शंका
शंका
एकाएक घोड़ा रुक गया। अरे, यह तो ज़ालिम सिंह है! वही ज़लिम सिंह दरोगा जिसकी आवाज़ से सारा शहर थर्राता है। ज़ालिम सिंह ने देखा, एक सिपाही किसी को डांट रहा था।
"क्या बात है?" सिपाही घूमा और एक ज़ोरदार सैल्यूट मारकर बोला--
"हुजूर, रात के एक बजने वाले हैं पर यह बुड्ढा अभी तक खटखट कर रहा है। अगर चोर कहीं सेंध लगाये तो सुनाई भी न दे।"
ज़ालिम सिंह ने देखा--एक टूटी-फूटी छोटी-सी दुकान में लालटेन जल रहा है। दीवार पर इधर-उधर कई लकड़ी की वस्तुएं बनी टंगी थीं तथा ज़मीन पर भी कोई अधबनी वस्तु पड़ी थी।
उसने बुड्ढे पर नज़र डाली। एक दुबला पतला-सा शरीर, मैले, फटे कपड़ों में लिपटा, हाथ जोड़े खड़ा था। दरोगा ने महसूस किया कि बुड्ढे के शरीर से बार-बार डर की ठण्डी लहर उठ रही है। उसने दुकान के अन्दर से नज़रें हटाकर सिपाही पर टिका दी।
"जिस जगह कोई जाग रहा हो, वहाँ क्या चोरी हो सकती है?" ज़ालिम सिंह ने पूछा।
"हुजूर……।" सिपाही की आवाज़ गले में ही अटक कर रह गयी।
"अगर कोई ग़रीब मेहनत-मजदूरी करके अपना पेट पालना भी चाहे तो तुम लोग नहीं करने दोगे।…… जाओ अपना काम करो। आइन्दा ऐसी ग़लती मत करना!"
उधर बुड्ढा ज़ालिम सिंह को ऐसे देख रहा था जैसे पहली बार देखा हो।
"बाबा, आप काम कीजिए।" ज़ालिम सिंह ने बड़ी ही शालीनता से कहा तो बुड्ढा भी बेहिचक पूछ बैठा--
" साहेब, का आप पुलिस अफसर न हो? "