मृणालिनी
मृणालिनी


शिवानी ने करवट बदली और सोने की कोशिश की। मगर, उसे नींद ही नहीं आ रही थी। कईं रातों से यही सिलसिला चल रहा था। वो रातों को चैन से सो नहीं पाती थी। उसका गला सूख रहा था। उसने अपने बिस्तर के पास रखी मेज़ पर से पानी का जग उठाया। मगर, वो जग खाली था।
"ओह ! मैं तो इसमें पानी रखना ही भूल गयी।" कह कर शिवानी ने जग को वापस मेज़ पर रख दिया।
रात के ढाई बज चुके थे। चारों तरफ सन्नाटा था। शिवानी उठी और किचन की तरफ चल पड़ी। किचन में जाकर उसने फ्रिज खोला और उसमे से ठन्डे पानी की बोतल बाहर निकाली। उसने पानी को एक गिलास में डाला ही था की उसे अपने पीछे कोई आहट सुनाई दी। शिवानी चौक गयी और उसने फ़ौरन पीछे मुड़ कर देखा। लेकिन वहां, कोई नहीं था। किचन के बाहर जो गलियारा था वहाँ एक बल्ब जल रहा था। शिवानी ने पानी का गिलास अपने हाथों में ले लिया। वो उस गिलास को होठों से लगाने ही वाली थी उसे लगा उसके पीछे कोई खड़ा है। उसने मुड़कर देखा तो उसे गलियारे में एक काली परछाईं नज़र आयी।
"कौन है, वहाँ ?" शिवानी ने कांपती हुई आवाज़ में पूछा।
शिवानी पानी का गिलास हाथों में लिए, उस परछाईं को देखते हुए धीरे - धीरे, गलियारे की तरफ बढ़ी। परछाईं को देखकर लगता था की वो किसी औरत की परछाईं है, जिसका कद लम्बा, बदन छरहरा था। और, उसके लम्बे बाल हवा में लहरा रहे थे। उस औरत ने अपने दाएँ हाथ से बालों को सहलाया। शिवानी ने देखा की उसके नाखून बहुत लम्बे और खूँखार थे। शिवानी किचन के दरवाज़े पर खड़ी हो गयी और उसने धीरे से गलियारे में झाँक कर देखा। वहाँ उसने जो दृश्य देखा, उससे उसके होश उड़ गए। गिलयारे में कहीं कोई नहीं था लेकिन फर्श पर एक परछाईं नज़र आ रही थी। एक खूंखार, काली परछाई। शिवानी बेहोश होकर फर्श पर गिर गयी।
"राशि बेटा, उठ !" सरस्वती की आवाज़ में घबराहट थी।
"क्या है, माँ ?" राशि आँखें बंद किये बिस्तर पर ही पड़ी रही, "इतनी जल्दी क्यों उठा दिया ? अभी तो ठीक से सुबह भी नहीं हुई।"
"शिवानी की तबियत ख़राब है।" सरस्वती, राशि के बिस्तर पर जाकर बैठ गयी। "तुझे आज ही केवटपुर जाना होगा। दामाद जी लंदन गए है और शिवानी वहाँ अकेली हैं। तेरे पापा के घुटनों का ऑपरेशन अभी - अभी हुआ है। और, मुझे उनकी देखभाल करने के लिए यहीं रुकना होगा। नहीं तो मैं भी चलती तेरे साथ।"
"लेकिन, दीदी को हुआ क्या है ?"
"अब तुझे मैं क्या बताऊँ, बेटा," सरस्वती की आँखें भर आयी। "किसी की नज़र लग गयी हैं, मेरी शिवानी को। केवटपुर में शिव जी का एक बड़ा पुराना मंदिर है। तू उसे वहाँ ज़रूर ले जाना।"
शिवानी की शादी, केवटपुर के सबसे बड़े रईस, सिंघानिया परिवार में हुई थी। उसके पति आदित्य सिंघानिया, अपने बिज़नेस के सिलसिले में लंदन गए हुए थे। शिवानी बड़ी सी हवेली में, अपने पांच साल के बेटे आरव के साथ अकेले रहती थी। आदित्य अक्सर यूँ ही काम के सिलसिले में, शिवानी को घर पर अकेले छोड़कर बाहर जाते रहते थे। शिवानी के लिए ये कोई नयी बात नहीं थी। लेकिन, पिछले कुछ दिनों से उसके साथ कुछ अद्भुत घटनाएँ हो रही थी, जिसकी वजह से वो बहुत परेशान थी। राशि के आने से शिवानी को थोड़ी राहत मिली। उसके कहने पर, शिवानी एक मानसिक रोग चिकित्सिका डॉ० आशा अग्रवाल के पास गयी।
"ऐसा तुम्हारे साथ कब से हो रहा है, शिवानी ?" डॉ० अग्रवाल ने पूछा।
"जी, पिछले छह महीनों से। शिवानी ने सहमते हुए कहा। "मेरी सास की मौत के एक हफ्ते बाद, मुझे पहली बार ऐसा अनुभव हुआ।"
"उनकी मौत कैसे हुई थी ?"
"दिल का दौरा पड़ने से।" "तुम्हारी सांस के साथ तुम्हारे सम्बन्ध कैसे थे ?"
"उनका स्वाभाव बहुत विचित्र था।" शिवानी का चेहरा उतर गया।
"विचित्र मतलब ?" डॉ ० अग्रवाल ने शिवानी को ध्यान से देखा और पूछा, "क्या वो तुमसे अच्छा बर्ताव नहीं करती थी ? क्या वो बहुत डाँटती थी तुम्हें ?"
"डाँटना न तो दूर की बात हैं, उन्होंने तो मुझसे कभी एक शब्द तक नहीं कहा।" शिवानी ने रूमाल से अपना माथा पोछा, "और मुझसे तो क्या ? मैंने तो उन्हें किसी से बात करते हुए नहीं देखा। सिर्फ इतना ही नहीं, वे तो किसी से मेल-जोल भी नहीं रखती थी। हमारी शादी पर भी नहीं आयीं। बस, एक बंद कमरे में बैठी रहती थी, जिसके अंदर प्रवेश करने की इजाज़त किसी को नहीं थी। केवल एक नौकरानी, उन्हें कमरे में खाना देने जाती थी और कमरे की साफ़-सफाई भी करती थी। "तुम कभी उनसे मिलने नहीं गयी ?"
"एक बार गयी थी।" शिवानी के हाथ ठन्डे पड़ गए थे और वो उन्हें बार -बार रगड़ कर गर्म कर रही थी। "उनके कमरे के दरवाज़े पर बहुत सारी ताबीज़ें बंधी हुई थी। मैंने दरवाज़ा खटखटया तो उन्होंने मुझसे चले जाने को कहा। फिर, मैं कभी दोबारा वहाँ नहीं गयी।"
"इसका मतलब ये की उन्होंने कभी भी तुमसे बातचीत नहीं की।"
"की, सिर्फ एक बार," शिवानी ने एक गहरी साँस लेते हुए कहा, "पहली और आखिरी बार।"
"कब ?"
"उनकी मृत्यु से कुछ क्षण पहले।"
"क्या कहा, उन्होंने ?"
"रात के लगभग ढाई-तीन बजे होंगे। मैं सो रही थी। वो दौड़ती हुई आयीं और मुझसे लिपटकर, फूट-फूट कर रोने लगी। वो बहुत घबरायीं हुई भी लग रही थी। उनका पूरा बदन ठंडा था और वे थर -थर काँप रहीं थीं। उन्होंने मुझसे सिर्फ इतना कहा 'एक काली परछाईं.... "
कहकर शिवानी एकदम चुप हो गयी।
"फिर क्या हुआ, शिवानी ?" डॉ ० अग्रवाल ने बड़ी कौतुकता से पूछा। "अगले पल उन्होंने दम तोड़ दिया।"
"तो ये बात है।" डॉ० अग्रवाल ने अपनी मेज़ पर से एक कलम उठायी और एक पर्चे पर कुछ लिखने लगी। "देखो शिवानी, तुम्हारी सास की मौत, तुम्हारी आँखों के सामने हुई। तुम अब भी उस सदमे से बाहर नहीं निकल पायी हो। तुम्हारी सास ने मरते वक़्त जिस काली परछाईं का ज़िक्र किया था, तुम उसे ही बार- बार देखती हो। ये सब सिर्फ तुम्हारा वहम है।"
"नहीं डॉक्टर ये मेरा वहम नहीं है।" शिवानी रोने लगी, "मैंने ये सब अपनी आँखों से देखा है। ऐसा सच-मुच होता है, मेरे साथ।"
"दवाईयां सही वक़्त पर लेती रहना।" परचा शिवानी को पकड़ाते हुए डॉ ० अग्रवाल ने कहा, "सब ठीक हो जायेगा।
शिवानी, राशि को साथ लिए डॉक्टर के केबिन से बाहर निकल आयी।
"राशि," शिवानी रोते हुए बोली, "मैं सबको कैसे यकीन दिलाऊँ ?"
"तुम चिंता मत करो, दी।" राशि ने शिवानी के आँसू पोछे और कहा, "माँ ने शिव मंदिर जाने को कहा था। शाम होने वाली, चलो जल्दी चलते हैं।"
"ठीक है।"
संध्या की आरती के बाद भी, शिवानी मंदिर में ही बैठी रही। उसे घर वापस जाने के ख़याल से ही डर लगता था। मन्दिर के पुजारी जब प्रसाद देने आये तो शिवानी से उसके दुःख का कारण पूछा। शिवानी ने उन्हें सब बता दिया।
"यहाँ से थोड़ा आगे माँ सतीदेवी का आश्रम है। वे परम ज्ञानी हैं।" पुजारी जी बोले, "अब वे ही तुम्हें इस संकट से मुक्त कर सकती हैं।"
शिवानी, राशि को लेकर सतीदेवी के आश्रम गयी। सतीदेवी ने शिवानी को ये आश्वासन दिया की वे उसकी हर संभव सहायता करेंगी। शिवानी ने उन्हें अपनी व्यथा कह सुनाई।
"मैंने बहुत कुछ सुना है, तुम्हारे परिवार के बारे में।" सतीदेवी को जैसे अचानक कुछ याद आ गया। "तुम्हारी सास की सास का देहान्त भी किसी बहुत दर्दनाक हादसे में हुआ था, न ?"
"हाँ," शिवानी ने कहा, "मैंने भी कुछ ऐसा ही सुना है। उनकी मृत्यु हमारी शादी से पहले ही हो चुकी थी।"
"तुम्हारे घर में जो स्त्री ब्याही जाती है, वो इसी तरह किसी न किसी हादसे का शिकार हो जाती हैं। बड़ी विचित्र बात है।" तभी सतीदेवी की नज़र शिवानी के गले में पड़े हार पर पड़ी। "ये हार किसने दिया तुम्हें" ये हमारा खानदानी हार है।"
शिवानी ने हार को अपनी उँगलियों से छुआ और कहा, "ये सास के गुज़र जाने के बाद बहु को दिया जाता हैं।"
"ठीक है," सतीदेवी ने अपना हाथ शिवानी के सर पर रखा और कहा, "में ध्यान लगाकर देखती हूँ की वो कौन सी शक्ति हैं, जो तुम्हें परेशान कर रही है।"
सतीदेवी ध्यान में लीन हो गयी। थोड़ी देर बाद उन्होंने आँखें खोली और शिवानी को देखा।
"शिवानी, तुम्हारा परिवार एक यक्षिणी के प्रकोप से ग्रस्त है।" सतीदेवी बहुत चिंतित लग रहीं थी। "ये कहानी शुरू होती है सूर्याप्रकाश सिंघानिया से, जो तुम्हारे ससुर के परदादा थे। उन्हें अपने गाँव की एक सुन्दर लड़की, मृणालिनी से प्यार हो गया था। तुम्हारा जो खानदानी हार है, वो सूर्यप्रकाश ने मृणालिनी के लिए ही बनवाया था। लेकिन, उनके पिता को ये रिश्ता कतई मंज़ूर नहीं था क्योंकि मृणालिनी एक ग़रीब किसान की बेटी थी। उन्होंने कुछ गुंडों को भेजकर बेचारी मृणालिनी की हत्या करवा दी।
मृणालिनी के पिता को जब पता चला, तो वे अपनी बेटी के ग़म में पागल हो गए। उन्हें तंत्र - मंत्र का ज्ञान था। उन्होंने तंत्र विद्या की मदद से, मृणालिनी को यक्षिणी बना दिया। उस यक्षिणी ने ठान ली की अगर वो सिंघानिया परिवार की बहु न बन पायी, तो किसी और को भी नहीं बनने देगी। इसीलिए, सिंघानिया परिवार की बहुओं की यूँ अकाल मृत्यु हो जाती है। उनकी हत्या और कोई नहीं बल्कि मृणालिनी ही कर रही है।"
"क्या उस यक्षिणी से मुक्ति पाने का कोई उपाय नहीं ?" शिवानी ने हाथ जोड़ते हुए पूछा।
"मृणालिनी के पिता ने उसका शव-शरीर जंगल के सबसे पुराने बरगद के पेड़ के अंदर, बने कोटर में छुपा दिया है। हमें उसके शव को जलाना होगा।"
"ठीक है," राशि उठ खड़ी हुई, "तो फिर अभी चलते हैं।"
शिवानी और राशि को साथ लेकर, सतीदेवी उस बरगद के पेड़ के पास जा पहुंची। उन सबने मिलकर उस पेड़ में आग लगा दी, पर विचित्र बात ये हुई की, पूरा का पूरा पेड़ तो जल गया, मगर मृणालिनी का शरीर नहीं जला।
"ये क्या हो रहा है, सतीदेवी ?" शिवानी ने हैरान होकर पूछा।
"रुको, मुझे फिर से ध्यान करना होगा। " सतीदेवी ने आँखें बंद की और ध्यान में लीन हो गयी।
शिवानी और राशि बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करने लगे। इतने में, मृणालिनी की काली परछाईं, जलते हुए बरगद के पेड़ से निकली और शिवानी की तरफ बढ़ी। उसने अपने लम्बे, खूँखार नाखून, शिवानी की गर्दन में गाड़ दिए। शिवानी दर्द से कराह उठी।
"छोड़ दो मेरी, दीदी को।" राशि ने शिवानी को मृणालिनी के चंगुल से छुड़ाने की कोशिश की।
मृणालिनी ने उसे ज़मीन पर पटक दिया और शिवानी पर नखों से वार करने लगी।
"हमारी रक्षा कीजिए, सतीदेवी।" अपनी बहन की दुर्दशा देखकर राशि ज़ोर से चिल्लाई।
"वो हार !" सतीदेवी ने झट से आँखें खोली और शिवानी से कहा, "तुम्हारा वो खानदानी हार ही सारे फसाद की जड़ है। उस नष्ट कर दो, शिवानी। ये यक्षिणी भी नष्ट हो जाएगी। "
ये सुनते ही, शिवानी ने अपना हार उतारा और उस आग में फेंक दिया। हार के नष्ट होते ही यक्षिणी भी ग़ायब हो गयी और आग भी बुझ गयी। केवल इतना ही नहीं, बरगद का पेड़ भी फिर से हरा - भरा हो गया। बस, उसकी कोटर में अब मृणालिनी के शरीर के स्थान पर सिर्फ राख थी।
"वो हार मृणालिनी के लिए बनवाया गया था।" सतीदेवी बोली, "इसलिए, उसकी आत्मा उस हार से बँध कर रह गयी। वो हार किसी और को मिले, ये उससे बर्दाश्त नहीं होता था। अब वो हार नहीं रहा, इसलिए उसे भी मुक्ति मिल गयी।"
सतीदेवी ने कोटर से मृणालिनी की राख निकाली और शिवानी को देते हुए कहा, "इसे गंगा में विसर्जित कर देना।"
जाने से पहले, सतीदेवी ने शिवानी और राशि के सर पर हाथ रखा और कहा, "मंगल भव !"
उनका आशीर्वाद लेकर वे दोनों ख़ुशी-ख़ुशी घर लौट आयीं।