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मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

Abstract

3.6  

मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

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बुलावा (कहानी)

बुलावा (कहानी)

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163


"हेलो नीरज, कैसे हो?"

" मैं ठीक हूँ दीदी, आप सब कैसे हैं? जीजा जी के क्या हाल हैं?"

"तुम्हारे जीजा जी आजकल बहुत व्यस्त हैं। तुम तो जानते ही हो पिछले कई वर्षों से उनको बिज़नेस में लगातार घाटा हो रहा है। किसी तरह उबरने की कोशिश कर रहे हैं। यही कारण है कि मैं रक्षाबंधन पर चाह कर भी नहीं आ पाती। इस बार भी रक्षाबंधन पर राखी पहले से भेज दी है , मिली कि नहीं?"

"दीदी, राखी तो नहीं मिली। मैं स्वयं आप को लेने आ रहा हूँ।"

आज जब भाभी वर्षा ने राखी की थाली सजा कर अनीता को दी। तो अनीता की आँखें नम हो गईं।

"अरे नीरज ये तो वही राखी है जो मैं ने भेजी थी।"

"हाँ दीदी, ये वही राखी है जो आपने भेजी थी। परन्तु वर्षा ने मुझे कहा था, झूठ बोलने को।उसी ने मुझे प्रेरित किया था। आपको बुलाने के लिए। आप इतनों दिन से घर नहीं आईं थीं न।"राखी बांधते हुए अनीता के दिल से भाई-भावज के लिए ढेरों शुभकामनाएं निकल रहीं थीं। भाई-भावज ने अनीता को घर बुलाकर न केवल उसके वजूद को ज़िंदा कर दिया था बल्कि इतने दिन बाद एक नन्हीं सी चिड़िया एक बार फिर अपने सुन्दर से बगीचे में आकर चहक रही थी। बाबुल के घर का बुलावा कितनी ही उम्र हो, बहना के जज़्बात को गौरव से परिपूर्ण कर देता है।


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