मदद के हाथ
मदद के हाथ
रघु अपने घर बांदा से सूरत1,066 किलोमीटर दूर फैक्टरी मे काम करता था।वह अपने दो साल के बेटा एवं पत्नी के साथ फैक्टरी के द्वारा दिया गया छोटे से घर मे रहता है।कोरोना वायरस की वजह से लॉकडाउन की घोषणा के बाद फैक्टरी मालिक ने सभी मजदूरों को फैक्टरी से बिना पगार दिये ही निकाल दिया।उस पर से उन्हें जो घर रहने के लिये दिया था उन्हें खाली करने को बोल दिया गया।अब तो मजदूरों में खलबली मच गई।उसमे रघु भी एक मजदूर था...
वह निराश मन से अपनी पत्नी से बोला..."अब हमे ये घर छोड़ कर हमे गाँव जाना होगा।हमारा काम भी छूट गया हैं... मै बहुत परेशान हूँ ..क्या करू?" पत्नी के पेट में सात माह का गर्भ है वह भी रघु के साथ परेशान हो जाती है।फिर भी अपने पति से कहती हैं कि "हमलोगों को अपने गाँव ही चलना चाहिये..." वहाँ अपना बड़ा घर है खेती -बाड़ी है ...कुछ ना कुछ समस्या का वहाँ समाधान हो जायेगा।वह सभी समान वहीं छोड़ जरूरी समान लेकर रघु अपनी पत्नी एवं दो साल के बेटे को लेकर रेल पटरी के सहारे पैदल ही निकल पड़ता है।उसे रास्ते मे कहीं भी किसी प्रकार की मद्द नहीं मिलती ।किसी तरह बिस्कुट पानी खाकर पैदल ही अपनी गर्भवती बीबी एवं दो साल के बच्चे को लेकर जहां तहां रूकते ,बैठते,सोते अपने गाँव पहुंचता है। वहां के मुखिया जी जब सुनते है कि रघु सूरत से अपने गांव आया है तो उससे कहते है कि ....रघु तुम अपना और अपनी बीबी का कोरोना चेक करा लो।रघु घबड़ाता है पर उसकी बीबी कहती है ...ठीक है मुखिया जी आप डॉक्टर साहब को भेज दो हम जरूर अपना कोरोना चेक करा लेंगे।अब मुखिया जी वहाँ से खिसक गये क्योंकि वहाँ पर छोटे से गाँव मे टूटा फूटा अस्तपताल है जिसमें डॉक्टर का अता पता भी नहीं है।अब मुखिया जी को समझ आ गया कि मैं रघु की मदद नहीं कर सकता जिसे वह चुप लगा जाते।रघु अपने गाँव मे अपने परिवार के साथ नये सिरे से अपनी गृहस्थी बसाने लगता है।
