उपन्यास (कहानी)
उपन्यास (कहानी)
ट्रैन के कंपार्टमेंट में, अब तक सुनीता और उमेश का सामान सेट हो चुका था। ट्रैन भी प्लेटफार्म छोड़ चुकी थी। और उसने रफ्तार पकड़ ली थी। शहर के गोल-गोल घूमते घरों की जगह अब हरे-भरे पेड़ पौधों ने ले ली थी। ये हरे-भरे जंगल तो कभी पहाड़ों का यह दृश्य सुनीता को खिड़की से बहुत खूबसूरत लग रहा था।प्रोफेसर उमेश तो ट्रैन की रफ्तार पकड़ते ही अपना पसंदीदा नावेल खोलकर उसके पन्ने पलटने लगे थे। सुनीता ने जैसे ही थर्मस से कप में चाय भरकर उमेश की ओर बढ़ाया। उमेश ने कहा रुको- "अभी नायक और नायिका का विवाद गहरा चुका है। उनकी कहानी क्लीमेक्स पर पहुंचने को है।"-"अरे, उमेश क्लाइमेक्स का क्या? नायिका का, नायक को छोड़कर जाना निश्चित है। क्योंकि नायक ने कभी भी नायिका के जज़्बातों की परवाह नहीं की। हमेशा अपने व्यवसाय को प्राथमिकता दी है। कल रात जब आप पढ़ते-पढ़ते सो गए थे। तब मैं ने आप के हाथों से अलग करके, दो चार पेज पढ़े थे। कल भी मैं बहुत रात, आपकी प्रतीक्षा करती रही और आप सोफे पर ही सो गए थे। नायिका के समक्ष जिस तरह की परिस्थितियां निर्मित हुईं हैं। उसका ऐसे में, ऐसा निर्णय लेना स्वाभाविक है।"आप चाय पीजिये और खिड़की के बाहर देखिए- "कितना दिलकश मंज़र है। अभी-अभी, कल-कल करके बहती हुई, नदी के पुल पर से हमारी ट्रेन गुज़री थी। आप तो बस पन्ने पलटने में तल्लीन थे और पैसेंजर सिक्के उछालकर मन्नतें मांग रहे थे। "उमेश, आखिर लेखक भी तो हमारी ज़िन्दगियों को ही शब्दों में पिरोता है। फिर क्यों न हम अपनी ज़िन्दगी को इतना खूबसूरत बना दें कि कोई हम से प्रेरित होकर ही उपन्यास लिख दे।" जब, यह कहते हुए सुनीता ने जोरदार ठहाका लगाया। तब प्रोफेसर भी अपना उपन्यास बंद करके सुनीता के चेहरे को ध्यान से देखने पर मजबूर हो गए। । "जैसे ज़िन्दगी के इस उपन्यास को पढ़ना अभी शेष हो।""ऐसे क्या देख रहे हो उमेश?"