मेरी क्या गलती है।
मेरी क्या गलती है।


दिनेश अपनी सूनी-सूनी आंखों से छत को घूर रहा था। छत पर उसे कोई क्रोध हो, ऐसा नहीं था। फिर भी वो छत को घूर रहा था। क्योंकि उसकी आंखों में छत नहीं थी। उसकी आंखों में कुछ भी नहीं था। एक शून्य बसा था उसकी आंखों में। और उस शून्य का साथ दे रहे थे उसके वे आंसू जो अब सूख चुके थे। उसके कानों में अब तक वो आवाज गूंज रही थी जो उसकी आठ साल की बेटी गुंजा ने पीड़ा से कराहते हुए अपनी मां माधुरी से कहा था- "मम्मी, बहुत दर्द हो रहा है।"
और उसकी पत्नी ने बेटी गुंजा के सिर पर हाथ फेर कर सांत्वना देने की असफल कोशिश की थी। दिनेश की आंखों में छत नहीं थी। अनन्त आकाश की और उस आकाश में बसी केवल उसकी बेटी की छवि थी। वो छवि जो आज दो माह के बाद भी हजार कोशिशें करने के बावजूद भी मिटाये नहीं मिट रहीं थीं। उसकी आंखों में तैर रही थी गुंजा की वो छवि जब उसने अपनी बुझती हुई आंखों से उसे देखा था। उसकी आंखें जैसे कह रहीं थीं-
"पापा, मेरी क्या गलती थी।"
और वो चाह कर भी कुछ नहीं कह पाया था। क्या कहता वो उससे कि तेरा लड़की होना ही तेरी गलती थी। दिनेश की आंखों में वो पल भी कौंध गया जब उसने पहली बार अपनी बेटी को गोद में लिया था। उसके नन्हें-नन्हें हाथ-पैर, नन्हीं-नन्हीं उंगलियां, छोटी सी नाक, छोटे-छोटे कान, छोटी-छोटी आंखें सृष्टि की सबसे बड़ी जादूगरी जैसी लगी थी। जब उसने अपनी बेटी को अपनी छाती से लगाया था तब उस नन्ही सी जान के भीतर धड़कते ह्रदय की धड़कनों ने उसके रोम-रोम में एक मधुर संगीत का संचार कर दिया था। और तब दिनेश को इतनी खुशी मिली थी कि उसके मन में केवल यही एक विचार आया कि अपनी बेटी के लिए दुनिया भर की सारी खुशियां, सारी नेमतें खरीद लाए और अपनी बेटी की झोली में डाल दें।
इस बीच माधुरी चाय लेकर आ गई।
"चाय!"
माधुरी ने बुझी हुई आवाज में कहा और स्वयं अपनी चाय लेकर सामने बैठ गई। लेकिन दिनेश को कहां होश था चाय पीने का। उसने तो माधुरी की आवाज तक नहीं सुनी। माधुरी का हाल भी कुछ ऐसा ही था। वो एक मशीन की तरह काम कर रही थी। चाय लेकर बैठी तो चाय हाथ में थमी की थमी रह गई।
दिनेश उस दिन को कोस रहा था जब वो अपने गांव से अपने एक रिश्तेदार की शादी में शामिल होने के लिए अपने परिवार के साथ चला था। तीन ही तो लोग थे उसके परिवार में। वो स्वयं, उसकी पत्नी माधुरी और बेटी गुंजा। गुंजा अपने माता-पिता की अकेली संतान तो थी ही, दोनों की आंख का तारा भी थी। तीनों राजी-खुशी अपने रिश्तेदार के घर पहुंच गए थे। शादी के उत्सव में शामिल हो गए थे। गुंजा अपने समवयसों से ही नहीं बड़े-बूढ़ों तक से हिल-मिल गई थी। जहां दिनेश का समय शादी की भाग-दौड़ और तैयारी में निकल रहा था वहीं माधुरी का समय घरेलू कामकाज, माता के भजनों और बन्ना-बन्नी गाने में, तो गुंजा का अपने समवयसों के साथ खेलने और धमा-चौकड़ी में निकल रहा था। सब कुछ हंसी-खुशी निपट रहा था। लड़की की शादी का माहौल था। हर व्यक्ति व्यस्त था। शादी का समय आया, बारात आयी, द्वाराचार हुआ, फेरे हुए। यहां तक सब कुछ ठीक-ठाक रहा। परंतु फेरे शुरू होते ही माधुरी ने दिनेश से कहा-
"सुनो जी, गुंजा कहीं दिखाई नहीं दे रही है।"
"होगी कहीं आसपास। खेल रही होगी। आ जाएगी।"
"रात के तीन बज रहे हैं। ये कोई खेलने का समय है जो खेल रही होगी।"
"तो कहीं किसी के साथ सो रही होगी।"
"यहां जितने लोग सो रहे हैं मैंने सबके पास देखा, उनसे पूछा भी न तो किसी के पास सोई है और न ही किसी को उसके बारे में कुछ पता है। मुझे बड़ी चिंता हो रही है।"
"थोड़ी देर और देख लो। उतनी देर में पता नहीं चलता तो उसे ढ़ूढ़ेंगे।"
दिनेश ने कहा तो मगर उसके मन में भी खुटका बैठ गया। उसकी आंखें उपस्थित मेहमानों के बीच गुंजा को खोजने लगीं। उसके चचेरे भाई रमेश ने पूछा भी-
"क्या बात है, कोई परेशानी?"
"हां! माधुरी कह रही थी कि गुंजा बहुत देर से दिखाई नहीं दे रही है।"
"अपने संगी-साथियों के साथ होगी।"
"उसके संगी-साथी सारे के सारे या तो यहीं पर हैं या फिर सो रहे हैं। माधुरी ने सबसे पूछा भी है, किसी को उसकी कोई जानकारी नहीं है।"
"सबसे ज्यादा वो बबलू के साथ थी। पूछो उससे। सामन
े ही तो है, बुलाओ उसे। ओए बबलू, इधर आ।"
बबलू सामने आकर खड़ा हो गया।
"गुंजा तुम्हारे साथ थी ना, अब कहां है?"
"वो तो खाना खाने तक ही साथ थी, उसके बाद से हमारे साथ नहीं है।"
"खाना तो रात में दस-ग्यारह बजे के बीच चला है। इस समय साढ़े तीन बज रहे हैं। कहां है गुंजा?"
"हमें नहीं पता।"
बबलू ने स्पष्ट मना कर दिया। अनहोनी की आशंका से दिनेश और माधुरी की आंखें बरसनी शुरू हो गई। माधुरी तो खुल कर रोने लगी। अब सभी को पता चल गया कि गुंजा घर से लापता है। कुछ लोग दिनेश को तो कुछ माधुरी को दिलासा देने में, तो कुछ लोग गुंजा को खोजने में लग गए। इस बीच दुल्हा-दुल्हन के फेरे पूरे हो गए। विदाई, पुनरागमन आदि भी हो गए। कन्या पक्ष के लोग अपने उत्तरदायित्व से मुक्त होकर पूरी तरह से गुंजा की खोज में लग गए। प्रभात हो गई। गांव-देहात का मामला। लोग-बाग दिशा-मैदान के लिए जाने लगे। बबलू और उसके दल के बच्चे भी गए। थोड़ी ही देर में बबलू और उसके दल के बच्चे बदहवास-घबराये हुए वापस आ गए। आते ही उन्होंने बताया कि उन्होंने गुंजा को गांव से बाहर महेश बाबा की आम की बारी में देखा है। इससे ज्यादा बच्चे और कुछ नहीं बता पाए। सुनते ही जैसे हलचल सी मच गई। जो जिस हालात में था, आम की बारी की तरफ भागा। दिनेश और माधुरी भी भागे। गुंजा पर दृष्टि पड़ते ही दिनेश ने 'गुंजा' कहकर चीख मारी और गश खाकर गिर पड़ा। यही हाल माधुरी का भी हुआ। उसने चीख तो नहीं मारी मगर गश खाकर गिर जरूर पड़ी। सारे रिश्तेदार इन दोनों को संभालने में लग गए। गांव के प्रधान आये। गुंजा की स्थिति देखने से ही समझ में आ रहा था कि उसके साथ क्या दुर्घटना घटी है। उन्होंने तत्काल पुलिस को सूचना दी। पुलिस आयी। अपनी आवश्यक पूछताछ करके गुंजा को सरकारी अस्पताल में भर्ती कराकर वापस लौट गई। गुंजा की मेडिकल जांच हुई। रिपोर्ट से चौंका देने वाली सूचना मिली। गुंजा से बलात्कार हुआ है- ये गुंजा को देखने से ही स्पष्ट था। मगर रिपोर्ट में बताया गया कि उसके साथ तीन लोगों ने बलात्कार किया है। बलात्कार के बाद उसके गुह्य अंग में...। (मैं पाठकों से क्षमा चाहता हूं। जो दरिंदगी हमारे समाज में चल रही है उसे लिखने में भी मेरा ह्रदय कांप रहा है।) तीन दिन तक अस्पताल में जीवन-मृत्यु का संघर्ष करके गुंजा मृत्यु से हार गई। पुलिस ने अपनी कार्रवाई की। शव का पोस्टमार्टम करवाया। दिनेश की मानसिक स्थिति कुछ भी सोचने समझने लायक नहीं थी। किसी तरह से दिनेश से कागजी कार्रवाई पूरी करवा कर, भरे मन से रिश्तेदार गुंजा के शव को लेकर आये। उसका अंतिम संस्कार करवाया।
आज गुंजा को दुनिया से गये दो महीने हो गए हैं। मगर दिनेश और माधुरी के ह्रदय का घाव अभी भी ताजा ही है। दिनेश के सामने रखी चाय ठंडी हो गई थी। माधुरी के हाथ में थमी चाय भी व्यर्थ हो चुकी थी। अचानक दोनों की तंद्रा टूटी। दोनों ने एक-दूसरे को देखा। दोनों ही घायल थे। कौन किसे समझाता। माधुरी की आंखों से आंसू टपकने लगे। दिनेश ने माधुरी को अपने सीने से लगा लिया। माधुरी और जोर से रोई। दिनेश भी स्वयं को संभाल नहीं सका। कुछ देर बाद जब आंसुओं का वेग थमा तब दिनेश ने कहा-
"माधुरी! गुंजा के बिना जीवन संभव नहीं है।"
"लेकिन हमें जीना ही होगा। चाहे जैसे भी हो। अपने लिए नहीं तो गुंजा को न्याय दिलाने के लिए।"
"गुंजा की याद भुलाये नहीं भूलती।"
""गुंजा को भूलने की जरूरत भी नहीं है। बल्कि उसकी याद मिटने लगे तो उसे हवा-पानी देकर जिंदा रखने की जरूरत है। उसकी यादों को ही अब अपनी जिंदगी बनाने की जरूरत है।"
"शायद तुम ठीक कह रही हो।"
अपनी बात
हमारा समाज पतन के किस गर्त में जा रहा है। आये दिन इस तरह की दिल दहला देने वाली घटनाएं समाचार पत्रों में प्रकाशित होती रहती हैं। वैसे तो बलात्कार ही अपने आप में एक जघन्य अपराध है। मगर छोटे-छोटे बच्चों के साथ!... कैसे हैवान होते हैं वो लोग जो इस तरह के कुकृत्य करते हैं। अपनी क्षणिक संतुष्टि के लिए ऐसे कृत्य करने के लिए उनका अंत:करण उन्हें कैसे अनुमति देता है। शायद ऐसे लोग इंसान ही नहीं होते। शायद ये पशु होते हैं। पशुओं में भी ऐसी पाशविकता नहीं होती। ये सिर्फ और सिर्फ राक्षस होते हैं।