा ऐसा तो नहीं था।

  मोहित को देखते ही वो पारलौकिक शक्ति ज़ोर से कराह उठी और उसकी आँखों से खून की नदियाँ बहने लगीं। उसकी कराह सुनकर मोहित थर-थर काँप उठा। अपने कानों पर हाथ रखे, वो उलटे पैर वहाँ से भाग निकला। वो कुछ ही दूर पहुँचा था कि उसका सर, दर्द के मारे फटने लगा। मोहित ने दोनों हाथों से अपना सर पकड़ लिया मगर दर्द था कि बढ़ता ही जा रहा था। कुछ ही देर में उसके पैर लड़खड़ाने लगे और वो वहीं ज़मीन पर बेहोश होकर गिर पड़ा।

  

  होश में आते ही, अपने आस-पास चहल-पहल सुनकर मोहित चौंक गया। उसने सोचा कि भला बंद पड़े कारखाने में कदमों की आहट और मज़दूरों के हँसने बोलने की आवाज़ कैसे सुनायी दे सकती है ? नजरें उठाकर देखने पर जो नज़ारा उसकी आँखों के सामने आया, उसे देखकर वो हक्का-बक्का रह गया। कारखाने की हालत अब पूरी तरह से बदल चुकी थी। जहाँ थोड़ी देर पहले घास-फूस और जंगली बेलें थी, अब वहाँ साफ़-सुथरी ज़मीन थी जिस पर नीले रंग की यूनिफॉर्म पहने कारखाने के मज़दूर आ–जा रहे थे। तभी कारखाने के सामने एक बड़ी सी कार आकर रुकी। उस कार के आगे की सीट से एक अधेड़ उम्र के सज्जन बाहर आये। मोहित उन्हें देखते ही पहचान गया। वो दीपांकर के मामा जी थे।

“ये कैसे हो सकता है ?” अगले ही पल, मोहित का माथा ठनका और वो खुद से बड़बड़ाया, “दीपू ने तो बताया था कि कुछ साल पहले, दिल का दौरा पड़ने की वजह से उसके मामा जी की मौत हो चुकी है।”

  मगर उसके बाद उसने जो नज़ारा देखा, उससे तो उसके होश ही उड़ गये। मामाजी ने हँसते हुए कार के पीछे का दरवाज़ा खोला और उसमे से दो युवक बाहर आये। उनमें से एक दीपांकर था और दूसरा वो खुद था। मोहित को अपनी आँखों पर विश्वास न हुआ। मामाजी उन दोनों को अपने साथ, अंदर अपने ऑफिस में ले गये। मोहित भी उनके पीछे – पीछे ऑफिस की ओर चल पड़ा और कैबिन की खिड़की से झाँककर देखने लगा।

  मामाजी ने उन दोनों को अपने ऑफिस में बिठाया और उनके लिए कॉफी ऑर्डर की। कॉफी की ट्रे हाथों में लिए, एक खूबसूरत सी लड़की उनके कैबिन में आ गयी। उसे देखते ही, मामा जी के साथ बैठे मोहित ने अपना दिल थाम लिया। उस लड़की की खूबसूरती ने, मोहित के मन में उसे हासिल करने की चाहत जगा दी। वो लड़की भी मोहित को कनखियों से देखकर मुस्कुरायी। मामाजी ने उसका नाम मोनालिका बताया और अपनी सेक्रेटरी के रूप में उसका परिचय उन दोनों से करवाया।

  

  अगले ही पल, मोहित की आँखों के सामने से सारा नज़ारा ही बदल गया। उसने खुद को कारखाने के पिछवाड़े वाले पीपल के सामने खड़े पाया। वो बार – बार बड़ी बेसब्री से अपनी कलाई पर बँधी घड़ी को देख रहा था। तभी मोनाली दौड़ती हुई आयी और उसके गले से लग गयी। बस उसके ऐसा करने की देर थी कि दृश्य फिर बदल गया। उसने देखा कि वो और मोनालिका एक-दूसरे का हाथ पकड़े पीपल की छाँव में बैठे हँस-बोल रहे हैं। इसी तरह एक-के बाद एक दृश्य, उसकी आँखों के सामने उभर आते और फिर गायब हो जाते। आखिर में, उसने कुछ ऐसा देखा कि उसके रोंगटे खड़े हो गये।


  अचानक उसके चारों तरफ़ काली रात का घना अँधेरा फैल गया। उसने खुद को पीपल की ओट में छुपकर बैठे पाया। रात के सन्नाटे में, अचानक से पायलों के खनकने की आवाज़ सुनकर वो सावधान हो गया। पीपल की ओट लेकर वो धीरे से खड़ा हो गया। मोनालिका पीपल के सामने खड़ी उसका इंतज़ार कर रही थी। मोहित दबे पाँव ठीक मोनालिका के पीछे जाकर खड़ा हो गया। उसने अपनी जैकिट की जेब से एक रस्सी निकाली और पीछे से मोनालिका का गला घोंटने लगा।

  खुद को छुड़ाने की कोशिश करती मोनालिका ने पीछे मुड़कर देखा। तभी बादलों के पीछे से चाँद निकल आया। चाँद की रोशनी में मोहित का चेहरा देखकर मोनालिका के आश्चर्य की सीमा न रही। मगर, मोहित पर तो जैसे खून सवार था। उसने अपनी सारी शक्ति लगाकर मोनालिका का गला घोंटा। अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करने के बाद भी मोनालिका खुद को बचा न सकी और उसने उसी पीपल के पेड़ के सामने दम तोड़ दिया।

  मोहित ने मोनालिका की लाश को उठाया और पीपल के पेड़ के पास पहले से खुदे गड्ढे में डाल दिया और उस पर मिट्टी डालकर दफ़न कर दिया। तभी उसे किसी के कदमों की आहट सुनायी दी। वो फौरन वहाँ से भाग खड़ा हुआ। कारखाने की गेट से बाहर निकलकर वो सड़क पर पागलों की तरह दौड़ने लगा। उसके मन में डर बैठ गया था कि कहीं किसी ने उसे मोनालिका की हत्या करते देख न लिया हो। वो जल्दी-से-जल्दी उस जगह से बहुत दूर भाग जाना था। इस हड़बड़ी में उसने सड़क पर दौड़ती गाड़ियों पर ध्यान न दिया और सामने से आती कार से टकरा कर उसका एक्सीडेंट हो गया। उसके सर पर गहरी चोट लगी और खून की धाराओं से उसका पूरा बदन नहा गया।


• • •


  मोहित ने एक झटके से आँखें खोलीं और चौंकते हुए अपने आस-पास देखा। उसे एहसास हुआ कि वो बंद पड़े कारखाने के पीछेवाले पीपल के पेड़ के सामने पड़ा हुआ है। अँधेरा गहरा चुका था। उसे बिल्कुल अंदाज़ा न था कि वो कितनी देर से पीपल के पेड़ के पास बेहोश पड़ा था। वो उठा और तेजी से सड़क की तरफ़ चल पड़ा। वो सड़क के किनारे खड़ी एक टैक्सी में बैठ गया और वापस दीपांकर के बंगले की तरफ़ चल पड़ा।

“एक बात तो तय है,” टैक्सी की खिड़की से बाहर देखते हुए मोहित ने सोचा, “मैं यहाँ पहले भी आ चुका हूँ। इसीलिए मैं इस जगह को इतनी अच्छी तरह से जानता हूँ। लेकिन, मुझे कुछ याद क्यूँ नहीं आता ? और, दीपांकर ने मुझसे ये बात क्यूँ छुपायी कि वो मुझे अपने साथ पहले भी यहाँ लेकर आ चुका है ? जिस लड़की से मैं इतना प्यार करता था, मैंने खुद उसका कत्ल क्यूँ कर दिया ? आखिर, ये क्या पहेली है ?”

“साहब, आपका घर आ गया,” टैक्सी के ड्राइवर की आवाज़ सुनकर मोहित चौंक गया।

वो टैक्सी से उतरा और टैक्सी का भाड़ा देकर बंगले की तरफ़ बढ़ गया। बंगले के अंदर प्रवेश करते ही वो सीधा अपने कमरे की ओर चल पड़ा। बाबू दा हॉल में बैठे थे। मोहित को आते देख, बाबू दा ने उससे कुछ पूछा। मगर, मोहित अपनी परेशानी में इतना खोया हुआ था कि उसके कानों पर बाबू दा की बातें पड़ ही नहीं रहीं थीं। वो बिना कुछ कहे अपने कमरे में दाखिल हुआ और दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया। अपने दिमाग पर ज़ोर डालकर वो अपने अतीत की बातें याद करने की कोशिश करने लगा। आखिरकार, उसकी आँखों के सामने एक और दृश्य उभर आया।

 उसने खुद को किसी अस्पताल के बेड पर पड़े पाया। उसके पूरे बदन में पट्टियाँ बँधी हुईं थी और वो काफ़ी तकलीफ में था। उसके सामने अधेड़ उम्र के एक दम्पत्ति खड़े थे। उनके चेहरे पर चिंता और दीनता का भाव था। दीपांकर भी मोहित के बेड के पास ही खड़ा था। वो बेड पर बैठ गया और मोहित का हाथ अपने हाथों मे ले लिया। 

“तू इन्हें भी नहीं पहचानता, मोहित ?” दीपू ने उस अधेड़ दम्पत्ति की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, “ये तेरे मम्मी- डैडी हैं।” 


“दीपू सब कुछ जानता है,” मोहित चिल्लाया, उसका चेहरा पसीने से नहा गया था। “दीपू मेरा सबसे खास दोस्त है। हम एक-दूसरे से कुछ नहीं छुपाते। मेरे जीवन की ऐसी कोई बात नहीं जो दीपू नहीं जानता हो। अब, वो ही रहस्यों के इस चक्रव्यूह से मुझे बाहर निकाल सकता है।”

मोहित ने अपना मोबाईल फोन निकाला और दीपांकर को लंदन फोन लगाया। जैसे –जैसे फोन की घंटियाँ बजने लगी, मोहित के दिल की धड़कनें भी तेज़ होती गयी।

“बोल मेरी जान, कैसा है तू ?” दीपांकर ने फोन उठाते ही पूछा, “तुझे मेरा घर तो पसंद आया, न ? बाबू दा तेरा अच्छे से खयाल रख रहें हैं, न ? कोई तकलीफ़ तो नहीं है न तुझे वहाँ ?”

“दीपू, तू ने मुझसे ये क्यूँ छुपाया कि मैं, तेरे घर पहले भी आ चुका हूँ ?” मोहित ने बड़े तीखे स्वर में पूछा। “तू ने कभी ये भी नहीं बताया कि तू, मुझे अपने स्वर्गीय मामा जी के कारखाने भी ले गया था।”

“अरे ! छोड़ न यार वो सब तो पुरानी बातें हैं,” दीपांकर के स्वर में घबराहट थी। “अब, उन बातों में क्या रखा है ?”

“नहीं !” मोहित चिल्लाया, “मैं जानना चाहता हूँ, दीपू। तुझे बताना ही होगा कि तूने ये सब मुझसे क्यूँ छिपाया ?”

“अंकल-आंटी ने मना किया था,” दीपांकर ने ज़रा सहमते हुए कहा। “दरअसल, उनसे तेरा इलाज कर रहे डॉक्टर ने कहा था कि तुझे तेरे एक्सीडेंट के बारे में कुछ न बताया जाया। तेरी तबीयत सुधर रही थी और याददाश्त भी धीरे-धीरे वापस आ रही थी। डॉक्टर को डर था कि एक्सीडेंट की बात याद आने से तुझे सदमा लग सकता है, जिससे तेरी सेहत पर बुरा असर पड़ेगा।”

“और, वो लड़की मोनालिका ?” मोहित के चेहरे पर इतनी गंभीरता थी कि कोई भी देखता तो डर जाता। “ऐसा तो हो नहीं सकता कि तू उसके बारे में न जानता हो।”

“जिस दिन तेरा एक्सीडेंट हुआ, उस दिन सुबह तू मोनालिका से मिलने गया था,” दीपांकर धीमे से बोला। “और उसने तुझे बताया था कि वो गर्भवती है। तू पूरे दिन काफ़ी परेशान था। मेरे पूछने पर तू ने मुझे ये बात बतायी और साथ ही ये भी कहा कि अगर तेरे डैडी को ये बात पता चली तो वो इतने नाराज़ हो जायेंगे कि तुझसे रिश्ता ही तोड़ लेंगे और अपनी सारी संपत्ति का वारिस तेरे छोटे भाई रोहित को बना देंगें। फिर तू उस रात किसी को भी बिना बताये घर से कहीं चला गया। तू ने मुझे भी नहीं बताया कि तू कहाँ जा रहा है। मुझे तो तब पता चला जब देर रात को अस्पताल से फोन आया कि तेरा एक्सीडेंट हो गया है। तुझे कई दिनों बाद होश आया। मगर, सर पर चोट लगने की वजह से तू अपनी याददाश्त खो चुका था। मैंने फोन करके दिल्ली से तेरे मम्मी- डैडी को बुला लिया। वो तुझे विदेश ले गये और तेरा इलाज करवाया। ये उनकी प्रार्थना और परिश्रम का फल है कि तू आज बिल्कुल भला-चंगा है।”

“उस लड़की का क्या हुआ ?”

“तेरे एक्सीडेंट के बाद उसका भी कोई पता नहीं चला।” दीपांकर ने एक गहरी साँस ली और कहा, “शायद, वो बदनामी के डर से ये जगह छोड़कर कहीं और चली गयी है। उसके परिवार वालों ने उसे बहुत ढूँढा, पुलिस में रिपोर्ट भी लिखायी। मगर, आज तक उसका पता नहीं चल पाया।” 

“ठीक है मैं तुझसे बाद में बात करता हूँ,” कहकर मोहित ने फौरन फोन रख दिया।

“इसका मतलब ये है कि वो मरी नहीं है,” मोहित ने खुद से कहा, “ये सारा नाटक करके मुझे डराने की कोशिश कर रही है ताकि मैं उसे स्वीकार करने को तैयार हो जाऊँ। ऐसा कभी नहीं होगा।”

अहंकार और घृणा से मोहित का चेहरा तिलमिला उठा और उसने टेबल को ज़ोर से लात मारी। उस पर रखा पानी का जग और ग्लास नीचे गिर गये और काँच के टूटने की आवाज़, कमरे की खामोशी में गूँज उठी।

“प्यार का तो बस नाटक था,” मोहित की आँखों में हैवानियत की चमक थी और होंठों पर एक क्रूर मुस्कान थी। “मेरा मकसद तो बस मोनालिका के शरीर से अपनी वासना की प्यास बुझाना था। और, वो बेवकूफ मेरी पत्नी बनने के ख्वाब देखने लगी। उसकी औकात नहीं है कि वो हमारे खानदान की बहु बने। उसे एक बार मार सकता हूँ तो दोबारा ऐसा करना मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं।”

तभी ज़ोर से आँधी चली और कमरे की खिड़कियाँ खड़खड़ाने लगीं। उस बहती हवा के साथ एक आवाज़ कमरे में गूँजी और एक पल को मोहित की साँसें थम गयीं।

“मोहित...” एक लड़की की मीठी सी आवाज़ ने मोहित का नाम पुकारा।

“ये उसी की आवाज़ है,” मोहित ने खुद से कहा। “निशि-डाक की आड़ लेकर उसका प्लान मुझे डराने का है। उसे लगता है कि ऐसा करके वो मुझसे अपना जुर्म कुबूल करवा लेगी और लोक-लाज से मैं उसे अपनी पत्नी स्वीकार कर लूँगा। ऐसा कभी नहीं होगा ! उसे मरना ही होगा। वो मरेगी, तो ही मैं बेखौफ़ होकर जी सकूँगा। अपने डैडी के अमीर दोस्त की इकलौती बेटी तारा से शादी कर पाऊँगा।”

तभी वो आवाज़ फ़िर से गूँजी, “मोहित !” 

मोहित ने मेज़ की दराज़ खोली और उसमें से पिस्तौल निकाली। उसमें फटाफट गोलियाँ भरी और कमरे का दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गया। उसने पिस्तौल को दायें हाथ में कसकर पकड़ा और बायें हाथ से बँगले का दरवाज़ा खोला। दरवाज़े के खुलते ही उसने जो नज़ारा देखा उससे मोहित के हाथ काँपने लगे और पिस्तौल उसके हाथ से छूटकर नीचे गिर गयी। मोहित के मुंह से एक ज़ोरदार चीख निकल और दूर- दूर तक गूँज उठी। उस चीख की गूँज के शांत होते ही बाहर का तूफ़ान भी शांत हो गया।


• • •


 अगले दिन सुबह फोन की घंटी सुनकर बाबू दा की आँख खुली। बाबू दा ने मोहित को बीती रात पिस्तौल हाथ में लिए गुस्से में पाँव पटकते हुए कहीं जाते देखा था। खाने पर उसकी राह देखते–देखते बाबू दा बड़ी देर से सोये थे। फोन की घंटी ने उन्हें जगाया तो उन्हें एहसास हुआ कि दिन चढ़ आया है। रोज़, बाबू दा सूरज की पहली किरण के उगते ही उठ जाते थे मगर आज तो उन्हें खबर ही न हुई कि कब भोर हो गयी। फोन की घंटियाँ लगातार बजती ही जा रहीं थी। बाबू दा को लगा फोन ज़रूर मोहित का ही होगा।

“ये मोहित मोशाय भी न बस कमाल हैं,” फोन की तरफ़ बढ़ते हुए बाबू दा ने खुद से शिकायत की, “पूरी रात न जाने कहाँ गायब रहे ? एक फोन करके इत्तला करने की ज़हमत भी नहीं उठा सकते। अरे ! सोचना तो चाहिए न कि घर पर एक बूढ़ा मानुस, भूखा बैठा उनकी राह देख रहा है।”

घंटियाँ काफ़ी देर से बज रहीं थी। इससे पहले कि कॉल कट जाती, बाबू दा ने लपककर फोन उठा लिया।

“हैलो, मोहित मोशाय, कहाँ थे आप रात भर ?” बाबू दा अपनी सारी शिकायतें भूलकर बड़े प्यार से बोले।

“मैं इन्स्पेक्टर बोस बोल रहा हूँ,” एक कड़क आवाज़ ने जवाब दिया। “मुझे ये कहते हुए बड़ा अफ़सोस हो रहा है कि आपके घर जो बाबू रहते थे, उनकी लाश हमें बंद पड़ी मुखर्जी मिल्स के पीछे वाले पीपल के पेड़ के पास मिली है। उनकी जेब से मिली आइडेंटिटी कार्ड से हमने उनकी पहचान कर ली है।”

स्तब्ध खड़े बाबू दा के हाथों से फोन का रिसीवर छूट गया।

 कहते हैं, रात के अँधेरे की आड़ लेकर गुनाह यह सोचकर किये जाते हैं कि उन पर कभी रोशनी नहीं पड़ेगी। मगर, निशि-डाक यानी रात की आत्मा उन गुनहगारों उनके अंजाम तक ज़रूर पहुँचाती है।



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