निज़ाम
निज़ाम
वह दोनों एक बंद मकान के बाहर चबूतरे पर बैठ गये। एक ने अपना चप्पल निकाल कर बगल में रखा और पलथी मारकर बैठ गया। दूसरा यूं ही पैर लटकाए बैठा रहा।
"आज का धंधा कैसा रहा ?" एक ने दूसरे से पूछा।
"नहीं रे, आज जितने मिले सब चिरकुट मिले। पांच रुपये से जास्ती किसी के टेट से निकला ही नहीं।…… और तेरा ?"
"मेरा भी वही हाल है। आज सिर्फ दो हजार का धंधा हुआ। वैसे मेरे को टेंसन नहीं है। गांव में घर-बार, खेती-बाड़ी सब है। लड़के को भी धंधे पर लगा दिया हूँ। बेटी को भी शान से विदा कर दिया। शादी में पूरा गांव आया था। चार-चार सिर्फ़ बकरा कटवाया था।
इस बीच थोड़ी दूरी पर खड़ा एक सात-आठ साल की लड़का उन दोनों के हाथों को तके जा रहा था जिससे वे नोट और चिल्लर की गिनती कर रहे थे। लड़का हालात से किसी गरीब घर की लग रहा था। अचानक एक की नज़र लड़के पर पड़ी।
"पैसा चाहिए ?" उसने लड़के से पूछा।
लड़के ने 'ना' में सिर हिलाया।
"कुछ खायेगा ?"
इस बार वह कुछ नहीं बोला। बातचीत सुनकर दूसरे ने भी लड़के की तरफ देखा।
"चल रे, भाग यहां से।" दूसरे ने डांटा।
"रहने दे यार, लड़का भूखा लग रहा है।" पहले ने दूसरे को टोका।
"भूखे तो हम भी हैं तभी तो भीख मांग रहे हैं।"
दूसरे के डांटने से लड़का धीरे-धीरे जाने लगा। पहला दूसरे की बात की परवाह किए बिना लड़के को अपने पास बुलाता रहा पर वह वापस नहीं लौटा। पहला दुखी हो गया।
" यार, यह भी कैसा निजाम है। कोई ब्याज पर पैसा चलाने के लिए भीख मांग रहा है और कोई पेट की भूख मिटाने के लिए किसी से मांग भी नहीं सकता !"