STORYMIRROR

अख़लाक़ अहमद ज़ई

Tragedy

3  

अख़लाक़ अहमद ज़ई

Tragedy

नसीब

नसीब

1 min
142

सड़क किनारे वह अपना बाकड़ा लगाये हुए कुछ प्लास्टिक और रोज़मर्रा की ज़रूरतों का सामान बेच रहा था। मैं ना चाहते हुए भी उसके क़रीब जाकर खड़ा हो गया कि शायद कुछ मेरे काम की चीज़ें दिख जाये तो खरीद लूं। देखने पर पता चला कि कुछ तो खरीदा जा सकता है। 

 मैंने एक नेलकटर, एक बड़ी कंघी और दो-तीन और भी सामान एक तरफ रखकर उससे दाम पूछा। उसने सामान देखा और मन ही मन हिसाब लगाकर 165/- रुपए बताया। मुझे भी दाम वाजिब लगा इसलिए मोलभाव न करके पाँच सौ का नोट निकाल कर उसकी तरफ बढ़ा दिया। 

 उसने नोट हाथ में पकड़ा तो लिया पर कुछ पसोपेश में दिखा। 

     "पाँच सौ का छुट्टा तो नहीं है।" वह बुदबुदाया। 

 मेरे कुछ बोलने से पहले वह अपना बाकड़ा छोड़कर एक तरफ बढ़ गया। मैंने देखा- उसी फुटपाथ पर थोड़ी दूरी पर बैठे हुए एक भिखारी के पास वह जाकर खड़ा हो गया। उसने पाँच सौ का नोट उसकी तरफ बढ़ाते हुए कुछ बातें की और थोड़ी देर में पाँच सौ का छुट्टा लेकर वापस लौट आया। मैंने मुस्कराते हुए उसकी तरफ देखते हुए बिना बोले हाथ से सवालिया इशारा किया। वह भी एक फीकी हँसी हँस दिया। 

"भाई, यह अपना-अपना नसीब है। किसी का भीख मांग कर झोली भर जाती है और किसी का मेहनत करके पेट भी नहीं भरता।"


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Tragedy