Abhishek Misra

Others

2.5  

Abhishek Misra

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मुक्ति असंभव है

मुक्ति असंभव है

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वहाँ ऊपर एक साम्राज्य को नोचने वाले ताक रहे हैं 

एक बूढ़ी औरत और बूढ़ी होती जा रही है

कोई वापस नहीं लौट पाया है

सन्नाटे में कोई आदिम ध्वनि सुनाई देती है

उसके लिए प्रार्थना करे कोई।  

बानर एक आ रहा

गेहूँ की बालियाँ खा रहा

कोई डण्डा चला रहा

लाचार एक दूसरी औरत जिसकी कोई सुन नहीं पा रहा है

एक तीसरी औरत को कोई चीर डालना चाहता है

क्या मेरी आँख बंद है ?

लड़का एक भाग गया नाटक करने

सब व्यथाएँ वहीँ पड़ी बिलखती रहीं

राक्षस जैसे चेहरे वाले कुछ आदमी सब खाते जा रहे हैं

राख हैं आदर्श।  

मिटियामेट समाज में आँख बन्द किये मैं कहाँ भाग रहा हूँ ?

उस ऊँचे कंधे वाले लड़के को तोड़ दिया गया है

अब कहीं कोई गति नहीं है

“उसने इन सबसे अपने को बचा लिया “ - कहता है। 

“बच के भी क्या बन पाया “- मैंने कहा। 

मुक्ति असंभव है।  


 


 



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