मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

Abstract Romance Others

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मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

Abstract Romance Others

लॉन्ग ड्राइव(लघुकथा)

लॉन्ग ड्राइव(लघुकथा)

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जब कार टैगोर मार्ग से होती हुई, पहाड़ के घुमावदार रास्ते पर पहुँची तो रचना ने कहा।

- लोकेश, कार रोको ...?

लोकेश और रचना कार से उतरे। दिसंबर की सर्द हवा की शाम ...थी, रचना नीली शिफान की साड़ी पर एक हाफ कोट पहने बहुत खूबसूरत नज़र आ रही थी। 

रचना ने कहा।

- अच्छा एक बात बताओ? तुम मुझे यहाँ क्यों लेकर आए हो?

लोकेश ने तपाक से जवाब दिया।

- बस यूं ही शहर की आपा-धापी से दूर मन किया तुम्हें लॉन्ग ड्राइव पर ले जाने का। रचना हम एक ही ऑफिस में काम करते हैं और बहुत अच्छे दोस्त भी हैं तो क्या मेरा इतना भी हक़ नहीं बनता?

रचना मुस्कुराते हुए बोली।

- लोकेश, तुम आज भी कितने स्मार्ट हो। फिर शादी क्यों नहीं कर लेते?

लोकेश ने रुमानी अंदाज़ में जवाब दिया।

- यही सवाल मैं तुम से करूंगा तो क्या कहोगी?

 अच्छा नहीं लग रहा क्या तुम्हें यहाँ? 

ये शाम का वक्त, ये गांव के मकानों से उठता हुआ धुआँ। ये खूबसूरत-सी झील और ये छोटी से पहाड़ी पर हरे भरे दरख़्त।

- वाकई, बहुत दिलकश मंज़र है। तुम ठीक कहते हो। यहीं बैठकर इन नज़ारों को देखते हैं।

- वो जो चाय की गुमटी दिख रही है न आगे, वहीं। उसके पास जो एक छोटी सी पुलिया है न, उस पर बैठ कर बातें करेंगे और चाय भी पीयेंगे।

- जानते हो, मेरे घर के नजदीक बिल्कुल ऐसी ही खूबसूरत झील थी और उसके उस पार ऐसी ही हरी-भरी पहाड़ी। शाम के वक्त हम और सौरभ ही पैदल निकल जाते थे। चलते जाते, चलते जाते। जब तक कि सूरज डूब नहीं जाता और फिर वापस आ जाते थे। रास्ते में सौरभ एक खोमचे वाले से चना चोर गर्म खरीदता था और खाते हुए आ जाते थे।

- अच्छा तुम्हें ये सारी बातें अभी भी याद हैं। बहुत मिस करती हो न, उसे?

- और नहीं तो क्या। तुम भी तो अकसर ऑफिस में समरीन की बात निकाल कर बैठ जाते हो। अभी तक वह निकली नहीं तुम्हारे दिमाग से।

- क्या करें, अब वक्त ने मिलने ही नहीं दिया हमें। सोचा आज मैं तुम्हें भी उसी जगह ले चलूं। हम लोग सौरभ और समरीन की यादें ताज़ा करेंगे। 

जानती हो, ये जगह समरीन को बहुत पसंद थी। तब हम लोग मोटर साइकिल से आते थे। इसी पुलिया पर बैठ कर चले जाते थे। उसके बाल हवा में बिखर जाते थे। जैसे तुम्हारी ये लट गाल पर आ रही है न, ऐसे ही। मैं उसे हौले से हटा देता था और वह शर्मा जाती थी। 

- तो फिर इस लट को भी हटा दो न ... ... ...???

लोकेश ने लरज़ते हाथों से इसके घने सुनहरी बालों को हटा कर उसके खिले हुए चेहरे को अपने हाथों में लेकर इसके माथे को चूम लिया।

रचना सॉरी करके ज़रा फासले पर बैठ गई। अपने सर के बालों को अपने दोनों हाथों में भर कर लपेटा और जूड़ा बना दिया। वो इस वक्त और भी खूबसूरत लग रही थी।

रचना ने लोकेश का हाथ पकड़ कर कहा।

- लाइए, आपका हाथ देखती हूं।

लोकेश ने कहा।

- रचना, अब इन हाथों की लकीरों को पढ़ कर क्या करेंगे। जो गुज़र रहा है। बस, इसे ही लिखते जाइए।



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