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Arun Gode

Abstract

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Arun Gode

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महादानकर्ता

महादानकर्ता

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एक सरकारी कार्यालय में बहुंत सारे कर्मचारी कार्यरत थे। उन कर्मचारियों में एक अनोखा कर्मचारी था। कर्मचारी दिखने में कॉफी रुवाबदार था। वह मृदु-भाषी और सभी से अच्छे संबंध रखने में माहिर था। कभी किसी से कोई पंगा नहीं लिया करता था। किसी के साथ कभी कोई अनादर व्यवहार नहीं किया करता था। किसीने किया तो भी वह बहुंत नाराज नहीं होता था। वह अपने काम में भी पारंगत था। वह लग-भग़ सभी अच्छे गुणोंका एक भंडार था। लेकिन इन सब बातों के अलावा उसकी सबसे बडी कमजोरी कंजुसी थी। उसे कार्यालय के सभी सहकर्मि महा-कंजुस के उपाधी से नवाजा करते थे। लेकिन उसे उसमें कोई बुराई नजर नहीं आती थी। वो उसके लिए गौरववाली बात थी। जिंदगी में उसने कभी किसी सहकर्मिको स्वयं के प्रशंसा में, उसके कोई उपलब्धी के लिए कभी एक चाय पिलाई होगी !। ऐसा कोई शख्स ऐसा दावा करनेवाला कार्यालय में नहीं था।

उसे सट्टा-पट्टी खेलने का गहरा शौक था। उस खेल का वह नामी खिलाडी था। उसके इस काबिलियत के लिए उसके कई चाहनेवाले कार्यालय और कार्यालय के बाहर अनेक दोस्त थे। वह कॉफी लोकप्रिय था। सट्टा-पट्टी खानेवाले कारोबारियों में उसकी अच्छी साख बनी थी। उसे सट्टा-पट्टी के धंदेवाले उधारी में भी सट्टा-पट्टी खेलने दिया करते थे। बेईमानी के धंदे में भी ईमानदारी होती हैं। वह उधारी का भी भुगतान अकसर किया करता था।

इस धंदे में उसने कुछ शुरुआती पुंजी लगाई थी। उसी पुंजी की उला-ढाल करके वह अपना परिवार चलाता था। उसीसे प्राप्त आय से वह ऐशो-आरामकी चींजे भी खरिदता था। उस जमाने में वह हीरो-होंडा जैसी मोटर-सायकल का उपयोग करता था। उसका उपयोग वह अकसर वो धंदेके लेन –देन में ज्यादा करता था। उसे ,जब कभी अपने स्थापित तंत्र के अनुसार सट्टा-पट्टी का नंबर मिल जाता था। उसे लगाने के लिए वह देखते- देखते कार्यालय से नौ-दो-ग्यारा हो जाता था। कभी-कभी उस धंदे में उसे मंदी का भी सामना करना पडता था। जब कभी वह उधारी की राशी लौटाने में असमर्थ हो जाता था। तभी सट्टा-कारोबारी उसके घरसे किंमती वस्तुऐं उठाकर ले जाते थे। लेकिन उसे उस बातका बुरा नहीं लगता था। उसका कहना था कि धूप-छाव तो आती-जाती रहती हैं। जो मोह-माया में अटकेगा वो भटकेगा !।

वह अपनी तनख्वा ज्यादातर बैंक में ही जमा किया करता था। उस जमा-राशीसे कभी छेड-छाड नहीं किया करता था। उसका घर खर्च धंदेमें जो पैसा डाला था। उसीसे चलाता था। उसका परिवार भी था। उसे दो सुंदर लडकीयाँ भी थी। लेकिन उसका परिवार ज्यादातर महकेमें ही रहता था। परिवार और बच्चें उसके कंजुस आदत के कारण परेशान रहते थे। उसकी पत्नि उसके परिवार के प्रति उदासिन व्यवहार से बहुंत खिन्न रहती थी। वह बहुंत बार अपने घर एक मेहमन की तरह आती और तुरंत महके चली जाती थी। उसने कंजुसी के कई रेकार्ड उसके अपने नाम पर दर्ज किए थे।

कार्यालय में एक परंपरा स्थापित थी। जब कभी कार्यालय में कोई सार्वजनिक या किसी सहकर्मिके घरमें कोई कार्यक्रम होने पर सभी सहकर्मियोंसे निश्चित चंदा या अंशदन लिया जाता था। जब कभी जमाकर्ता उस कर्मचारीसे अंशदान की मांग करता था।वह उसे बडे प्यार से अपने पास बिठाकर उसे ये समझाता था कि आज वह कैसा अपना बटवाँ लाने का भूल गया था। उसे वह आशवस्त करता था कि वह उसे स्वयम मिलकर अंशदान देगा !। उस जमाकर्ता को भी पता रहता था कि साहब कभी उसे पैसे लाकर नहीं देगें। गलती से अगर आमना-सामना उसके बाद हुंआ तो वह नजरे चुराकर वहाँ से ऐसे निकल जाता कि उसे बडा महत्वपूर्ण कार्यालयीन काम-काज आन पडा हैं। ऐसे उसके पास कई टोटके पैसे नहीं देने के विद्दामान थे। 

लेकिन उसकी खासियत थी कि किसी भी कार्यक्रम में वह बिना चुके और समयापर हाजिर रहता था। उस कार्यक्रम में वह इस तरह से घुल-मिल जाता, मानो वह उस कार्यक्रम या परिवारका एक महत्वपूर्ण अंग हो। उसकी एक विशेषता थी कि जैसे ही दावत शुरु होने के आसार उसे नजर आते थे। वह, वहाँ सर्वप्रथम हाजिर रहता था। कई अवसरों पर तो वह मुख्य दावत का शुभारंभ -कर्ता बन जाता था। उसकी इस आदतकी कभी-कभी उसके सहकर्मि मजाक भी उडाते थे। उसका वह कभी बुरा नहीं मानता था। उलटा वह ये समझाने की कोशिष कर्ता था कि वह कैसे सही हैं। उसके लिए वह कई तर्क-वितर्क उनके सामने पेश करता था। जब आयोजन कर्ताने हमे दावत में बुलाया हैं तो हमे उसके मेहमान नवाजीका सम्मान करना चाहिए। उस में संकोच करने का क्या तात्पर्य हैं ?। प्रकृतिने हम सभीको पेट इन सभी बातों का लुप्त उठाने के लिए दिया हैं। तो हमे प्रकृती के वरदान का भी सम्मन करना चाहिए। शुरु-शुरु में सभी पदार्थ दावत में विपुल मात्रा में उपलब्ध रहते हैं। इसलिए हम अपने मन-पसंद चिजों का भरपुर आनंद आराम से उठा सकते हैं। जल्दी खा-पिकर हम औरोके लिए जगह खाली करके अपने दैंन-दिन कार्य को भी निपटा सकते हैं। गर्दि कम होने से हमारे अच्छे साफ-सुतरे कपडे भी दाग-धब्बों से गंदे होनेसे बच सकते हैं। अगर गलतीसे नऐं कपडे गंदे हुयें तो , हमरा अच्छा-खासा मूड भी बिघड जाता हैं। और हम जीस खुशिसे कार्यक्रम में आते हैं, जाते समय मायुस या मुंह लटाका के जाते हैं। उसके इस तर्क से सभी सहमत हो जाते थे।

कार्यालय में एक और रिवाज था। जब कभी कार्यालय का कर्मचारी सेवा-निवृत्त होता था। वह स्वयम अपने तरफसे खुशिसे अपनी क्षमतानुसार अपने सहकर्मियों के लिए स्नेह भोज देता था। उसका कार्यालय के कर्मचारियों द्वारा सत्कार समारोह भी किया जाता था। जिसामें उसे कार्यालय से एक यादगार भेट भी दी जाती थी। उसके साथी, उसके साथ जो सफर, अनुभव, किस्से उन्होने अनुभव किये थे। वे उसे सबके सामाने बयान किया करते थे। सत्कारमूर्ति भी अपने विचार व्यक्त करके सभी को उनके अथांग सहयोग के लिए धन्यवाद दिया करते था।

वो दिन इस कथानायक का भी आया था। जैसे सभी को उम्मीद थी कि साहब स्नेह भोज का शायद ही आयोजन करेगें !। वो उनकी भविष्यवाणी सौ-प्रतिशत सही निकली थी। फिर भी कार्यालय के तरफसे उसका सत्कार समारोह का आयोजन किया गया था। बिना दुजा-भाव करते हुयें उसे भेट वस्तु भी प्रदान की गई थी। जिसे उसने बडे सम्मान और आदर के साथ ग्रहन किया था। परंपरानुसार एक वकताने अपने विचार रखना शुर किया था। अभी उसने सबका ध्यान-आकर्षन करनेवाला विचार श्रोताओं के सामाने रखा था। जीवन में अगर आर्थीक संपन्नता प्राप्त करना हो, तो आज के सत्कारमूर्ति के पदकमलों पर चलना आवश्यक हैं। जीस तरहसे इन्होने अपनी सभी जिम्मेदारीयाँ सेवा निवृति के बहुंत पहिले पुरी कर ली थी। आज अगर सरकार सेवानिवृत्ति वेतन भी बंद कर दे, तो भी आजकी सत्कार-मूर्तिको कोई फरक नहीं पडेगा 1। आज इनकी आर्थीक संपन्नता इतनि सक्षम हैं कि ये सरकार को लोन दे सकते हैं। आर्थीक प्रबंधन के गुर हम निश्चित ही आज के सत्कार-मूर्ति से सिक सकते हैं। उसके इस विचारों से सत्कारमूर्ति गद-गद और प्रसन्न हो चुके थे।

 उसी थीम को आगे बढाते हुयें, दुसरे वकताने बोलना शुरु किया था। उसने कहाँ कि दुनिया के इतिहास में कई दाणी हो चुके हैं। जैसे राजा हरिशचंद्र, महान योध्दा महाकाय कर्ण, हैदाबाद के नवाब जिन्होने प्रधान मंत्री के आवहान पर युध्द के दौरान देश के सुरक्षाके लिए अपना खजिना लुटा दिया था। इन सभी महादानीयों ने अपने निजी स्वार्थ हेतु ये कार्य खुदको इतिहास में अमरत्व प्राप्त करने हेतु किया था। ताकि जब किसी दाणी कि चर्चा हो उन्हे याद करेगें !। आज अपने कार्यालय में कई कर्मचारी, चार लोग उनकी तारिफ करे इसलिए उन्हे खुश करने हेतु पैसा खर्चा करते हैं। कोई बडे-बडे आयोजन इसलिए करता हैं कि वह अपनी ऐहसिहत दुसरे को दिखाना चाहते हैं। ताकि वो सभी उसके सामने दुय्यम दर्जेके सहकर्मि बन जाए और उसके तारिफमें कशिदे पढता फिरे !। लेकिन हमारे आज के सत्कारमूर्तिने जीवन भर सहकर्मियोंसे उसके व्यवहार के लिए आलोचना सही हैं। उसका कई अवसरों पर मजाक भी उडया गया और अपमानित भी किया गया था। उसे हमेशा बुरी नजरसे देखा नहीं बलकी घुरा गया था। उन्होने अपने मन और तन के भाबनाओं को हमेशा खुंटी को बांध कर रखा था। जाने –अजाने में उसने इन अमानवीय व्यवहारको हर दिन में कितने बार दुःख और निंदा को झेला होगा ?। तभी आज वह हमारे सामने एक धनवान की तरह उंची ऐठी हुई गर्दन तानकर बैठा हैं। उसकी आनेवाली सात पुश्ते अभी ऐश करेगी !। ये दाणी नहीं बलकी महादाणी हैं। हमारी खुश-किसमती हैं कि ऐसे महान माहादाणी का सहवास हमें इस जीवन में प्राप्त हुआ हैं। शायद यह हमारे पिछले जन्म का पुन्य ही जो हमारे काम आया हैं। हम सभी उनके दिर्घ-आयु के लिए निले -छत्रीवाले से प्रार्थना करते हैं। इसी के साथ उस वक्ता ने अपने विचारों को विराम दिया था।


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