बंटवारा
बंटवारा
(भाई का भाई को पत्र)
मेरे अज़ीज़ भाई,
तुमने टेबल पंखा भेजते हुए कहलाया है कि इसे तुम भूल आये थे। लेकिन मैं यह बता दूं कि मैं इसे भूल कर नहीं, जानबूझकर छोड़ आया था। मैं तुम्हारा मर्म समझ सकता हूँ। ऐसा हर उस शख़्स के साथ होता है, जब वह किसी के साथ आत्मिक जुड़ाव महसूस करता है और अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर रहता है।
तुम्हारी भावनाओं से वाबस्ता होते हुए भी मैं अपने ज़मीर के हाथों बेबस हूँ। समझ में नहीं आता कि मैं तुम्हें कैसे और कहाँ से अपनी बात शुरू करके समझाऊं, ताकि जिन जज़्बातों की रौ में बहकर तुमने यह तंज़ किया है, उसके बरअक़्स मैं तुम्हारी ख़लिश को ख़त्म करने में कामयाब हो सकूं।
एक भाई का दूसरे भाई से अलग होना कोई नई रीति नहीं है। शायद जब से दुनिया वजूद में आयी है, यह इंसानी फ़ितरत, विचारों में टकराव, एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति, ये तमाम बुराईयाँ साथ आयीं। अगर अच्छाई - बुराई, छोटा-बड़ा, अमीरी-ग़रीबी जैसे तमाम अन्तर पैदा ना होते तो मेरा ख़्याल है कि ना तो इंसानों के बीच इंसानों की अपनी कोई पहचान होती और ना ही ख़ुदा का स्वर्ग-नर्क बनाने का मक़्सद पूरा होता।
टूटने को क्या नहीं टूट सकता है? जब सर्वहारा वर्ग का साम्यवाद टूट सकता है तो लोकतान्त्रिक देश के एक परिवार को टूटने में कितना वक़्त लगता है? यहांँ सही और ग़लत का सवाल ही कहाँ उठता है? हर वह व्यक्ति जो अपने तईं कमज़ोर और अधूरा महसूस करता है, वह दूसरे-तीसरे की ग़ुलामी स्वीकार लेता है हंसते हुए। उसके चेहरे पर समर्पण के अलावा और कोई भाव नहीं उभरता, लेकिन जिस दिन वह अपने आप में पूरा और ताक़तवर महसूस करता है, उसी दिन उसके चेहरे पर एक भाव पैदा होता है, जिसे देखने वाले अपने-अपने ढंग से परिभाषित करते हैं। वहाँ किसी के लिए विद्रोह की भावना नहीं होती, वह आभा उसके अपने अन्दर के आत्मविश्वास की चमक होती है।
मैं अपने आपको ताक़तवर महसूस करने लगा हूंँ, ऐसा बिल्कुल नहीं कह सकता। मैं शुरू से दूसरों के सहारे चलने का आदी रहा हूँ। जो शख़्स बैसाख़ी के सहारे चलने का आदी हो और अचानक बैसाख़ी गुम हो जाय, तो सहारे से चलने वाला एक बार लड़खड़ा तो ज़रूर जायेगा। मुझे भी यक़ीन नहीं हो रहा है कि मैं अपने दम पर अपने परिवार को चलाने का बीड़ा उठा लिया हूँ तो कामयाब हो जाऊंगा। फिर सोचता हूँ कि जो पैदा होते ही अनाथ हो जाते हैं, वह भी तो जीते हैं अपने दम पर। ख़ुदा उनकी हिफ़ाज़त करता है। इसीलिए कहते हैं – संघर्ष ही जीवन का आधार है।
मेरे अन्दर आज भी एक हलचल मची हुई है, लेकिन शायद मेरे व्यक्तित्व पर एक आवरण है जो मेरी भावनाओं, परेशानियों को मेरे चेहरे पर ज़ाहिर नहीं होने देती है। लोग यही समझते हैं कि मैं बहुत सुखी, सम्पन्न हूँ। शायद यही आवरण हम दोनों के बीच दरार पैदा करने का सबब बन गयी। तुम मानो या ना मानो, मैंने साथ-साथ रहते हुए कई बार महसूस किया है तुम्हारे चेहरे पर उस दरार को।
तुम्हें याद होगा, बचपन में हम दोनों को लोग जुड़वा कहकर पुकारते थे। हालांकि हम दोनों की उम्र में दो साल का अन्तर है, फिर भी बराबरी के चलते अच्छाइयों-बुराइयों में बराबर के भागीदार रहे हैं हम दोनों। तुम्हें याद होगा, हम दोनों अब्बा की पी हुई बीड़ियों के टोटे चुपके से इक्ट्ठा करके किसी सुनसान कोने में ले जाकर पीते थे और गुड़ की डली खाकर शान से आ जाते थे, ताकि किसी को बीड़ी की बदबू महसूस न हो।
एक बार तुम कंचे पर सन-पुतल खेल रहे थे। मैं भी वहीं खड़ा हो गया था। अचानक अब्बा ने तुम्हें सन-पुतल खेलते देख लिया था और घर पर लाकर रस्सी से हाथ-पैर बांध कर बिठा दिया था। तुमने झूठमूठ का मेरा भी नाम ले लिया था और फिर मुझे भी बांध कर बिठा दिया गया था। उस वक़्त मुझे तुम पर बहुत ग़ुस्सा आया था। वह ग़ुस्सा मात्र एक घंटे का था। फिर सब कुछ भूल गये। बाद में भी हम दोनों ने अपने अन्दर कोई फ़र्क़ महसूस नहीं किया कभी। उस वक़्त यह सारी बातें दिमाग़ पर हावी ही नहीं होती थीं।
बचपन की यादें एक चुटकुले की तरह लगती हैं। ज़हनी तौर पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ती। हो सकता है, कच्ची उम्र की बातें होती ही हों इसीलिए! लेकिन आज सामने वाले के जिस्म में भावनाओं के थपेड़ों से उभरने वाली नसों तक का मतलब पढ़ने में आ जाता है और मन की अनकही बातें बयां हो जाती हैं, तब ख़ुद का भी मन परेशान हो उठता है। सोचना पड़ जाता है कि कौन कहाँ ग़लत है।
तुम बचपन से घर के प्रति लापरवाह रहे। तुम्हारा ध्यान खेलने और अपने आसपास की दुनिया की हरकतों पर ज़्यादा रहता था, पढ़ाई और घर की परेशानियों पर कम लेकिन मेरा ध्यान पढ़ाई और पढ़ाई से भी ज़्यादा घर की परेशानियों पर रहता था। घर की तंगियां मुझे उस वक़्त भी परेशान करती थीं दिन-रात, जब मुझे पढ़ने और खेलने में ध्यान लगाना चाहिए था।
हम दोनों का स्वभाव पूरब-पश्चिम का था, फिर भी हम दोनों एक-दूसरे पर जान देते थे। स्वभाव तो आज भी नहीं बदला है हम दोनों का। बस, एहसास के दायरे बढ़ गये हैं। अब पढ़ सकते हैं एक-दूसरे की आँखों में उभरने वाले लाल डोरे की भाषा।
मैं यह कभी नहीं भूल सकता कि आज जो कुछ भी हूँ उसमें तुम्हारे सहयोग को नकारा नहीं जा सकता। तकरार किसमें नहीं होती? भाई-भाई में होती है, माँ-बाप में होती है, दो पड़ोसियों में होती है। दो देशों में भी तकरारें होती हैं लेकिन अगर सामने वाला समझदार हो तो तकरार ख़त्म भी हो जाती है। मैं यह नहीं कहता कि यह सलाहियत तुममें नहीं है लेकिन कहीं कुछ तो ग़लत है।
हिन्दुस्तान अपने ख़ून की क़ीमत पर बांग्लादेश को वजूद में लाया। आज एक बिल्ली शेर की गुर्राहट पैदा करके शेर को डराने की कोशिश करे, तो यह कितनी हास्यास्पद बात है ना! इसे मेरी भाषा में कमीनापन कहते हैं। लेकिन मैं कमीना नहीं हूंँ। तुम्हारे हर एहसानों का एहसास मुझे मेरी औक़ात का एहसास दिलाता रहता है। दिन-रात वह यादें कचोटती रहती हैं लेकिन क्या करूँ? जो ज़िन्दगियाँ मेरी ज़िन्दगी के साथ एक्सां हो चुकी हैं, उनका भी ख़्याल रखना मेरा ही फ़र्ज़ बनता है। मैं उन्हें कैसे छोड़ दूँ दूसरों के रहमोकरम पर?
मैं जानता हूँ कि तुम्हें सिर्फ़ खाने से मतलब रहता था। नमक कम है या ज़्यादा, इसका तुम्हें पता ही नहीं चलता था लेकिन आजकल तुम्हें फौरन पता चल जाता था क्योंकि वह खाना तुम्हारी बीवी नहीं, मेरी बीवी पकाती थी। पूरी शिद्दत के साथ कि घर के एक-एक फ़र्द को मालूम हो जाय। इंसान फ़रिश्ता नहीं होता है कि उससे ग़लती नहीं हो सकती। अगर हम यह मान कर चलें तो कोई झगड़ा ही ना हो।
तुम्हें शायद लगता था कि मैं अपनी आमदनी को परिवार पर पूरा खर्च नहीं करता था लेकिन सिर्फ़ मैं जानता हूँ कि मेरी आमदनी में से इतना भी नहीं बचता था कि अपने या अपने बीवी-बच्चों की बीमारी पर दवा ला सकूँ। तुम्हें मालूम है कि मुझमें इस्नोफिल्स की मात्रा अधिक है, जिसके कारण रोज़-ब-रोज़ सर्दी-ज़ुकाम, खांसी-बुख़ार मुझे घेरे रहते हैं। हफ़्तों बग़ैर दवा के गुज़ार देता हूँ। तपते और टूटते बदन की पीड़ा सहते हुए। इस उम्मीद पर कि शायद बग़ैर दवा के ही सही हो जाय। यह मेरी बेबसी है।
ग़लतफ़हमी शायद यहीं पैदा हुई। तुम्हारे ख़्याल से मैं अपनी आमदनी में से बचा-बचाकर अपने बीवी-बच्चों के भविष्य के लिए सुरक्षित रख रहा हूँ और तुम्हारी आमदनी पर ऐश कर रहा हूँ। मुझे इसका आभास भी नहीं होता यदि उस दिन तुम रुपए गिनते-गिनते अचानक मेरे पहुंच जाने पर छुपा नहीं लेते। मेरी सोच को पुख़्तगी तब हासिल हुई जब सुनने में आया कि तुम अपने बच्चों के भविष्य-निधि के लिए रकम सुरक्षित अवश्य करते यदि मेरे बच्चे साथ में ना होते।
यही वह घड़ी थी जब मैंने शिद्दत के साथ अपनी बेचारगी महसूस की और मुझे अपनी तंगदामनी का एहसास हुआ। मुझे लगा, मेरी ग़रीबी तुम्हारे बीवी-बच्चों के भविष्य के आड़े आ रही है इसलिए मुझे अब हट ही जाना चाहिए। कमबख़्त अपनी अक़्ल को क्या कहूँ? यह बात तो ज़ेहन में उसी वक़्त आ जानी चाहिए थी, जब तुम्हारे द्वारा मंगाये गये दूध को पूरा का पूरा पालतू कुत्ते के बर्तन में तुम्हारी बीवी ने महज़ इसलिए उड़ेल दिया था ताकि मैं चाय ना बनवा सकूं क्योंकि उस वक़्त मुझे चाय की तलब कुछ ज़्यादा ही लगती थी। यक़ीन मानो, वह वक़्त था और आज का वक़्त है, मैंने चाय की तरफ़ देखना ही छोड़ दिया है। वैसे भी ग़ुरबत के दिनों में चाय भारी पड़ जाती है।
कोई कब तक किसी का साथ देगा? तुम्हारे भी सामने अपने बीवी-बच्चों का मुस्तक़बिल खड़ा, टकटकी लगाये ताक रहा है। वैसे भी आज तुमने फिर मुझ पर और मेरे परिवार पर एक एहसान और कर दिया यह टेबल फैन भेजकर। इस नये घर में एक पंखे की सख़्त ज़रूरत थी। बेशक, इसे मैं ही ख़रीदकर लाया था पर दूध वाले का बक़या अदा करने के बाद इस पर तुम्हारा ही हक़ बनता था। इसीलिए इसे छोड़कर आया था।
मैं इक़रार करता हूँ कि जो तुमने मुझे घर खाली करते वक़्त पंखा उठाते और उसे साफ़ करते देखा था, वह बिलकुल सही था लेकिन साफ़ मैं इसलिए कर रहा था कि पंखे की बिगड़ी हालत देखकर दूध वाला उसे लेने से इंकार न कर दे। यक़ीन मानो, यदि तुम उसे पैसा ना दिये होते तो आज भी मेरे पास उसे देने के लिए पंखे के अलावा और कुछ नहीं था।
बंटवारा कभी भी धन-दौलत, ज़मीन-जायदाद का नहीं होता। बंटवारा विचारों और ख्वाहिशों का होता है। विचारों के अन्तरविरोध ने एक परिवार को बांट दिया तो एक कुर्सी की ख्वाहिश ने देश और देश के लोगों के बीच बंटवारे की लकीर खींच दी। लेकिन आज भी हम भाई-भाई हैं, इस विश्वास के रिश्ते को कौन बांट सकता है? लेकिन ज़रूरी है कि सामने वाले की भी समझ में आये। अब देखो ना ! बंटवारा तो पंखे का भी नहीं हो सका। कल तुम्हारे पास था, आज मेरे पास है। इंसानों की तंगदिली ने इजाद कर लिया है इस लफ़्ज़ को–'बंटवारा'। बस, अपनी अहं तुष्टि के लिए।
उम्मीद है, ख़ैरियत से होंगे।
तुम्हारा अपना
भाई
