मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

Action Fantasy Inspirational

3.2  

मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

Action Fantasy Inspirational

तुम मेरी हो (कहानी)

तुम मेरी हो (कहानी)

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ये सफर कभी चटियल मैदानों का था तो कभी घने बियाबान जंगलों का। वक़्त के तपते रेगिस्तान के सफर की भी तुम साथी थीं तो मौसम की पहली बारिश की नन्ही-नन्ही बूंदों का स्वागत भी हमने खुले आसमान के नीचे एक साथ किया था। बहार के मौसम में बग़ीचों में फूलों की खिलती बयार में भी हम साथ-साथ घूमे थे। तो पतझड़ के मौसम में पेड़ से गिरे खाकर के सूखे पत्तों की खड़-खड़ाहट भी हमने सुनी थी। बिजली के तेज़ कड़क के साथ बादलों की गर्जना में भी हम खेलते-खेलते किसी छत के नीचे छुप कर एक साथ पनाह लिया करते थे। कल-कल बहती नदिया के किनारे बैठकर, बहते पानी को हथिलियों से उलीच कर एक दूसरे के ऊपर, घंटों बैठे अठखेलियां करते नहीं थकते थे। जानती हो न, जब हम एक बार मुंबई गए थे तो जूही बीच के तेज़ उठती लहरें के बीच खड़े होकर उनका मुकाबला करने में कितना आनंद आता था। जब पूरी तरह भीग जाते तो रेत के ढेर पर बैठकर कपड़े सूखने का इन्तिज़ार करते।

तुम हमेशा मेरे दुःख दर्द का साथी रहीं। बहुत वक़्त गुज़ारा है हमने साथ-साथ। सुख-दुःख, ख़ुशी और ग़म हर पल तुमने साथ दिया है। आखिर मेरे गुज़रे हुए हर पल की गवाह हो तुम।

मेरे साथ क्या हुआ, क्या होना चाहिए और क्या होगा, तुम्हें जैसे सब कुछ बहुत अच्छी तरह मालूम है। अभी भी हमें एक पल भी एक दूसरे से जुदा होना गवारा नहीं है। तुम मेरी जानशीं हो तुम्ही मेरी प्रेमिका हो। यक़ीन जानो मैं तुमसे बेपनाह प्यार करता हूँ। कोई तुम्हारे बारे में जब भी पूछता है तो तुम को उससे छिपाना चाहता हूँ। हद तो ये है कि तुम्हारे इस साथ को भी कम करके बताता हूँ। जबकि हमारा तुम्हारा चोली-दामन का साथ है।

वक़त का पंछी उड़ते-उड़ते आज यहाँ आन बैठा है। इसलिए मैं ने भी तुम्हें आज कुदरत के इन खूबसूरत नज़ारों के बीच बुलाया है। मुझे लगता है कि ज़िन्दगी के इस पड़ाव पर आकर हम साथ बैठे पुरानी यादें ताज़ा करें।

अपने हाथों में बंधी घड़ियों की सुइयों को भागने से थोड़ी देर को ही रोक दें। जी भर कर, अभी तक गुज़रे वक़्त का हिसाब करें। ज़िन्दगी के अलबम की उन सारी तस्वीरों को देखें जिनमें तुम मेरे साथ थीं। सारे गिले-शिकवे दूर करके, आज मैं तुम्हारे शुक्राने अदा करना चाहता हूँ। पता नहीं फिर वक़्त इसकी इजाज़त दे, न दे।

इधर कुछ दिनों से न जाने क्यों मुझे अहसास हो चला है कि तुम मुझ से कुछ रूठी हुई सी हो। मिलती तो अब भी हो लेकिन वो बेतकल्लुफी नहीं है। बात-बात पर एहसान सा जताती हो। पता नहीं कब साथ छोड़ कर चल दो? तुम्हारी शख्सियत से हँसी के फुव्वारे अब नहीं छूटते। तुम्हारे अंदर बला की संजीदगी जो आ गई है। जैसे तुम मुझे आने वाले वक़्त से आगाह करना चाहती हो। तुम्हारे चेहरे के तास्सुरात बहुत सारी नसीहतें और समझाइशें बयान कर रहे हैं। तुम मेरी मनमानियों से कुछ उखड़ी-उखड़ी सी लगती हो। तुम क्या सोचती हो? मुझे ये सब दिखाई नहीं देता क्या? खूब समझता हूँ। तुम्हारी हर एक नक़ल हरकत से वाक़िफ़ हूँ।

देखो, अब मुझ में भी बहुत गंभीरता आ गई है। अब पहले जैसा लाओबाली पन नहीं है। मैं अब अपने आप को सरेंडर करना चाहता हूँ। तुमसे वादा करता हूँ। बिल्कुल मनमानी नहीं करूँगा। जैसा तुम बोलोगी वैसा ही करूँगा। तुम्हारे हर इशारे को समझ जाऊँगा। तुम्हें कहने की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी। देखो ये क़ुदरत के नज़ारे अभी भी कितने हसीन हैं। चाँद भी वैसा ही है। इस मध्यम चाँदनी में दुनिया ऐसी लगती है जैसे दूध से नहाई हुई हो। ये चाँदनी भी न कई राज़ अपने दिल में छुपा लेती है। दफ़न कर देती है, हमेशा हमेशा के लिए। तभी तो इश्क़ और मुश्क इसकी रौशनी में परवान चढ़ते हैं। सूरज का क्या है। उसकी रौशनी तो हर राज़ उगल देती है। हवा में भी कितनी भीनी-भीनी खुशबू है। जैसे कहीं दूर रातरानी खिली हो। चलो हम उस टूटी दीवार पर चलकर बैठते हैं। वहाँ से शहर का नज़ारा भी साफ़ दिखाई देता है।

अब तुम आ ही गई हो तो मेरी ज़िन्दगी का पूरा फ़साना भी सुन कर जाओ। कहाँ से शुरू करूँ, बस यही समझ नहीं आ रहा। दास्ताँ भी बहुत लम्बी है। तुम्हें तो पता है।

ऐसा करते हैं, चलो अच्छा! शुरू से ही, शुरू करते हैं। पता नहीं बीच की कोई कड़ी छूट न जाए। फुफी बताती हैं मेरी पैदाइश के बाद दादी और अम्मी में मेरे नाम को लेकर काफी बहस हुई। दादी मेरा नाम हयात रखना चाहतीं थीं और अम्मी, मेहबूब लेकिन अब्बा ने आखिर दादी का फैसला ही सही माना। अब अब्बा के फैसले के आगे आखिर अम्मी ने हथियार डाल ही दिए। मुझे सुनकर बड़ा अफ़सोस हुआ। मेरी पैदाइश का पहला मरहला ही विवाद की गिरफ्त में आ गया। लगता है तभी से घर हो या ऑफिस, मैं विवादित ही हूँ। कोई भी मुझे सहज स्वीकार नहीं करता। कोई भी कामयाबी मुझे आसानी से नहीं मिलती। ऑफ़िस में भी बहुत मेहनत और लगन से काम करने के बाद, मैं विवादित ही रहा। बल्कि जितनी लगन और दिलचस्पी दिखाता था। उसी अनुपात में मेरा विरोध भी बढ़ता जाता था। प्रमोशन के समय तो ये विवाद और चरम सीमा पर होता। लेकिन लड़-झगड़ कर, किसी भी तरह अपनी जीत दर्ज करता चला आ रहा हूँ। बहुत दुश्वार थी ये ज़िन्दगी। तुम क्या समझती हो हर चीज़ बहुत आसानी से नहीं मिली।

चलो खैर छोडो उन बातों को। हम शुरू से बात कर रहे थे, न। अभी मेरे आँखों की पुतली ठीक से रूकती भी न थी कि मैं सही से देख पाता। लेकिन मुझे अहसास था जब भी दादी, नानी, फूफी और मौसी मुझे देखतीं तो मेरी बलाएँ लेकर मुझे ढेर सारा आशीर्वाद और दुआएं देतीं। लेकिन उन सबकी दुआओं में तुम्हारा ज़िक्र ज़रूर होता। हमारी पैदाइश भी साथ की ही जो है। फिर क्या था, एक नटखट बालक के रूप में, मैं धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। मेरी शरारतें घर की चारदीवारी लांघने के लिए बैचेन रहतीं। माँ की गिरफ्त छूटते ही घर से बाहर भागने का मन करता।

उस रोज़ तो भाग ही गया था। वापस आया तो अम्मी डंडा लेकर दरवाज़े पर खड़ी थीं। लेकिन आँगन की ही पत्थर की हथाई से जा टकराया। माथे पर गहरी चोट आई। कपड़े खून से लथपथ हो गए। अम्मी भी बदहवास सी हो गई। उसने डंडा तो दूर कहीं फेंक दिया। मुझे अपने कलेजे से चिपटा लिया। उसे समझ नहीं आ रहा था। तभी तुम शायद पड़ोसन मौसी के रूप आईं। कपड़ा जला कर उसकी राख मेरे ज़ख्म भर कर पट्टी बांध कर चली गईं। बाद में अब्बा ने अस्पताल में दिखाया। उसके बाद मेरी शरारतों में तो कमी नहीं आई। लेकिन अम्मी सख़्ती करने से डरने लगी। बल्कि उसे गुस्सा भी आता तो प्यार से समझाती।

अब मेरा स्कूल में दाखिला हो चुका था। अब्बा तो अंग्रेज़ों के ज़माने के पढ़े लिखे थे। लेकिन अम्मी चौथी क्लास तक ही पढ़ी थी। उसे पढ़ाने लिखाने का बहुत शौक था। अब्बा को बहुत परवाह नहीं थी। यही कारण था कि अम्मी-अब्बू में अक्सर बहस हो जाया करती।अम्मी, अब्बू से कहतीं तुम्हें तो हिसाब और अंग्रेजी भी आती है। तुम क्यों नहीं पढ़ाते इसे? लेकिन अब्बू का कहना था कि "मेरे खेलने के दिन हैं, अभी। जब वक़्त आएगा तो संजीदगी से पढ़ लूँगा।" इसमें शायद उनका लाड़ छुपा था। वे ज़ाहिर तौर पर मुझ से ज़्यादा बात नहीं करते थे। लेकिन मेरी परेशानियाँ और ज़रूरतें, उनके कामों की लिस्ट में सरे फेहरिश्त थीं। तभी तो मेरी हर फ़रमाइश पूरी होने में कभी देर नहीं हुई। अम्मी को ज़रूर उनकी ये बात पसंद नहीं थी। तभी तो उनसे कहती थी कि "बहुत सर चढ़ा रहे हो। देखना एक दिन पछताओगे।" हो सकता है अब्बू के अंदर समा कर तुम मेरी ज़िन्दगी आसान बना रही थीं।

मेरे उस्ताद बहुत चाहते थे मुझे। इसी का नतीजा था कि रिजल्ट के दिन प्रार्थना के बाद हेड मास्टर के द्वारा मुझे बेंच पर खड़ा किया जाता। अव्वल जो आता था, हर क्लास में। अम्मी भी अब चुप थीं। ये ज़रूर था कि मेरे शैतानियाँ भी अब कम हो रही थीं। लेकिन देर शाम तक खेलना और सुबह देर से उठना, उन्हें कितई गवारा नहीं था। गर्मियों की छुट्टियों में भी इस नियम का कड़ाई से पालन होता था। उस वक़्त पता नहीं था कि सुबह से उठा कर किस चीज़ की बुनियाद रखी जा रहे है। वह तो जब नौकरी लगी और उसकी ड्यूटी का टाइम सुबह सात बजे का तय हुआ तब पता चला कि इसकी ट्रेनिंग इसलिए थी। इस वक़्त भी तुम अम्मी के अंदर समा कर मेरी सुबह उठने की आदत डालकर ज़िन्दगी आसान बना रहीं थीं।

अब मैं किशोरावस्था पार कर युवावस्था में आ चुका था। जज़्बातों का एक सैलाब हिलोरें मार रहा था। इरादे बहुत बुलंद थे। लेकिन दुश्वारियां भी कम न थीं। ज़िन्दगी गुजारने का, कौन सा रास्ता अपनाया जाय? बस इसी सोच में रात दिन गुज़र रहे थे। इधर नौजवानी का रंग भी अपनी जगह धीमे-धीमे असर कर रहा था। लेकिन ज़िन्दगी की तल्खियों ने उसे फीका कर दिया। अभी आज़माइशों के इम्तिहान बाकी थे। जोश और जूनून पर हक़ीक़तों के होश के नाख़ून भी थे। यही वजह थी कि आखरत से पहले ही पुलसरात के रास्ते पर एकदम सीधा और साबित क़दम चलना था।

खैर इसका नतीजा भी सकारात्मक ही रहा। बहुत कम उम्र में ही एक छोटी सी ही सही लेकिन पक्की नौकरी मिल गई थी। मैं यहाँ भी ट्रेनिंग के बाद अव्वल था। यहाँ भी एक अच्छे रहबर की तरह तुम साथ थीं।

जब सारी परेशानियां और दुश्वारियां अलविदा कहने को थीं कि अब्बू का इन्तेकाल हो गया। शायद उनकी ज़िम्मेदारियों के स्थानांतरण की ज़मीन इसीलिए पहले ही तैयार कर दी गई थी। बहनों की शादियां होनी थीं। छोटे भाइयों के भविष्य बनने थे। चाचा, मामा, ताया के भी कुछ क़र्ज़ उतारे जाने थे। ख़ुशी को भी ग़म के बादलों ने एक बार फिर घेर लिया था। इन बादलों की गर्जन भी कुछ कम न थी। लेकिन जब भी तुम से बात होती तो तुम यही कहतीं कि "ये बादल भी अपना घनत्व बहुत देर तक खुद ही बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। देखना, एक दिन बरस कर चले जाएंगे। आसमान फिर साफ वैसा ही नीलापन लिये होगा। सूरज फिर उम्मीदों की किरणें लेकर खड़ा होगा। जो काली से काली कोठरी में भी दरवाज़े की ज़रा सी संद से रौशनी बिखेर देतीं हैं।'

हुआ भी ऐसा ही। न सिर्फ ये बादल बरस कर चले गए बल्कि इन्होंने ज़िन्दगी की ज़मीन को भी नम कर दिया था। जज़्बात, अहसासात, आरज़ुओं और तमन्नाओं के जो बीज अंकुरित हुए थे। वो पौधे को अब बड़े हो चले थे। उनमें नन्ही- नन्हीं सी कलियां बहार के मौसम की आमद दर्ज करा रही थीं। सारे फ़राइज़ अंजाम पर पहुँच चुके थे। बहनों के हाथ पीले कर अपने अपने घरों तरफ रवाना कर दिया था। तो भाईयों की तालीम मुकम्मल हो चुकी थी। वे भी अपनी अपनी पोस्टिंग पर पहुँच चुके थे। अब अम्मी को भी तन्हाई का अहसास हो चला था। तभी तो मेरे लिए एक हमसफ़र की तलाश जारी थी जो खूबसूरत और खूबसीरत के साथ हमख्याल भी हो।

शायद ऊपर वाले ने ये रिश्ता भी पहले से ही तय कर रखा था। तभी तो रिदा, ज़िन्दगी का सबसे बेहतरीन तोहफा बन कर मेरी ज़िन्दगी में शामिल हुई थी। ज़िन्दगी अब बहुत पुरसुकून और रवानी पर थी। तुम भी मेरे साथ थीं एक मेहबूबा बन कर। जिसके लिए प्यार का मतलब कुर्बानी था। हमेशा कुछ न कुछ तोहफे में देना तुम्हारी आदत जो थी। इसीलिए बहुत जल्द ही कुछ ही सालों के अरसे में एक बेटा और खूबसूरत सी बेटी तुमने मेरी झोली में दाल दी। अब उनकी परवरिश नई ज़िम्मेदारियों में शामिल थी। रिदा का साथ न सिर्फ बहुत खूबसूरत था बल्कि उसने भी मुझे मैनेज करना सिख लिया था।

वक़्त कैसे गुज़रता चला गया पता ही नहीं चला। हम तो जैसे वहीँ खड़े थे लेकिन बच्चे हमसे ज़्यादा बड़े और सयाने हो चले थे। बेटी मेरी बहुत परवाह करने लगी थी। शायद वह मुझे हमेशा जवान देखना चाहती थी। तभी तो अपनी अम्मी के साथ मेरे सूटलेंथ के कलर में बहुत दिलचस्पी लेती थी। शादी पार्टी में तैयार होते वक़्त आईने के बराबर खड़े होकर मेरी टाई और कालर भी ठीक कर देती थी। ज़माने के तौर तरीके और चलन को भी बताती रहती। कंप्यूटर और मोबाइल अप्प की अप-टू-डेट जानकारी भी उसी से मिलती थी। शायद अब तुम मेरी खैरखाह बनकर उस में समा चुकी थीं।

बेटा तो अपनी अम्मी से हमेशा शिकायत करता दिखाई देता,"आप कुछ कहती क्यों नहीं? पापा अपना घ्यान बिलकुल नहीं रखते। मैं ने महसूस किया है, अब उनकी याददाश्त कुछ कमज़ोर हो चली है। अकेले वाक पर मत जाने दिया करिये। बहुत लम्बा निकल जाते हैं। उनको कुछ सुनाई भी कम देने लगा है। लास्ट टाइम मेडिकल चेकअप में उनका शुगर लेवल भी बढ़ा हुआ था। डॉक्टर बता रहा था। ऊपर वाला बीपी भी ज़्यादा है। अभी से ध्यान रखने की ज़रूरत है।"

कल ही नौकरी से रिटायर हुआ हूँ। साहब कह रहे थे, "खान साहब, तो जवानी में ही रिटायर हो रहे हैं।" सभी सहकर्मियों ने ढेर सारी शुभकामनाओं और आशीर्वाद के साथ भावभीनी बिदाई दी है।"

रिदा तो बहुत खुश है। कह रही थी, "ज़िन्दगी भर काम किया। अब अच्छा है। घर पर बैठ कर आराम करना। अब की बार अम्मी ने फिर बालाएँ लेकर वही दुआएं दीं हैं जो पैदाइश के वक़्त दादी ने तुम्हारा ज़िक्र करते हुए दीं थीं।

इधर कुछ दिन से मेरे सीने में भी सदीद दर्द है। मैं ने अभी किसी को बताया नहीं। सोचा सबसे पहले तुम से मिल लूँ। तुम मेरी मेहबूबा ही नहीं मेरी उम्र भी तो हो। अब बताओ आगे के सफर में भी साथ दोगी कि नहीं?

तुमने ज़िन्दगी की इस पारी में मेरा भरपूर साथ दिया। अब तुम मुझ से नाराज़ हो क्या?



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