अधूरी चाहत
अधूरी चाहत


रेलगाड़ी की खिड़की से आते ठंडी हवा के झोंकें, मेरे गालों पर हल्की सी थपकियाँ दे रहे थे ।शायद, इसी वजह से मेरी नींद टूट गयी ।आँख खोल कर देखा तो रात के आठ बज गए थे ।मैं हर रोज़ इसी वक़्त, इसी ट्रैन से ऑफिस के वापस घर लौटा करती थी ।माँ को मेरा बाहर काम करना बिलकुल भी पसंद नहीं था ।उनका मानना था की उनकी पींठ पीछे समाज उन्हें ताने दे रहा होगा की वे बेटी की कमाई पर गुज़ारा कर रहीं है ।मुझे आज तक समझ नहीं आया की बेटी अगर आय कमाकर लाये तो उसे ये समाज घृणा की दृष्टि से क्यों देखता है ? माता-पिता अपनी बेटियों का भी तो भरण -पोषण करते हैं, उन्हें पढ़ाते -लिखातें है ।फिर, जब बेटी अपने पैरों पर खड़ी हो जाये, तो अपने माता -पिता के प्रति अपना कर्त्तव्य क्यों नहीं निभा सकती ? पर, नियम तो यही है की अगर समाज में रहना है तो समाज के बनाये नियमों का पालन आंखें मूँद कर ही करना होगा।
अब समाज का अगला नियम यह है बेटी पराया धन होती है ।इसलिए, उसकी शादी जल्दी से जल्दी कर के उसे ससुराल भेज दिया जाना चाहिए ।मेरी माँ भी गत कुछ वर्षों से इसी कोशिश में जुटी हुईं थी ।पर मैं ही हर बार कोई न कोई बहाना बना कर टाल देती थी ।पिछले हफ्ते ही एक रिश्ता आया था तो माँ को बहुत भा गया था ।जब मैंने फिर से इंकार कर दिया, तो माँ के क्रोध की कोई सीमा ना रही ।
"देख, पूनम," माँ आग -बबूला होकर बोली, "मैं अच्छी तरह जानती हूँ, तेरे मन में क्या है ? तू ये मत समझना की तू इस तरह हर रिश्ता ठुकराएगी तो हम तुझे तेरे मन की करने देंगे ।अगर, तेरी शादी होगी तो हमारी ही बिरादरी के किसी अच्छे खानदान में ही होगी ।ये बात तू जितनी जल्दी समझ ले, उतना अच्छा होगा तेरे लिए ।"
माँ के कहे वो शब्द बार - बार मेरे मन में बिजली की तरह कौंध रहे थे की तभी मुझे ऐसा लगा, मुझे किसी ने मेरा नाम लेकर पुकारा ।वो आवाज़ जितनी जानी पहचानी थी, उतनी ही भूली- बिसरी भी थी ।मैंने तो उम्मीद ही छोड़ दी थी की इस जीवन में फिर कभी दोबारा मैं वो आवाज़ सुन पाऊँगी ।मैं चौंक गयी और मैंने फ़ौरन मुड़ कर देखा ।
"अरमान !" मेरे मुँह से वो नाम खुद-ब-खुद निकल पड़ा ।
मेरे ठीक पीछे अरमान खड़ा मुस्कुरा रहा था ।वो आसमानी रंग की शर्ट पहने हुआ था ।वो रंग उस पर खूब जचता था ।मैं उससे पूरे दस सालों बाद मिल रही थी ।इन दस सालों में वो और भी आकर्षक लगने लगा था ।
"कहाँ जा रही हो ?" अरमान ने पूछा और मेरे सामने की सीट पर आकर बैठ गया ।
"वापस घर," मैं बस उसे देखे जा रही थी, "मैं सायलपुर में एक कंपनी में काम करती हूँ ।"
अरमान और मैं स्कूल के दिनों में एक ही कक्षा में पढ़ते थे और एक दूसरे के बहुत अच्छे दोस्त थे ।दसवीं कक्षा तक पहुँचते - पहुँचते, हमें एक-दूसरे से प्यार भी हो गया था ।पर हमारी किस्मत में जुदाई लिखी थी ।उस वक़्त जो अलग हुए, सो अब मिल रहे हैं।
"तुम अब भी किशनपुर में ही रहते हो ?" मैंने अरमान से पूछा।
"हाँ," अरमान मुस्कुराते हुए बोला, "माँ - बाबा वहीँ रहतें हैं ।मैं अमेरिका में काम करता हूँ ।दिवाली अपने परिवार के साथ मनाना चाहता था, इसलिए एक हफ्ते की छुट्टी लेकर आ गया ।दो दिन बाद वापस जा रहा हूँ ।"
"फिर कब यहाँ आओगे ?" उसके दोबारा मुझे छोड़ कर चले जाने की बात से मेरे मन में दर्द उठा ।
"अब कभी वापस नहीं आऊंगा।" अरमान का मुस्कुरता हुआ चेहरा अचानक से गंभीर हो गया ।
"क्यों ?" मुझे उसकी ये बात बड़ी अजीब लगी।
"हमेशा के लिए वहीँ बस जाने का इरादा है।" वो फिर से मुस्कुराया ।
"लेकिन, अरमान... "इससे पहले की मेरी बात पूरी होती, सीटी की आवाज़ सुनाई दी और ट्रैन स्टेशन पर जा रुकी ।मैंने घडी देखी, रात के साढ़े-आठ बज चुके थे ।
"मुझे अब जाना होगा, अलविदा।" अरमान उठा और ट्रैन से उतर गया ।
वो वहीँ स्टेशन पर की खड़ा रहा जब तक ट्रैन ने अपनी यात्रा दोबारा न शुरू की ।हम दोनों ने फिर एक दूसरे से कुछ न कहा, बस खामोशियों की जुबां में ही बात होती रही ।जब स्टेशन से ट्रैन छूटी तो मैं उसे तब तक देखती रही, जब तक वो आँखों से ओझल न हो गया ।फिर मेरी आँखों से आंसूओं की बरसात होने लगी ।काश, हमारा समाज इन ऊंच-नीच, जात -पात की रेखाओं में न बटा होता, तो हम आज साथ होते ।अगर, हम मनुष्यों की सिर्फ एक ही जाती होती, तो मेरी और अरमान की चाहत अधूरी न रह जाती ।
घर पहुँच कर भी अरमान का ख्याल मुझे बार- बार व्यथित करने लगा ।दो दिन बाद वो अमेरिका वापस जाने वाला था और वो भी हमेशा के लिए ।मेरी बड़ी इच्छा हुई की उससे एक अंतिम बार मिलूं ।लेकिन, मुझे पता था की माँ को ये सब बिलकुल अच्छा न लगेगा ।इसलिए, अगले दिन मैं माँ को बिना बताये, ऑफिस जाने के बहाने अरमान के घर चली गयी ।अरमान की माँ ने मेरे लिए दरवाज़ा खोला ।
"आंटी, अरमान घर पर है ?" मैंने उनसे पूछा ।
"अरमान चला गया ।" कहते हुए उनकी आंखें भर आयीं ।
"लेकिन, वो तो दो दिन बाद जाने वाला था न ?" मुझे बड़ा अचरज हुआ ।
"बीती रात, उसे अपने एक दोस्त के घर दावत पर जाना था ।" अरमान की माँ ने अपने आंसू पोछते हुए कहा, "वो आसमानी रंग की शर्ट पहने जाने को तैयार हो गया था ।उस शर्ट में वो बहुत सुन्दर लग रहा था ।लेकिन, रात के साढ़े - सात बजे उसकी तबियत अचानक ख़राब हो गयी ।हम उसे अस्पताल ले गए ।लेकिन, आठ बजे वो कोमा में चल गया और करीब साढ़े -आठ बजे ही वो हम सबको छोड़ कर चला गया ।"
"क्या ?" मैं खुद से ही बड़बड़ायी, "ऐसा कैसे हो सकता है ? मैं कल रात को ही तो उससे ट्रैन में मिली थी वो भी रात के ठीक आठ बजे ।"
समय का ध्यान आते ही मुझे सारी बात समझ आ गयी ।कहते हैं, कोई चाहत अधूरी रह जाये तो आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती ।अरमान की मुझसे मिलने की चाहत अधूरी थी ।वो उसी को पूरी करने के लिए उस रात आया था ।और वो चाहत पूरी होते ही, ठीक साढ़े -आठ बजे, वो अलविदा कह कर हमेशा के लिए चला गया ।मेरी आंखें फिर से बरस पड़ीं ।घर में अरमान की एक तस्वीर लगी हुई थी, जिसने में वो आसमानी रंग की शर्ट पहने हुए, अब भी मुस्कुरा रहा था ।