मेरे भीतर की स्त्री
मेरे भीतर की स्त्री
भीतर उसके कोई स्त्री निवास करती है। वो संवेदना के समंदर से उपजी है, चीखती है, बिलखती है, गमजदा हो जाती है।
वो सम्भोग की अलामतों से घबरा जाती है। लगता है वो सूफ़ी है, एक बेखुदी उस पर तारी रहती है। नाचती है, झूमती है, गाती है, फूलों, बागों, पत्थरों, वादियों में घास में पड़ी आसमानों में चेहरे तलाशती।
हाँ सही है, वो किसी तलाश में है, किसी राह की, किसी मंज़र की या अंजुमन की, तलाश शायद एक हमशक्ल की। क्या मालूम।
वो सुन्दर है, दिलकश, बस हुआ यूँ एक रोज़ किसी अल्हड़ फ़कीर से सामना हो गया, तबसे उसने सारे गहने उतार दिए, सारे मजसमें तोड़ दिए उन चेहरों के जो उसकी तलाश के थे। हुआ यूँ की वो अब नयी आँखों से देखने लगी है, सहजता।
उसके भीतर बहती नदी के एक किनारे एक चिड़िया बैठी कुछ जाती रहती है, वो उस गीत में रम चल रही है। पहाड़ों, वादियों, फूलों, बागों, झीलों, जंगलों, पत्थरों, गुफ़ाओं में वो चल रही है।
क्या मालूम चिड़िया क्या गाती है और उसे क्या तारी होता है।
एक सुबह के धुँधलके में मेरे भीतर की स्त्री सामने से आती दिखी मुझको। चेहरा दिव्य ताब में चमक रहा था, आँखें बर्फ़ के ठोस पत्थर कि हलकी सी गर्म हुई की डबडबाती छलक पड़ीं।
ये देखते ही उसके भीतर गाती चिड़िया का मैंने बन्दूक से शिकार कर दिया और वो भी मर गयी, चलो अच्छा हुआ अब मुझे लोग पागल नहीं कहते।