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मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

Romance

4.2  

मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

Romance

दिल है छोटा सा

दिल है छोटा सा

5 mins
535


ये ज़िन्दगी भी कितनी अजीब है। कैसे-कैसे रंग दिखाती है। कभी लगता है सभी आरज़ूएँ, सारी तमन्नाएँ पल भर में पूरी हो जाएँगी। तो कभी छोटी-छोटी आशाओं, आकांक्षाओं को पूरा होने में एक उम्र लग जाती है। और अगले जन्म का इन्तिज़ार होता है। कभी आसमानों में उड़ने की आशा। तो कभी चाँद तारों को छूने की आशा। मस्ती भरे पल को जीने की आशा। लेकिन एक छोटा सा दिल और एक छोटी सी उम्र इसमें ये सब कहाँ मुमकिन है? लेकिन दिल भी कुछ कम में मानने को तैयार नहीं है। उस पर तो जैसे किसी का ज़ोर ही नहीं चलता। 

हाँ, मानव बस इसी को पाने की चाह में जिये जा रही हूँ। रास्ते में बहुत मुसाफिर मिले। किसी ने एक अच्छे हमसफ़र की तरह साथ दिया तो कोई आधे रस्ते में ही छोड़ कर चल दिया। आज तुम्हारी फ्रेंड रिक्वेस्ट देखी। बिल्कुल नीरज जैसी। वही मुस्कुराता सा चेहरा जैसे अभी कुछ बोल देगा। वही बला का कॉन्फिडेंस जिसके बिना एक मर्द अधूरा सा लगता है। मैं ने दिल में सोचा, अरे ये सब तो मेरे साथ पहले भी हो चुका है। अब फिर से, ये कैसे संभव है। कहीं नीरज की ही तो फेक आईडी नहीं? ये नीरज कैसे हो सकता है ? तुम्हारा प्रोफाईल चेक करती हूँ। अब देखो न तुम्हारी बातों में और नीरज की बातों में कितनी समानता है। बस फर्क इतना सा है कि नीरज ग़ज़लों की बातें करता था रुबाइयाँ सुनाता था। कभी-कभी तो इस ज़िन्दगी से, इस समाज से, मौजूदा हालात से बग़ावत की बातें। तो कभी प्यारी सी महबूबा से ग़ज़लों के ज़रिये प्यार भरी बातें। हुस्नो-जमाल की बातें, शबे-विशाल की बातें। क्या जादू था उसकी ग़ज़लों में। ऐसा लगता की ज़िन्दगी में हरारत है, रवानी है। ये इंसान, ज़िन्दगी से जंग लड़ सकता है। ... और अपना हक़ हासिल भी कर सकता है। 

इसके हौसलों के परों पर बैठ कर मैं भी परवाज़ सकतीं हूँ। मैं भी उस आसमान को छू सकती हूँ। जहाँ गुरुत्वाकर्षण है ही नहीं। ज़रा सा सोचो और उड़ जाओ, अपनी सोचों की उड़ान साथ। लेकिन मानव तुम्हारी प्रोफाइल भी तो वैसी ही है। बस फर्क इतना सा है कि तुम्हारे पास कहीं तो परियों की सी कहानियाँ हैं। दिल को मस्त कर देने वाले किस्से हैं। ज़माने और समाज की बुराइयों की ज़ंजीरें तोड़ने के अज़्म की तक़रीरें हैं। प्यार मुहब्बत की दस्ताने हैं। तो मंटो के अफ़सानों की दीवानगी है। अंधेंरे और उजाले की बातें हैं। एक छटपटाहट सी है, समुन्दर के अंदर गोते लगाने की। इस धरती के अधिकाँश हिस्सों पर फैले पानी के रहस्य को जानने की। 

नीरज की बातें भी कभी यूँ ही हुआ करती थीं। उसने मुझे लिखना सिखाया था। शेर और शायरी में अपनी बात करना सिखाया था। रदीफ़ और क़ाफिये पर महारत हासिल थी उसे। दुष्यन्त की ग़ज़लों का दीवाना था। आसमान में पत्थर उछालने की बात करता था। सीनों में आग पैदा करने की बात करता था। उसने, अपनी बातों को अभिव्यक्त करना भी सिखाया था। एक अजीब सा सम्मोहन था। मैं खिंचती चली जाती थी। बिना किसी डोर के। मेरी एक-एक कमेंट पर तारीफों की बौछार कर देता था। मेरी डीपी की फोटो की अदाओं पर शेर तो उसकी ज़बान पर चढ़े रहते थे। मेरे प्यासे तन-मन पर जैसे खुशियों की बारिश कर देता था। कभी-कभी मुझे लगता, मेरी बढ़ती उम्र में, मेरा जादू कम तो नहीं हो रहा है। मगर हमेशा वो तसल्ली दिया करता था। तुम टीचर हो न तुम कभी रिटायर नहीं हो सकती। मुझे बताता था कैसे बोलना है, कैसे लिखना है? मैं हर बात उसकी मानती जाती थी। 

कभी-कभी मेरी पसंद को एक सिरे से खारिज भी कर देता था। मुझे बहुत गुस्सा आता, फिर मैं, मान भी जाती थी। वह अपना रौब धीरे-धीरे मेरे व्यक्तित्व पर जमाने की कोशिश करने लगा। मेरे अंदर एक अजीब सी छटपटाहट होने लगी। जैसे मैं उसके आभा मंडल से दूर कहीं विचरण करना चाहती हूँ। हमारे ईगो टकराने लगे। कई-कई दिन, बात-चीत भी बंद हो जाती। लेकिन मैं फिर झुक जाती। ठीक वैसे ही जैसे मेरे पति रवि और हम रोज़ लड़ते थे। छोटी-छोटी बातों पर। मेरी छोटी सी आशाओं की परवाह किये बिना रवि ज़िन्दगी जीने पर मजबूर करते थे। मैं रोज़ समझौता करती थी। दिन भर की लड़ाई रात को सुलह का सफ़ेद झण्डा लेकर खड़ी हो जाती थी। एक अच्छे दोस्त में पति को पाने की आशा। लेकिन जब भी नज़दीक जाती पति के अहं का बिजली का सा करंट लगता और दूर खड़ी हो जाती। 

सोचती, सलोनी तू क्यों भटक रही है। तू जानती नहीं क्या कि नीरज भी तो मर्द है? तो फिर क्या सारे मर्द ऐसे ही हैं। प्यार को पाकर इतरा जाते हैं। औरत के अरमानों की जागीर पर कब्ज़ा करने के लिए लालायित रहते हैं। प्यार की भीनी-भीनी खुशबू इन्हें इतना मदमस्त कर देती है कि एक मनचले शराबी की तरह ताजमहल की फोटो के सामने खड़े होकर साक्षात् ताजमहल को खरीदने का राग अलापने लगते हैं। क्या ये कभी शाहजहाँ-मुमताज़ के उस असीम प्रेम को समझ सकते हैं? 

शायद कभी नहीं। तो फिर मानव? हाँ मानव, मैं ने तुम्हारी कहानियाँ पढ़ीं हैं, इनमें मिलन की प्यासी बाकी हैं। इसके पात्र एक अजीब से प्रेम की चाह में भटकते हैं। एक दूसरे को अपना बनाना चाहते हैं। एक दूसरे के व्यक्तित्व में समा कर दो जिस्म मगर एक जान बनना चाहते हैं। तुम्हारी रूह बहुत प्यासी लगती है। तुम्हारी आत्मा प्रेम की मृग-मरीचिका में बरसों भटकी नज़र आती है। इसे सुकून चाहिए। वही शांति जिसकी मैं ने कल्पना की थी। वही आरज़ू जिसमें एक पैर ज़मीन पर हो और हाथ की उँगलियाँ आसमान की जुस्तजू में ऊपर उठी हों। और कोई पीछे आकर मुझे उठा ले। अपने पैरों के दम पर। मेरी कोशिश में उसकी कोशिश भी शामिल होकर मंज़िल की कामयाबी की ज़मानत बन जाए। 

हाँ, मुझे यक़ीन है मानव, तुम्हारे लेखों में इंसानियत का तकाज़ा सर चढ़ कर बोलता है। तुम्हारी कलम में इंसानियत की स्याही भरी है। जो तुम्हारी आत्मा से उतरकर आती है। मैं तुम्हारी फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर लेतीं हूँ। एक बार फिर एक अच्छा सा, प्यारा सा दोस्त बनाने की एक छोटे से दिल की छोटी सी आशा पूरी करने के लिए। 

एक मस्ती भरे मन की भोली आशा पूरी करने के लिए … 


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