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अख़लाक़ अहमद ज़ई

Abstract

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अख़लाक़ अहमद ज़ई

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मामक सार (उपन्यास)-1

मामक सार (उपन्यास)-1

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ढेबरी संडास जाते-जाते रुक गया।

"अरे कुछ सुने?" कल टिकुलिया अपने बप्पस झगड़ा है।"

उसने चूल्हे की लकड़ी ठीक करती मां पर एक उचटती-सी नज़र डाली और बेमन से पूछ बैठा।

" काहे… ?"

" कोई बात न चीत। बस, सब बरबादिक लच्छन है।"

उसका मन हुआ, संडास में घुस जाए और पेट में घूमते गोले को निकाल आवे। यह तो रोज़ की ही बात है। पर खड़ा रहा, नहीं तो मां उसी पर उलट पड़तीं।

"हमार बात तौ सब हवा समझत हैं। हम तौ इधर बात करित है, वह उधर घूमे चले जात हैं।"

" आखिर हुआ का?"

" होयक का रहा! तुहार बप्पा कहिन की जाय के दुवरवप खड़े मनैवस कह दे कि नाई हैं। बस, बिगड़ पड़ा। कहिस--" का तू घर कै बहुरिया हौ? जाय के तुही कहौ। हम नाई जाब कहै।"

ढेबरी घूमा और संडास में लगे टाट के पर्दे को खिसका कर भुनभुनाता गुड़ुप हो गया।

" कोई बहिरेस घरमा सकून पावैक आवत है पर हमारे खुवंक कबड़िया झौंझौं से मनईक अऊर दिमाग पाक जाय, अस तौ हमार घर है! अब्बै हम गोंडस चला आइत है। और हियां अइतै छिन पंचाइत बटुरगा। हियंस नीक तौ बहेरवै!

वह खटर-खटर करते ईंटों वाले कदमचे पर पैंट सरका कर बैठ गया।

" कहत हीं, टिकुलिया लड़ायी किहिस। ई नाई कहत की नीक किहिस। रुपया तौ अपना टेटियैइहैं अउर झूठ बोलय जाय कोई दूसर!" उसका मन भन्ना गया।

"अऊर सारेन कारड-होल्डरवौ बड़े हरामी हैं। आपन बाप समझ, झोरा, रुपया, टीन सब थमाय जइहैं। हजार मरतबा कहेन की जब रासन लेव तब रुपया देव लेकिन कानेम ठेठी दताय रहत हैं। कुछ सुनबै न करिहैं। बादेम सामान न मिली तब चिल्लइहैं। तब यही मना करत है कि चुतरेप दस डंडा जमाइ।

दो

सुबह दस बजे ढेबरी की आंख खुली तो हर कोई गतिमय था। उसके बप्पा बच्चूराम नंगे बदन हाफ पटरीदार नेकर पहने, चौतरे पर टहलते हुए खांस-खांसकर बलगमों से चौतरे के नीचे फुटपाथ का एक कोना भरे दे रहे थे। हाथ की रफ्तार भी कम न थी। हाथ में एक रेजा (लम्बी वाली कंघी) पकड़े, उल्टे हाथ से पीठ पर रगड़घिस कर रहे थे। वह खपखपाता हाथ कभी नेकर में घुस जाता, कभी जाघों पर पहुंच जाता तो कभी बगल से होता हुआ पेट पर चढ़ बैठता।

उसे कभी-कभी हंसी भी आती है। इसीलिए तो मुहल्ले के सारे लौंडे खपखप कहने लगे हैं। वैसे बदन पर एक भी फुन्सी नहीं है जिससे यह शुब्हा किया जाय कि शायद किसी चर्मरोग दाद, खाज, खुजली इत्यादि की शरारत हो, ऐसा भी कुछ नहीं है। बिल्कुल चिकना, तीन-चार महीने का भ्रम कराता पेट। थुलथुल सीना, रीढ़ और पसली पर अनुमानित एक इंच की चर्बी चढ़ी खाल। लेकिन फिर भी उसके बप्पा कपड़ा उतारते ही शुरू हो जाते हैं। जाने क्यों!

हो सकता है, यह पहले के किसी रोग का सूचक हो! आदत के रूप में! वह कुछ सही कह नहीं सकता पर कभी-कभी वह स्प्रिट पर शक करता है और उसे लगता है कि यह स्प्रिट की ही गर्मी है जो बप्पा को उबालें डाल रहा है।

लत भी तो ऐसी-वैसी नहीं। पीने में धुरंधर। जिस दिन न मिले, नींद नहीं आयेगी। वैसे भी रात बारह बजे तक नहीं सोते। और फिर लड़ने से ही छुट्टी नहीं मिलती, सोयेंगे कैसे?

ढेबरी की अम्मा तारा देवी आगे वाले कमरे में टंकी के पास बैठी घसर-घसर बटुली मांज रही थीं। यह भी पीने के मामले में कम तेज नहीं हैं। भांग तो बिला नागा शाम को मिलना चाहिए। कहेंगी--' का करी भय्या, बिलपिलेसर केर मरीज हन। जब दवैवा नाई मिलत है तब हमार जेयरा मालूम नाहीं कऊन मेर होय लागत है।' यह दवा ही कहती हैं भांग को। शायद भांग कहने में तौहीन होती होगी इसीलिए। और जिस दिन दवा नहीं मिलती, उस दिन लुंग खींच लेंगी और घर में अक्खाड़ा खुद जायगा।

बन्द होने के बावजूद छुलछुलाती टंकी के नीचे बाल्टी रखी थी। तारा ने बटुली मांज कर अन्य बर्तनों के साथ खिसका दिया। दूर रखे गिलास को लपक कर उठाया ही था कि ढेबरिया के बप्पा आ गये।

"तनिक बालटिया खसकाओ, हम कुल्ला कर ली।"

तारा ने बाल्टी खिसका दी और पास ही धरे थाली में भरे काले-काले पानी से हाथ धोकर उठ खड़ी हुई। दोनों कूल्हों पर हाथ रगड़ती हुई दूसरे कमरे में चली गयीं।

नत्थू मनिहार चौतरे के किनारे खड़े ठेले पर दुकान लगाने लगे थे। यह ऊपर कोठे पर रहते हैं। इनकी सीढ़ी ढेबरी के दरवाज़े के बगल से होकर जाती है। घों-घों के साथ लम्बी-लम्बी सांस लेते हुए डंडे व सेल्हे की चूड़ियाँ खनका रहे थे। दमा के मरीज़ हैं लेकिन फिर भी ठेला सारे शहर में घुमाना पड़ता है। घुमायें न तो खायें क्या? जिस दिन दमा ज्यादा परेशान कर देता है, उस दिन बीवी दौरा में चूड़ी भर कर निकलती है और खुद घर रखाते हैं। लड़के एक भी नहीं हुए।

नत्थू मियाँ भी अपने ज़माने में खूब तपे हैं। बंदर फंसाने और उसे सप्लाई करने से लेकर लखनऊ की तवायफों के कोठे पर ठुमका लगाने तक का काम कर चुके हैं। उस वक़्त माज़अल्लाह बाप-दादों की दौलत थी। कमाने की फिक्र नहीं। खूब गुलछर्रे उड़ाते। खूब अलल्ले-दलल्ले खर्चा करते। लेकिन जब बाप दुकान से चूड़ी लाकर फुटपाथ पर बैठ गया और नत्थू मियां एक-एक पैसे के लिए तरसने लगे तो इनकी कोठे वाली महबूबा ने भी ठोकर मारकर नीचे लुढ़का दिया। बेचारे कुछ दिन इधर-उधर भटकते रहे फिर गोण्डा आकर लड्डन तवायफ के यहाँ दलाली का काम करने लगे। अब वह लड्डन के लिए ग्राहक फंसाते या फिर मुजरे में बैठकर तबला ठोकते। नत्थू मियाँ लड्डन के शुक्रगुज़ार थे कि वह उन्हें भूख व जेब के ख़ालीपन का एहसास तो नहीं होने देती थी।

एक दिन लड्डन के यहां एक आदमी आया और वह सत्तरह-अट्ठारह साल की एक पुरबही लड़की को लड्डन के हाथों बेच गया। नत्थू मियाँ ने देखा तो उनको लड़की भा गयी। लड्डन के यह मुंह लगे ही थे, कह-सुनकर नत्थू मियाँ ने लड़की के साथ निकाह पढ़ा लिया और एक नई ज़िन्दगी की शुरूआत करने अपने मां-बाप के पास बलरामपुर चले आये।

बलरामपुर आकर लोगों से भले ही नत्थू मियाँ ने एक रिश्तेदार की लड़की के साथ निकाह पढ़ाने की बात कही पर मुहल्ले वाले भी रोग को पहचानना अच्छी तरह जानते थे। कुछ ही दिन बाद यह बात मुहल्ले वालों की जुबान पर थी कि यह लड़की बस्ती शहर के एक बहेलिया की लड़की नूरा है। इसका चाल-चलन ठीक नहीं है। कुछ ही दिन पहले यह किसी के साथ भाग गयी थी।

इस बात पर लोगों ने शक ज़ाहिर किया था कि शायद भगाकर लाने वाले यही नत्थू मियाँ ही हैं। लेकिन फिर सुइहा लगाते-लगाते मालूम हो गया कि इसे एक तवायफ के यहाँ से खरीदकर लाया गया है। पर अब क्या हो सकता था।? आम चुस जाने के बाद गुठली ही हाथ लगती इसलिए सभी ने बलात्कार से पीड़ित महिला की तरह उसके अस्तित्व को स्वीकार लिया और अपने-अपने रिश्तों के अनुसार उसे सम्बोधित करने लगे थे।

मैल हो तो धुल जाय, पर इल्लत नहीं जाती। नूरा भी अपने उस बूढ़े खूसट खसम से न जुड़ पायीं तो कुछ दिन बाद बाहर की थाली में हाथ मारने लगीं। नत्थू मियाँ के खून में उस वक्त खौलन नहीं तो गर्माहट ज़रूर थी इसीलिए अपने स्वाभिमान को ठेस पहुंचते देख, नूरा को तलाक दे दिया। लेकिन फिर हलाला कराकर निकाह पढ़ा लिया। इसमें नत्थू मियाँ की किस तरह की भावना रही यह आज तक कोई न बूझ पाया।

लेकिन अब तो जानबूझकर आंखें बंद किये रहते हैं। मां-बाप तो रहे नहीं, वही दो चिड्डी-चिड्डा हैं। तलाक दें भी तो अब किस बलबूते पर? एक रोटी ठोक कर कोई देने वाला भी तो नहीं है। वह भी इस क़ाबिल नहीं रहे कि खुद ही पकाकर खा सकें इसलिए अब वह पहली भूल को दुहराना नहीं चाहते। सोचते हैं, दो दिन की ज़िन्दगी है किसी तरह निबरे-फुबरे कट जाय फिर वह चाहे जो करेगी तब क़ब्र से उठकर देखने थोड़े ही आयेंगे! नूरा भी इस छूट का खूब छक कर फायदा उठाती हैं। अब तो उन्हें लुक-छिप कर किसी से बात करने में कोई प्रयोजन नहीं दिखता।

नूरा ने कोठे से डंडे व सेल्हों का बंडल लाकर ठेले पर रख दिया। नत्थू मियाँ उसे कपड़े से झाड़-झाड़कर ठेले पर कायदे से सजाने लगे। नूरा और चूड़ियाँ उतारने की ग़रज़ से सीढ़ी लांघने लगीं पर तभी कुछ याद आ गया तो ठहर गयीं। घूमकर सड़क के उस पार नज़र डाल, आवाज़ लगा दी।

"का हो नजीर, अमवा न खवैइबौ?"

सड़क के उस पार आंटे की चक्की की दुकान में एक आदमी झुका चक्की से निकलते गर्म-गर्म आंटे को डंडे से ठूंस-ठूंस कर एक टीन के डिब्बे में भर रहा था। उसने झुके-झुके ही सिर घुमाकर देखा फिर बढ़कर चक्की का स्टाटर गिरा दिया और हाथों के आंटे को उड़ाता हुआ आगे चौतरे पर आकर खड़ा हो गया। चक्की घूंssss खटर-पट खटर…पट खटर………पट करके रुक गयी। अब बातों के आदान-प्रदान में सहूलियत हो गयी थी।

"का कहेव भउजी?"

"हम कहेन, अमवा न खवैइबौ?" नूरा ने अपनी बात स्पष्ट की।

"अरे भउजी, तू अमवैक कहत हिव! तुहरे खातिर तौ हम आपन करेजवौ निकार कै दै सकित है!"

नूरा मुस्कराती हुई और नीचे उतर आयीं। नत्थू मियाँ भी मुस्कराते हुए गाने लगे थे--'काहे दिहेव जियरा दुखाय।' शायद कोई पुरानी यादें ताज़ा हो आयी थीं।

यदि नज़ीर को देखा जाय तो आदमी बुरा नहीं है, केवल ज़बान का ही फूहड़ है। अब तक उसने शायद एक ही ग़लती की थी पर आज भी उसे उस ग़लती का ख़ामयाज़ा भुगतना पड़ रहा है। मुहल्ले के कुछ लड़कों को विश्वस्त सूत्रों से पता चल गया कि नज़ीर केवल एक रुपये की पकौड़ी से किसी लौंडिया को टंगिया चुके हैं। अब वह लड़के जब कभी सड़क से गुज़रते हैं तो आवाज़ लगा दिया करते हैं।

"ऐ पकौड़ी, सब पता है!"

उसे नज़ीर के बजाय अब पकौड़ी के नाम से पुकारते हैं लेकिन फिर भी वह सिर्फ मुस्कराकर रह जाता है। वह उनसे क्या कहे? इस नजूमी मोहल्ले को छोड़कर जा भी तो नहीं सकता! उसकी भी अपनी कुछ मजबूरियां हैं।

एक तो सीधा, दूसरे सिर में बाल कम। इसीलिए उसके गंजेपन का फायदा उठाकर कुछ लोग ठिठोली भी किया करते हैं।

"ई बेमौसम केर आम! अरे सेट्टी, मेहरारुक दुइयै चप्पल से तौ एतना बार झरा है, अबकी सफाचट्ट मैइदान होय जाई।" ढेबरी के बगल जूते की दुकान के अन्दर से किसी ने नज़ीर पर टिप्पणी की तो बेचारा नज़ीर खिसियाकर दूसरी तरफ देखने लगा पर नूरा मुंह में कपड़ा लगाकर अन्दर ही अन्दर हंसने लगीं। इस बेआवाज़ की हंसी से नूरा का आगे को ढरका पेट ऐसे हिलने लगा जैसे पेट के अन्दर भूकम्प आ गया हो।

नूरा के पेट से भी एक ट्रेजडी जुड़ी हुई है। अगर ध्यान दिया जाय तो लगेगा कि नूरा अपने पेट से ही ज्यादा चिंतित रहती हैं। पेट का अचलपन कभी-कभी उन्हें खलने भी लगता है। बुढ़ापे में बेटे की कमी ज़्यादा सालती है। यही परेशानी इनके साथ भी है। जवानी में तो निश्चिंत थीं कि अभी पूरी ज़िन्दगी पड़ी है। आज नहीं तो कल ऊपर वाले गोद भरेंगे ही! बुढ़ापा भी आ गया पर ऊपर वाले टस से मस न हुए कभी-कभी नूरा के पेट में दर्द उठता है तो उन्हें अपना पेट कुछ भारी व बढ़ा हुआ नज़र आने लगता है। उस वक़्त वह फूल कर कुप्पा हो जाती हैं। तब दर्द को भी बड़े प्यार से झेलती हैं। चाहती हैं--दर्द यूं ही बढ़ता जाय, बढ़ता जाय।

उस बीच जहाँ-जहाँ चूड़ी पहनाने जायेंगी, एडवांस पुत्र आगमन का नेवता दे आयेंगी।

"हां पहिर लेव बहिनी! नाहीं तौ चार-पांच महीना न आइब।"

ग्राहक आश्चर्य में पड़ जाते।

"काहे……? काहे न अइबौ?

तो नूरा थोड़ा शरमाकर कहतीं--

" चलिन न पाइब तब कइसै आइब?

ग्राहक उनके न चल पाने का मतलब समझ जाते।

" अच्छा-अच्छा !…… ऊपर वाले जलदिस तुहैं उठायेक खड़िहाय दें भाई। अब खुदा केर सुकर अदा करौ। नाहीं जवानिम दिहिन तौ बुढ़ापैम सही! भला बुढ़ापम टेकावै वाला तौ होय जाई !" तब नूरा का विश्वास और पक्का हो जाता। नत्थू मियाँ भी हर जान-पहचान मुल्ला-मौलवी से अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए गंडा-ताबीज़-फूका पानी इत्यादि की गुजारिश किया करते ताकि वक़्त से पहले किसी शय का साया न पड़े और बच्चा ज़ायां न जाय।

लेकिन जब साल गुज़र जाता और दूसरा साल शुरू हो जाता पर एक चूहे का बच्चा भी न दिखता तो दोनों आदमी अपनी किस्मत को ठोककर रह जाते।

नूरा खिसककर जूते की दुकान के सामने खड़ी हो गयी थीं और हंस-हंसकर दुकान के अन्दर किसी से बतियाने लगी थीं। नत्थू मियाँ ठेला तैयार कर चुके थे अब धूप से बचने के लिए ठेले के एक किनारे छाता बांधने लगे थे। चाहते थे, जल्द से जल्द यहाँ से चल दें नहीं तो दिन भी बुढ़ा जायगा।

नज़ीर जूता वाले से, कबाब में हड्डी बन जाने के कारण खिन्न होकर अन्दर चला गया था और स्टाटर उठाकर फिर गेहूँ पीसने में तल्लीन हो गया था।

सड़क पर अब आवागमन बढ़ गया था। देहाती भी सौदा-सुलुफ के लिए निकल पड़े थे। गर्ल्स इण्टर कालेज की लड़कियां नीला फ्राक या समीज़, समीज़ के दामन में सफेद कपड़े की पट्टी लगा, सफेद शलवार पहने व दुपट्टा ओढ़े, सीने से किताब-कापियां चिपकाए, जाने लगी थीं।

तारा सारा बरतन उठा कर रसोई में ले जा चुकी थी। ढेबरी का छोटा भाई टिकुलिया अभी सो रहा था। ढेबरी उठकर बैठ गया और सामने वाले मकान के ऊपर जाने वाली सीढ़ी पर नज़रें गड़ा दी।

इस सामने वाले मकान से ढेबरी का बड़ा पुराना रिश्ता रहा है। बचपन से लेकर आज तक की बड़ी लम्बी यादें चिपकी हुई हैं। उन यादों को जब कभी वह बैठकर सहेजता है तो खुद खण्ड-खण्ड होने लगता है।

हां सच, बचपन से ही तो! जब वह चार-पांच साल का था तब इसमें नैनसी अपने पापा-मम्मी के साथ रहती थी। नैनसी भी उसी के बराबर थी। हो सकता है, एक-आध दिन या महीने-दो महीने की छोटाई-बड़ाई रही हो लेकिन थी बराबर की ही। उसके पापा किसी बैंक में नौकर थे। वह सुबह दस बजे घर से निकल जाते तो शाम चार-पांच बजे ही लौटते थे। नैनसी की बड़ी बहन रश्मि भी दस बजे या सुबह सात बजे कालेज चली जाती तो बारह बजे या चार बजे ही आती थी। इस बीच नैनसी की मां रसोई से निपट कर आगे वाले कमरे में बैठ जातीं। मोहल्ले की औरतें भी पान खाने के चक्कर में आकर जम जातीं फिर पान का बीरा गलुक्का में दबाते हुए मोहल्ले के एक-एक घर का सिजरा खोलने लगतीं।

ढेबरी भी नैनसी की मां के बगल बैठकर उन औरतों की बातें सुना करता। उसे बातों से ज़्यादा उन लोगों के हावभाव अच्छे लगते। नैनसी की मां तख़्त या चारपाई पर बैठी रहतीं और बाकी औरतें फर्श पर। उनमें से एक नैनसी की मां को सम्बोधित करते हुए आंखें निकालकर, मत्था सिकोड़ कर बात शुरू करती--"अरे नैनसिक अम्मा, सुनेव नाहीं! कल हमरे पड़ोसी खियां पहुना आये रहा। वही तबकिया जवन सुमतियक देखै आये रहे। तौ उनके खियां जवन एक कपूत पइदा भा है, फेरना। उन बेचारन केर रुपिया सौ ठोर अऊर एक घड़ी लइके कहूं चम्पत होइगा। घर वालेन केर तौ नाक कटायगा।

" अस पूत कहियां कोई गड़ासस बालै तौ हमरे आह न आवै। जवन महतारी-बाप केर सरे चऊक नाक कटाय दे।…… चोर हरामी, अपने बहिनियौक नाई खयाल किहिस कि अगर एक मर्तबा बात टूट जायी तौ दुबारा कउनौ भाई दुआरा तक न झांकै अइहैं। तब बईठ के सड़इहैं हरामिक……।"

एक ज़रा-सा रुकती तो दूसरी हाथ झटकते हुए ऐंठकर कहने लगती--" तौ सुमतियय कवन महतारी-बाप केर नाक ऊंचा किहे ही! एक रिसका वालेक साथे पकड़ी गयी। यह सहिदा रंगरेजवक साथे दुइ महिन्ना गायेब रही। जवन आज दुनियम सन्नाम है। आवारा हरराफा सड़किप चली तौ आपन जोबनवैय निहारा करी। दस लउंडे पीछे चलिहैं। अऊर बापव भांड़ है। लड़किक कमायी खाने वाला। एक-एक बजे रात तक दस ठोर गुंडन-लोफड़न कहियां घरमा घुसेरे हा-हा हू-हू करा करी। लेकिन तनकौ ओहका ई नाई खयाल रहत है की घरमा जवान बिटिया है। कहूं कउनौक लइकै भाग-बिड़र जाई तौ अबकी जड़ से नकिया पोछ जायी। ओहका का! ऊ तौ हया-सरम बिलकुल धोयेक पीन गयी है। "

" यही वजह से मोहल्लक सारे लउंडे खराब होइगे। अब तौ मोहल्लक बहिन-बिटियक इज्जतौ बचब मुसकिल होइगा है।"

नैनसी की मां प्रतिवाद करतीं।

" नहीं भाई! मैंने तो नहीं देखा! ऐसा पहली बार तुम लोगों के मुंह से सुन रही हूं!"

" अरे भागव महतारी! "एक हाथ नचाकर कहती--" तुहूं कइसन बात करत हिव! तू तौ कोठप रहत हिउ। साम के अपने जंगलप खड़ी होइके झांकेव तनिक तब पता चली की हम झूठ कहत रहेन की सही। हर बखतै तौ ऊ दुआरेप खड़ी, रस्ता चलत लऊंडन से नजारा छऊंका करत ही! ई मोहल्लवम के नाई जानत है! मुगुल कउनौ बोलत नाई हैं। सोचत होइहैं की जब ओहकै घर वाले नाई बोलत हैं तौ हम काहे बोली? हमरे लुआठेस खड़ी रहत ही। "

ढेबरी नैनसी के यहाँ से काफी हिलमिल गया था। नैनसी की मां भी मोहल्ले के अन्य लड़कों में से उसी को ज्यादा मानतीं थीं क्योंकि वह मोहल्ले के अन्य लड़कों से बिलकुल अलग था। ढेबरी छह लड़कियों के बाद बड़ी मुश्किल से लड़का निकला था। मां-बाप-बहनों का दुलारा। हर वक्त साफ-सुथरा रखते। हर वक्त किसी न किसी की नज़र ज़रूर रहती उस पर। इस इकलौते बेटे को परिवार का कोई भी सदस्य नहीं चाहता था कि वह भी मोहल्ले या रिश्तेदारों के लड़कों की तरह पैदा होते ही बहिन-महतारी-बिटिया के अन्दरूनी रिश्ते का पहाड़ा रटे इसलिए जब वह नैनसी के यहाँ जाता तो उसके घर वालों को उसे सभ्यता की सीढ़ी चढ़ते देख, आत्मिक शांति मिलती थी। ढेबरी दिन भर नैनसी के यहाँ रहता। कभी-कभार आध-एक घंटे के लिए चला आता पर फिर वहीं पहुंच जाता।

नैनसी की मां उसे भी नैनसी के ही साथ टाफी, सेब वगैरह बिलकुल नैनसी के जितना देतीं। यही वजह थी, जो ढेबरी को उस घर से बांधे था। ढेबरी का नैनसी से भी खूब पटती थी। नैनसी के पापा द्वारा लाये गये खिलौनों से दोनों खेला करते लेकिन दोपहर को औरतों के बीच बैठ, बातें सुनना न भूलते।

मोहल्ले की औरतें नैनसी के यहाँ आते ही पान तलब करतीं।

"नैनसिक अम्मा, तनिक एक टुकड़ा पान होय तौ खियाय देव! हमरे खुवां कल रतियम बजरियय नाई गये अऊर न पनवै लाये। रतिएस एक्कौ बीरा नाई खाएन।"

यदि पान होता तो नैनसी की मां एक बीरा लगा कर दे देतीं, नहीं तो मायूस हो जातीं।

"क्या बताएं! एक टुकड़ा भी नहीं है। दो दिन से पच्चीस पैसे का इतना कम पान आता है कि रात में ही सब खत्म हो जाता है। कल तो पान ही नहीं मिला था। हर चीज़ में आग लगी ही है, पान भी दुनिया जहान से उड़ गया। देखो, यह मंहगाई क्या करती है।" लेकिन वह मंहगाई को कांख में दबा लेती।

" तौ तनिक डली-कत्थय फंकाय देव! "

नैनसी की मां पानदान उसके आगे खिसका देतीं। वह भी भागते भूत की लंगोटी भली समझ, पानदान खोलकर हथेली पर डली-कत्था-तम्बाकू रख, सिर ऊपर कर मुंह में झोंक लेती फिर चिमची में से चूना चुटकिया कर चांट लेती।

"जब से हमार मंझिलका लड़कवा भा, तब से हम्मै पान केर लत लाग गा। नाहीं तौ हम पान-तमाखू बिलकुल्लै नाई खात रहेन।"

"हां, होता है। कभी-कभी न चाहते हुए भी लत लग जाती है।" नैनसी की मां पड़ोसन की बात का समर्थन करतीं।

"का खाना-वाना पकाये चुकिव?"

"हां, मैं तो दस ही बजे पका लेती हूं। नैनसी के पापा को बैंक जाना होता है। रश्मि को भी स्कूल जाना रहता है। बस, दस ही बजे पका लेती हूं। खाकर चले जाते हैं। "

" संझवैक तरकारी-वरकारी मंगाय लेत होइहौ?"

"हां, शाम को ही मंगा लेती हूं। इसमें मुझे भी सहूलियत रहती है और वक्त पर सबको खाना भी मिल जाता है। वैसे आज दाल बनाया था। "

अब वह अपने असलियत पर लौट आती।

" तौ तनिक दाल होय तौ हमरे बिटीवक दइ देव। सुक्खै भात धरा है। जहरुलिया खइतै नाई है।….. दलिया रहा मुगुल रक्खत रहेन बस अड़ायगा। "

उनके दाल गिरने का ख्मयाजा नैनसी की मां को भुगतना पड़ता। सुनते ही शक्ल का रंग बदल जाता--मंहगाई इतनी है कि खुद का ही पेट भर पाना मुश्किल रहता है। ये लोग तो और हर वक्त मांगने-खाने के चक्कर में रहती हैं। पर मोहल्लेदारी निभानी पड़ती इसीलिए कह देतीं--

"कटोरा लाओ ज़रा-सा दे दूं। ज़रा-सा ही बचा है और अभी नैनसी ने भी नहीं खाया है।"

"जा रे जा जहरुलिया, दऊड़ के कटोरा लै आओ। नैनसिक अम्मा तोरे खातिर दाल देत हीं।"

जलरुलिया भी ऐसे काम खरबर-खरबर दौड़कर मिनटों का काम सेकेंडों में कर देती। और कोई काम हो तो क्या मजाल है, सुन ले। लाख ज़रूरी काम हो नहीं सुनेगी।

ढेबरी को इन लोगों का हाथ-मुंह-आंख चलाने का ढंग बहुत अच्छा लगता इसलिए बैठा, एक टक बड़े ध्यान से एक-एक हरकत देखा करता। वैसे तो नहीं, पर जब इन लोगों के बीच कोई राज़ की बात होती और ढेबरी को एकटक अपनी ओर देखते देखतीं तो चुपके से पुकारतीं--

"नइनसिक अम्मा…… नइनसिक अम्मा, देखव ढेबरिया कस ध्यान से हमार बतिया सुनत है।"

नैनसी की मां भी तिरछी नज़र से ढेबरिया को देखने लगतीं। वह भी डर जातीं कि कही हम लोगों की बात यह बाहर जाकर किसी से रंभा न आवे। ढेबरी बात रुका देख, नज़र दूसरे पर डालता तो सभी एक साथ हंसने लगतीं। नैनसी की मां उसे वहां से टिरकाना चाहतीं।

" ढेबरी तुम और नैनसी दूसरे कमरे में जाकर खेलो।"

उस वक्त ढेबरी नैनसी के साथ उठकर चला जाता पर फिर थोड़ी देर बाद उसी अपने अड्डे पर आकर जम जाता।

उस दिन भी नैनसी की मां ने ढेबरी को टिरकाया था।

"ढेबरी, जाओ नैनसी हैदराबाद से खूब अच्छे-अच्छे खिलौने लायी है। जाओ तुम और नैनसी मिलकर खेलो। जाओ नैनसी तुम भी जाओ।"

नैनसी की मां कुछ दिन पहले हैदराबाद अपने देवर की शादी में गयी थीं। ढेबरी वहां से हटा तो वह फिर शादी का संस्मरण सुनाने में जुट गयीं।

नैनसी हैदराबाद से दो गुड्डी-गुड्डा लायी थी। खूबसूरत-सा। दोनों खेलने लगे।

" बब्लू ने हमें मारा तो चाचा ने हमें ये बबुआ ले दिया।" नैनसी ने गुड्डा दिखाया तो ढेबरी को कुछ खल गया।

"हम्मै तौ अम्मा मारिन तब बप्पा आये तौ उन्हूं एक थप्पर मारिन।"

"तब तुम्हारे चाचा ने तुम्हें बबुआ नहीं ले दिया?"

उसने मायूस होकर सिर हिला दिया।

" नाहीं…… तब हमार चाचा बजारिम जूता सियय गये रहा।"

"हमारे चाचा की शादी तुमने देखी थी?"

" नाहीं…… हम तौ अम्मक पास बिठा खाना खात रहेन।"

" अच्छा, अब पापा के साथ जाऊंगी तब तुम भी चलना। तब मैं तुम्हें अपने चाचा की शादी दिखाऊंगी।" नैनसी आंखें निकालकर हाथों को डखनों की तरह फैलाकर हिलाती हुई बोली-- " हमारे चाचा खूब अच्छा-अच्छा कपड़ा पहने, मोटर पर बैठे थे। मैंने भी माला पहना था।…… बाजा बज रहा था तब तुमने सुना था?"

ढेबरी ने खुश होकर सिर हिला दिया।

" हमार बप्पा बाजा बजावत रहे तब सुने रहेन।"

"जो दुल्हन बनी थी वह रोरही थी तब मैं भी रोने लगी थी।"

" हमार बप्पौ बिहा करिहैं तब हम जाइब। तब तुहुंक लइ चलब! "

" कब….?"

" जाइ बप्पस पूछ याई? "

"हां…. जाओ।"

ढेबरी उठकर थोड़ी दूर गया फिर लौट आया।

" तब हम्मै बबुआ देहव?"

" हां… तब बबुआ दूंगी।"

अब ढेबरी बप्पस पूछने की बात भूल, पलथी मारकर बैठ गया और बबुआ हिला डुलाकर बजाने लगा था।

" ढेबरी, हमारे चाचा रात को दुल्हन के साथ लेटे हुए थे। मम्मी दरवाजे से झांक रही थी तब मैंने भी देखा था।..…. चलो, हम लोग भी शादी-शादी खेलें।" नैनसी ने कहा और गुड्डा लेकर खड़ी हो गयी। ढेबरी भी गुड़िया लेकर खड़ा हो गया था। फिर दोनों दो कमरों को लांघकर सबसे पीछे वाले कमरे में पहुंच गये थे।

नैनसी ने कमरे में रखे गद्दे का धागा खींच-खींचकर अपने व ढेबरी के बाल-कान व गले में लपेटा था। इधर-उधर से कागज व कपड़ों के टुकड़ों को बटोर, उन धागों में सजा कर उसे सेहरे का रूप दिया था फिर दोनों मुंह से मुंह जोड़कर लेट गये थे। वैसे दोनों को मुंह से मुंह जोड़ कर लेने का अर्थ नहीं मालूम था। बस, चुपचाप लेटे फुसुर-फुसुर बतिया रहे थे।

दोनों को यह नया खेल शादी-शादी का बहुत जंचा था। फिर तो दोनों यही खेल रोज़ खेलने लगे थे। एक दिन रश्मि स्कूल से आयी तो उसी पीछे वाले कमरे में किसी काम से पहुंच गयी थी। वहां नैनसी व ढेबरी दूल्हा-दुल्हन बने, मुंह से मुंह जोड़े खुसुर-फुसुर कर रहे थे। रश्मि ने देखा, तो दोनों को डांटा था। उस समय रश्मि के डांटने का अर्थ भी दोनों की समझ में नहीं आया था। बस, चुपचाप भाग आये थे।

उस दिन के बाद वह नैनसी के यहाँ नहीं गया। लेकिन जब रश्मि के माता-पिता कुछ दिन बाद घर खाली करके कहीं चले गये और नाना स्वामीनाथ चमारन टोला से आकर सपरिवार उसी घर में बस गये तब वह फिर उस घर में आने-जाने लगा था। (शेष भाग-2 में पढ़ें)


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