मैं किसलिए हूँ?
मैं किसलिए हूँ?
वह एक साहित्य प्रेमी लेखक था। उसके अनुसार साहित्य के दो मुख्य काम थे। समाज का दर्शन व समाज को दिशा, और दोनों ही काम समाज का हित देखते हुए होते थे।
उसने उस समय के सत्य पर गम्भीर चिंतन कर कुछ साहित्यिक सृजन किया और साहित्य के एक बड़े सम्मेलन में गया। प्रवेश द्वार पर उसकी आवभगत फूल और आरती से हुई और उसे सात चाबियाँ दी गईं। वह अंदर गया। अंदर सात दरवाज़े थे।
पहले दरवाज़े पर लिखा था, 'धर्म-सम्प्रदाय सम्बन्धी सृजन'। उसके पास इस विषय की कुछ स्वरचित कृतियां थीं। उसने चाबियाँ लगाकर उस दरवाज़े को खोलने की कोशिश की, लेकिन किसी भी चाबी से वह दरवाज़ा नहीं खुला।
उसने दूसरे दरवाज़े की तरफ रुख किया। उस पर लिखा था, 'राजनीति सम्बन्धी सृजन' उसने उस तरह का सृजन भी किया था, लेकिन वह दरवाज़ा भी उसकी किसी भी चाबी से नहीं खुला।
इसी प्रकार चार अन्य दरवाजों के ताले जिन पर 'सामाजिक दशा सम्बन्धी सृजन', 'आर्थिक दशा सम्बन्धी सृजन', 'स्वास्थ्य सम्बन्धी सृजन' तथा 'प्रकृति दशा सम्बन्धी सृजन' लिखा था, उसकी किसी भी चाबी से नहीं खुले और वह हताश होकर आख़िरी सातवें दरवाज़े की तरफ बढ़ा।
सातवां दरवाज़ा तो पहले ही से आधा खुला हुआ था। उसने आँखें बंद कर ईश्वर को मन ही मन धन्यवाद दिया और उसी स्थिति में अंदर जाकर ज़रा सा दूर चलकर खड़ा हो गया। वहाँ आवाज़ें आ रही थीं, "वाह-वाह-वाह-वाह।" उसने कान लगा कर सुनने की कोशिश की, लेकिन उसे 'वाह-वाह' के अतिरिक्त कुछ और सुनाई नहीं दिया। उसने अपनी आँखें खोल दीं। उसने देखा कि एक साहित्यकार मंच पर खड़ा है और मुस्कुराते हुए चुपचाप अपनी गर्दन को किसी सर्प के फन की तरह हिला कर सभी का अभिवादन स्वीकार कर रहा है। कुछ देर तक उसने मंचासीन साहित्यकार के बोलने का इंतज़ार किया, लेकिन हालात वैसे ही रहे जैसे किसी गंभीर बीमारी से पीड़ित मरीज़ की स्थिर स्थिति।
उसे अचरज हो रहा था। उसने कौतुहलवश दरवाज़े की तरफ देखा कि आखिर उस पर लिखा हुआ क्या है!
और उसने देखा कि दरवाज़े पर कुछ लिखा हुआ नहीं था, अलबत्ता एक अनोखा चित्र ज़रूर था – चाबियों से बने हुए एक ढोल का।