घर की रामायण
घर की रामायण
त्रिपाठी जी बड़े बेचैन थे। रात के साढ़े - ग्यारह बज चुके थे, लेकिन उनकी बूढी, उदास आँखों से नींद ने तो जैसे नाता ही तोड़ दिया था। और इसकी वजह थी, उनकी औलादें। सत्तर वर्षीय त्रिपाठी जी के दो बेटे थे। उनका बड़ा बेटा राघव जब बारह साल का था, तब उनकी धर्मपत्नी का स्वर्गवास हो गया। एक साल बाद, उन्होंने दोबारा शादी कर ली। विवाह के एक वर्ष बाद, उनके छोटे बेटे अनुज का जन्म हुआ। अब वे दोनों और उनका परिवार, त्रिपाठी जी के साथ ही रहते थे। पिछले साल, त्रिपाठी जी की दूसरी पत्नी भी ईश्वर को प्यारी हो गयीं। कहने को तो त्रिपाठी जी, अपने बेटों, बहुओं और पोते - पोतियों के साथ रहते थे। लेकिन फिर, भी वे काफी अकेलापन महसूस किया करते थे। पिछले कुछ दिनों से ये अकेलापन और ज़्यादा बढ़ गया था। इसकी वजह ये थी की त्रिपाठी जी को इस बात का आभास हो गया था की दोनों भाइयों में बहुत जल्द कुरुक्षेत्र का युद्ध होने वाला है।
त्रिपाठी जी का कमरा, उनके दोनों बेटों के कमरों के ठीक बीच में था। करीब आधी रात का वक़्त हुआ होगा की तभी उन्होंने अपनी बड़ी बहु राशि को, अपने पति राघव के कान भरते सुना।
"सुनो जी," राशि गुर्राई, "कल सुबह ही बाबूजी से बात कर लो और रामगंज की ज़मीन अपने नाम करवा लो। देवर जी और ऋतु भी उस ज़मीन पर नज़र गड़ाए बैठे हैं। आप तो साल - दो साल में रिटायर हो जाओगे। फिर, हमारी बेटी दिव्या के लिए दहेज़ कहाँ से आएगा ? मैं तो कहती हूँ की गाँव में बाबूजी की टूटी- फूटी, पुरानी कोठी हैं न, उसे देवर जी के नाम करने की बात, उनके कान में ड़ाल दो। और रामगंज की ज़मीन बेचकर, दिव्या के दहेज़ का इंतज़ाम कर लो। देवर जी हैं तो आपके सौतेले भाई ही, न। चाहे कितना भी प्यार कर लो, सौतेला रहता हमेशा सौतेला ही है। अपना खून, अपना होता है। आप सिर्फ अपनी बेटी और उसके भविष्य की चिंता करो। "
राघव ने राशि की बात पर रज़ामंदी की मोहर लगायी और खर्राटे भरने लगा। त्रिपाठी जी का दिल ज़ोरों से धड़कने लगा। उन्होंने करवट बदली तो अपनी छोटी बहु ऋतु को अनुज के कान में फुसफुसाते सुना।
"देखो, अनुज जी," ऋतु ने बड़े रोमंटिक अंदाज़ में कहा, "कब तक तुम, एक छोटी - सी कंपनी में क्लर्क की नौकरी करते रहोगे ? मेरी बात मानो और बाबूजी से जाकर कहो की वो रामगंज वाली ज़मीन तुम्हारे नाम कर दें। उसे बेचो और उन पैसों से कोई बिज़नेस शुरू कर लो। तुम्हारी अच्छी कमाई होगी तो ही हम अपने बेटों को शहर के अच्छे स्कूल भेज सकेंगे, न। पढ़ -लिख जायेंगें, अच्छी नौकरी करने लगेंगे तो ही कल हमारे बुढ़ापे की लाठी बन पायेंगें न, हमारे बेटे। जेठजी की तो अच्छी - खासी सरकारी नौकरी है। दो साल बाद जब रिटायर होंगे, तो प्रोविडेंट फण्ड के नाम पर तगड़ी रकम हाथ आ जाएगी। बाबूजी से कहो की पुरानी कोठी उन्हें दे दें। उसकी मरम्मत करवाने के पैसे, भला हमारे पास कहाँ हैं ?"
अनुज ने ऋतु के सुर में सुर मिलाया और जल्द ही खर्राटों का राग अलापने लगा। बेचारे त्रिपाठी जी को अब इस बात का पूरा विश्व
ास हो गया था की कल उनके घर में महाभारत होकर ही रहेगी। उन्होंने पूरी रात आँखों-ही- आँखों में काट दी।
* * *
अगली सुबह, राघव नहा - धोकर तैयार हो गया। उसने सोचा, बाबूजी से ज़मीन - जायदाद की बात करने से पहले, पूजा - पाठ कर लिया जाये। शुभ काम से पहले, ईश्वर को याद कर लेना चाहिए न। वो सीधे पूजाघर गया, दिया जलाया और हाथ जोड़कर पूजा करने लगा। तभी उसकी नज़र, मंदिर में लगे राम और लक्ष्मण की तस्वीर पर पड़ी। उसने सोचा, श्रीराम को तो माता कैकयी ने वनवास दे दिया था। लेकिन, लक्ष्मण चाहते तो अयोध्या में ही रहकर राजमहल का सुख भोग सकते थे। लेकिन उनके लिए अपने बड़े भाई के प्रेम से बढ़कर और कुछ नहीं था। राजमहल का सुख तो दूर की बात है, वो तो अपनी प्रिय पत्नी को भी छोड़कर, अपने भाई के प्रति अपना कर्त्तव्य निभाने निकल पड़े। थे तो वो दोनों भी सौतेले भाई ही। भगवान राम ने भी तो अयोध्या का राज-पाट, जिस पर उनका अधिकार था, ख़ुशी - ख़ुशी अपने भाई भरत को दे दिया। था तो वो भी उनका सौतेला भाई। राघव को एक बात समझ में आ गयी। स्वार्थ और लोभ से घर में महाभारत छिड़ जाती है, लेकिन त्याग और प्रेम से रामायण की सत्ता स्थापित हो जाएगी।
राघव, त्रिपाठी जी के कमरे के सामने से होकर, सीधा अनुज के कमरे में गया। त्रिपाठी जी समझ गए की कुरुक्षेत्र के युद्ध का बिगुल बज गया है। उनकी बेचैनी बढ़ गयी और वे पसीने से तर हो गए।
"अनुज," राघव बोले, "रामगंज की ज़मीन तू रख ले। उसे बेचकर कोई अच्छा बिज़नेस शुरू कर लेना। तू कब तक, ये छोटी - मोटी नौकरी करके घर चलाएगा ?"
"नहीं, भैया," बड़े भाई का त्याग देखकर अनुज को अपनी छोटी सोच पर बड़ी शर्म आयी। "वो ज़मीन आप रख लो और उसे बेचकर दिव्या बिटिया की शादी करवाओ। मैं, अपने बिज़नेस के लिए कहीं और से उधार ले लूंगा। "
"चल पगले ! अपनी ज़मीन होते हुए तुझे पैसे उधार लेने की क्या ज़रुरत है ?" राघव ने अनुज को डांटा, "मेरे प्रोविडेंट फण्ड के पैसों से दिव्या की शादी हो जाएगी। "
"अपने प्रोविडेंट फण्ड के सारे पैसे बेटी की शादी पर खर्च कर दोगे तो रिटायरमेंट के बाद का जीवन कैसे काटोगे, भैया ?" अनुज परेशान हो गया, "आपका तो कोई बेटा भी नहीं है, जो बुढ़ापे में आपका सहारा बने। "
"तू एक काम कर, ज़मीन बेचकर बिज़नेस शुरू कर," राघव ने थोड़ा सोचकर एक उपाय ढूंढ निकाला। "जब तेरा बिज़नेस चल पड़े, तो उन पैसों से दिव्या की शादी करवाना। दिव्या, क्या तेरी बेटी नहीं है ? और रही बात मेरे बुढ़ापे की लाठी की, तो उसके लिए तेरे विहान और विशाल हैं, न | वो दोनों, क्या मेरे बेटे नहीं हैं ?"
"भैया !" ये बात सुनकर अनुज की आंखें भर आयीं।
राघव ने अनुज को गले से लगा लिया। पास के कमरे में त्रिपाठी जी अपने बेटों की सारी बातें सुन रहे थे। उन्होंने अपने आंसू पोछे, चादर तानी और चैन की नींद सो गए। घर में महाभारत छिड़ने के डर से, वो पिछली रात ठीक से सो नहीं पाए थे।