मेरी माँ - कितना अधिक चाहती है
मेरी माँ - कितना अधिक चाहती है
आरंभ से ही आरंभ करना उचित होगा। अबोध से मैं जब सुबोध होने लगा, मैंने, मिला घर भरापूरा पाया था। मुझे सब के बीच माँ का सामीप्य उनका दुलार ज्यादा सुहाता था। घर में भाई-बहन भी थे, मेरी माँ को बच्चों, घर, परिवार, समाज और धर्म के दायित्व देखने होते थे। इन सब के बीच उन्हें समय कम होता था। मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो देखा वे सभी से थोड़ी ज्यादा सरल एवं शांत चित्त थी। उन्हें गुस्सा या चिड़चिड़ाते मैंने कभी नहीं देखा था। यह सब तो तब शायद हर माँ और हर गृहणी की विशेषता होती थी।
समय बीतते गया और जब मुझे चीजें और स्पष्ट दिखने लगी तो मैंने अनुभव किया कि उनमें, एक ऐसी विशेषता थी जो मुझे परिवार-नातेदार में किसी और में दिखाई नहीं पड़ती थी। वह उनकी निशर्त जीवन शैली थी।
’उनको घर परिवार, पास पड़ोस और समाज में सभी की शर्त स्वीकार्य होती थी जबकि ऐसा करते हुए उनकी अपनी कोई शर्त नहीं होती थी।’
आज जब मैंने जगत देख लिया अब मुझे समझ आता है कि यह बात साधारण नहीं होती। मेरी माँ, यूँ तो देखने में एक साधारण मनुष्य ही समझी/कही जायेगी। मगर वे साधारण नहीं असाधारण हैं। ‘कोई आसान खेल नहीं अपने अस्तित्व को औरों के अस्तित्व में विलोपित कर देना। वह भी कुछ पल या कुछ दिन नहीं, अपितु संपूर्ण जीवन में यही कर दिखाना।’
वे कुछ अपवाद रहे मनुष्य में समाविष्ट हैं। उनकी सरलता, सहजता, शांत चित्तता और निशर्त जीवन शैली के जीवन में, मैंने कभी कभी थोड़ा अपवाद देखा हैं। उनका अपना मायका ऐसा था, जिसमें उनके पिता और उनके बड़े भाई, उनकी आठ वर्ष की उम्र तक ही चल बसे थे। तब हमारी नानी और मेरी माँ का जीवन यापन, हमारे मौसा जी के परिवार के साथ होता था। बचपन में वहाँ नानी जी, मौसा जी एवं मौसी जी को मिलने पर हमें पता चलता था कि मेरी माँ में ये विशेषतायें कैसे आयी थी।
अपवाद की जो बात मैंने की हैं, यहाँ उनके मायके में मेरी माँ में हमें देखने मिला करती है (अब जब नानी जी, मौसा जी एवं मौसी जी नहीं हैं तब भी)। ललितपुर उनका मायका है। जहाँ होने पर उनके स्वर और व्यवहार में कुछ अधिकार बोध का होना प्रकट होता है। यहाँ परिस्थिति से सभी साधारण किंतु विचार और आचरण से महान, हमारे अपने, निवासरत रहे/हैं। जिन्होंने मेरी माँ को हृदय से यथोचित आदर और अनुराग दिया हैं। मुझे यह देख कर प्रसन्नता होती हैं, मेरी माँ के जीवन में अपने लिए रही थोड़ी शर्तें कभी कभी यहाँ होकर पूरी होती रहीं हैं।
मैं फिर स्वयं पर और मेरी माँ की चर्चा पर लौटता हूँ। वे स्वयं धार्मिक संस्कार में पली बड़ी होने से, हम बच्चों से (हम चार भाई-बहन हैं) भी उनकी अपेक्षा धार्मिक पाठ को पाठशालाओं में जाकर समझना और कंठस्थ करने की होती थी। मेरे भाई-बहन इन अपेक्षाओं पर खरे थे, मगर मेरी पढ़ने में रूचि कम रही हैं अतः मैं यह नहीं कर पाता था। बाद में मैं इंजिनीयरिंग पढ़ने बाहर रहा और फिर बाहर ही सर्विस करने लगा धार्मिक क्रम में, मैं जो पिछड़ा, वह पिछड़ापन मेरा आजीवन बना रहा हैं।
पाँच वर्ष हुए हमारे पिता जी का साया हम सब पर से उठ गया। माँ, तब से नित कमजोर होती गईं। अब पिछले दो वर्ष से जोड़ों की अकड़न से वे बिस्तर पर हैं। मेरे छोटे भाई के परिवार में उनकी यथोचित देखभाल और सेवा हो रही हैं। उनका वजन अब 25-30 किलो से ज्यादा नहीं रह गया हैं। लेकिन उनमें विपरीत शारीरिक स्थिति में भी विशेषतायें बनी हुईं हैं। वे सिर्फ एक समय भोजन ग्रहण करती हैं। लगभग पूरे समय मोक्षमार्ग का ध्यान करती हैं। शिथिल शारीरिक स्थिति में भी वे मानसिक रूप से पूर्ण सक्रिय हैं। जीवन भर पढ़े-गुने, धार्मिक पाठ का स्मरण उनका सदा बना रहता हैं।
उनका जीवन एक कमरे में सिमट गया हैं मगर उसमें भी उनकी कोई शर्त नहीं हैं। उनसे कोई अलग किस्म की बात करें उसमें उनकी कोई रूचि नहीं हैं। मेरी बड़ी बहन वडोदरा में हैं उन्होंने इस बात को समझा हैं। वे नित दिन फोन पर उन्हें कोई कोई धार्मिक पाठ सुनाती हैं। मेरी बहन जो सुनाती हैं उन्हें सब याद हैं फिर भी वे आनंद पूर्वक सुनती हैं।
उपरोक्त में जैसा मैंने लिखा धार्मिक क्रम में मैं उनका पिछड़ा हुआ बेटा हूँ। मैं दूर से उनके लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाता हूँ ( जब मैं सपत्नीक इंदौर जाता हूँ तब हम उनकी सेवा सुश्रुषा कर पाते हैं )। मुझे लगभग दो महीने पहले अहसास हुआ कि उन्हें यदि धार्मिक पाठ मैं भी सुनाऊँ तो उन्हें ज्यादा प्रसन्नता होगी। तब से मैं प्रत्येक अवकाश के दिन 1 घंटे उन्हें धार्मिक पाठ सुनाने लगा हूँ। उन्हें इससे बहुत ख़ुशी होती हैं। वे मेरे अवकाश के दिन में मेरे मोबाइल कॉल की प्रतीक्षा करती हैं।