लोगतंत्र की रूपरेखा
लोगतंत्र की रूपरेखा
जैसा की लोगतंत्र की कहानी में मैं बता चुका हूँ, ‘लोगतंत्र’ के माध्यम से मैं एक पोलिटिकल नेटवर्किंग साईट (Political Networking Site) बनाना चाहता था। पर संसाधन और कल्पना के अभाव में ये सपना अभी तक अधूरा ही है। जिसकी मुख्य वजह है कि मेरे पास अभी तक राजनैतिक और प्रशासनिक समर्थन स्थापित करने की समस्या का समाधान नहीं था।
अपने अनुभव, अध्ययन और शोध पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि ये तभी संभव हो पाएगा, जब सरकार लोगों की हो, ना कि किसी उद्योगपति या पूँजीपति के आधार पर खड़ी हो। जो सरकार ख़ुद आत्मनिर्भर नहीं है, वो जनता को आत्मनिर्भर कैसे बना सकती है? वो तो आत्मनिर्भरता की आड़ में हमें उल्लू बना कर, अपना उल्लू सीधा कर रही है।
ख़ैर, समस्या तो सबको पता है, मेरा मक़सद समाधान देने का है, तो आते हैं - ‘लोगतंत्र’ के प्रारूप पर। सरकार जनता की तभी हो सकती है, जब इसमें चुने प्रतिनिधि जनता के बीच से आयें। ये तभी संभव है, जब देश की बागडोर सँभालने की चाहत और ताक़त देश के हर छात्र के अंदर हो। ख़ुद के छात्र जीवन को जब पलट-पलट कर देखता हूँ तो लगता है - पूरी-की-पूरी शिक्षा व्यवस्था छात्रों में एक नौकर तलाश रही है। कभी किसी ने समझाया ही नहीं कि हमारे देश में जो लोकतंत्र है उसकी कमान हमें अपने हाथों में थामनी है। हमें तो सिर्फ़ इतना ही बताया गया - “एक अच्छे और सच्चे नागरिक की ज़िम्मेदारी मतदान तक ही सीमित है।”
सिर्फ़ मतदान कर, हम अपनी ज़िम्मेदारियों से पीछा नहीं छुड़ा सकते। लोकतांत्रिक समाज को सुदृढ़ और समृद्ध करना भी हमारी ही ज़िम्मेदारी है। देश की गद्दी पर अपना हक़ जताना के ना सिर्फ़ अधिकार हमारा है, बल्कि लोकतंत्र में इस पर हक़ जताने का दायित्व भी हमारा है। ये भी हमारी ही ज़िम्मेदारी है कि अपनी संतान को इस काबिल बनायें की वो एक अच्छा नेता बन सके, ना की सिर्फ़ नौकरी-चाकरी में ही अपना जीवन काट दे।
अब हमारे सामने दो समस्याएँ हैं। पहली की कैसे छात्रों में इस ज़िम्मेदारी के इस भाव का संचार करें, और कैसे उन्हें इसके वहन के काबिल बनायें। दूसरी समस्या ये है कि अगर किसी तरह पहली समस्या का हल निकाल भी लिया, तो उनको देश की गद्दी तक कैसे पहुँचाएँ?
पहली समस्या का हल तो सैद्धांतिक दृष्टिकोण से आसान है। ज्ञान समाधान है और शिक्षा-तंत्र, उस ज्ञान का माध्यम बने। पर मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में इसकी गुंजाइश कम ही नज़र आती है। अपने आस-पास के सहपाठियों को जब देखता हूँ, तो लगता है - “इनसे ना हो पाएगा!”, क्योंकि उनकी जिज्ञासा को तंत्र ने मार दिया है। जब दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों को चोरी करते देखता हूँ, जो नीतिशास्त्र का विषय ख़ास तौर पर पढ़ते हैं, तब लगता है - “नैतिक समाज की कल्पना भी एक छलावा है।” जब शोध करते विद्यार्थियों को रेलवे का फॉर्म भरते देखता हूँ, तब एहसास होता है - “कितना बेमतलब-सा जीवन है इनका! जिसमें ना कोई उम्मीद है, ना ही कोई उमंग है। बस जीवन एक ही अर्थ बताया गया है इनको - जीविकोपार्जन ही इनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य है।” छात्रों में जो शिक्षा-व्यवस्था समाज के प्रति प्यार और ज़िम्मेदारी ना पैदा कर पाये, वैसी व्यवस्था को नष्ट कर देना ही उचित होगा। पर ऐसा करने से समाज में अराजकता फैल जाएगी और समाज अस्थिर हो जाएगा। जो किसी भी रूप में वांछित नहीं होगा।
इसलिए ज्ञान के प्रवाह के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था तैयार करनी पड़ेगी। आज तकनीकी रूप से ऐसा करना आसान है - “ऑनलाइन एजुकेशन” ने कई ऐसे दरवाज़े खोल दिये हैं जो आज से दस साल पहले बंद पड़े थे। मैंने ख़ुद - “हिंदीशाला” नाम से एक शैक्षणिक ऐप बनाया है, जिसमें पिताजी, जो हिन्दी के प्रोफ़ेसर और अपने विषय के विशेषज्ञ हैं, उनके वीडियो डाल रखे हैं। हिन्दी के कई छात्रों ने इसका लाभ उठाया। तो इस प्रकार अगर कुछ शिक्षकों, राजनीति के विशेषज्ञों की एक टीम बनायी जाये, तो छात्रों को राजनीति के लिए जागरूक किया जा सकता है। साथ ही उन्हें राजनीति में रोज़गार तलाशने का सपना भी दिखाया जा सकता है। सिर्फ़ सैद्धांतिक ज्ञान ही नहीं, बल्कि समाज-कल्याण हेतु इन छात्रों को प्रोत्साहित भी किया जाएगा। कई लोकतांत्रिक मंचों पर ये छात्र विचार-विमर्श के काबिल बन पायेंगे। समाज में इनकी अपनी एक पहचान बनने लगेगी।
साथ ही एक नेटवर्किंग साईट बनायी जाएगी, जिसमें इन छात्रों के प्रोफाइल डाले जाएँगे, फ़ेसबुक के जैसे। जहां वे देश-विदेश की विभिन्न समस्याओं और उसके समाधान पर अपना मत रखेंगे। जिसको जनता पढ़ पाएगी और इन भावी उम्मीदवारों से परिचित हो पाएगी। ये छात्र आपके और हमारे घरों से ही आयेंगे। अपने बच्चों का तो समर्थन करेंगे आप, करेंगे ना?
स्वाभाविक है, इस कोर्स की कुछ फ़ीस रहेगी। जिससे ‘लोगतंत्र’ का आर्थिक आधार मज़बूत होगा। गांधी जी ने कहा था अगर कोई संस्था लंबी चलानी है, तो उसका आर्थिक आधार मज़बूत होना चाहिए। छात्रों से जुटायी राशि पूँजी का काम करेगी, जिसे हम एक राजनैतिक पार्टी को खड़ा करने में प्रयोग करेंगे। पार्टी के अंदर भी एक लोकतांत्रिक ढाँचा होगा। इन छात्रों के बीच समय-समय पर कई प्रतियोगिता रखी जाएगी, जिसका उद्देश्य मौजूदा सामाजिक और राजनैतिक समस्या का हल ढूँढने का रहेगा। इस बिनाह पर छात्र अपनी लोकप्रियता स्थापित कर पायेंगे। पार्टी के अंदर एक सीढ़ी-नुमा ढाँचा होगा, जिसे पार करते हुए छात्र राजनीति में अपना कदम बढ़ायेंगे। पंचायत से ले कर पार्लियामेंट तक हमारी पार्टी इसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव लड़ेगी और इस व्यवस्था को पल-पल बेहतर बनाने का प्रयास करेगी।
तब कहीं शिकायत सुनने-सुनाने के लिए मौजूदा व्यवस्था तैयार हो पाएगी और ये परियोजना अपने दूसरे चरण की तरफ़ बढ़ेगी, जिसका ज़िक्र मैंने “लोगतंत्र की कहानी” के पाँचवें भाग में किया है। कुल मिला कर मेरे साहित्य की बुनियाद इन तीन आलेखों में मैंने व्यक्त कर दी है। निरंतर काम करता रहूँगा। समाज में नहीं तो साहित्य में अपना योगदान देने के लिए तत्पर रहूँगा।