Sukant Kumar

Drama Tragedy Inspirational

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Sukant Kumar

Drama Tragedy Inspirational

सिस्टम सही है?

सिस्टम सही है?

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लगता है आजकल जहां जाता हूँ, वहाँ एक क़िस्सा मेरा इंतज़ार कर रहा हो। चलिए ये भी क़िस्सा मैं आपको सुना देता हूँ।


पिछले कुछ महीनों से पिताजी के चुनावी प्रचार और लेखन में व्यस्त रहा। हर संभव कोशिश के बाद भी अभी तक इग्नू के ५ सवालों का जवाब नहीं लिख पाया ही, ताकि मेरा असाइनमेंट पूरा हो सके, और समय पर उसे जमा कर पाऊँ। कल ही उसकी आख़िरी तारीख़ थी। पूरे २० सवालों में अब सिर्फ़ ५ सवाल ही शेष हैं।


ख़ैर, कल एक और चीज की आख़िरी तारीख़ थी। भागलपुर विश्वविद्यालय में होने वाले दीक्षांत समारोह में शामिल होने के लिये फॉर्म और पैसे भरने कि। ज़ाहिर है, मैंने नहीं भरा।


कल मतदान के बाद पिताजी अपनी चुनावी वेशभूषा से बाहर आये। तब उन्होंने विश्वविद्यालय में हो रही हलचल का जायज़ा लिया। उन्हें पता चला कि दीक्षांत समारोह के फॉर्म भरने की कल आख़िरी तिथि थी। उन्होंने मुझे बुला कर पूछताछ किया कि मैंने फॉर्म भरा या नहीं।


उनको मेरा जवाब पता ही था। इसलिए उन्होंने कहा मार्कशीट ला कर दे दो, मैं कोशिश करूँगा कि तुम्हारा फॉर्म भरा जाये।


मेरे जवाब से उन्हें भी आश्चर्य हो गया होगा, जब मैंने बताया कि मुझे क्या पता मेरा मार्कशीट कहाँ है?


वे पूछे - “मतलब?”


“मैंने तो अभी तक देखा भी नहीं है। पता नहीं शायद विभाग में ही होगा। मुझे कभी ज़रूरत नहीं पड़ी तो लिया ही नहीं।”


उन्हें ज़्यादा आश्चर्य भी नहीं हुआ होगा। मेरी ऐसी लापरवाहियों की उनको आदत सी हो गई है। मैंने जब पहली बार नौकरी की थी, तब सन् २०११ में मुझे टैक्स रिटर्न का फॉर्म भरना पड़ा था। इसके बाद मैंने कमाना ही छोड़ दिया। तब से शायद ही ज़िंदगी में एक रुपया भी कमाया हो। 


ख़ैर, पिताजी ने कहा - “जाओ! अपना एडमिट कार्ड ले आओ।”


इस पर भी मेरा वही जवाब पा कर उन्हें थोड़ा ग़ुस्सा तो ज़रूर आया होगा, मैंने बोला - “पता नहीं कहाँ रखा होगा एडमिट कार्ड, खोजना पड़ेगा। पिछले साल की बात है, कोई पिछले हफ़्ते की बात थोड़े ही है, जो याद रहेगी।”


शायद, और माथा भुकाने की हिम्मत पापा में नहीं बची थी, इसलिए बस इतना बोल कर ऑफिस कि तरफ़ निकल गये - “खोज कर, फोटो खींच कर, मेरे ह्वाट्सऐप पर भेज देना। नहीं कम-से-कम अपना रोल नंबर ही लिख कर वहाँ डाल देना।”


उनकी इस असहायता को देख कर, मुझे बड़ी दया आयी। मैंने बोला - “ठीक है।”


फिर आ कर बैठ गया, दो-चार शब्द कहीं टूट कर बिखर चुके थे। किसी तरह टूटे हुए शब्दों को ही फ़ेसबुक की दीवार पर चिपका कर सुस्ताने बैठा ही था कि पापा की बात याद आ गई। मन भारी हो गया। बुझे मन से अनिशा को आवाज़ लगायी। “आती हूँ”, बोल कर बहुत देर तक वो भी नहीं आयी। थक-हार कर मैंने ही एडमिट-कार्ड की खोज शुरू कि।


उम्मीद से भी परे, मुझे जल्द ही एडमिट कार्ड मिल गया। शायद उसको ढूँढने के ख़याल में अँगड़ाइयाँ लेते हुए, मैंने ज़्यादा वक़्त बर्बाद कर दिया होगा।


झट से मैंने फोटो खींचा और पापा के व्हाट्सऐप पर भेज दिया।


फिर बैठ कर सोचने लगा। मैं अक्सर बस बैठ कर सोचता ही रहता हूँ। एक बेरोज़गार दार्शनिक और कर भी क्या सकता है? सोचते-सोचते मन में ख़याल आया असाइनमेंट बना लेना चाहिए। सोच कर ही मन बौखला गया। आधा-पौने घंटा तो उसकी बौखलाहट को शांत करने में गुजर गया।


बौखलाहट थोड़ी शांत हुई ही थी कि पिताजी का कॉल आ गया। मैंने फ़ोन उठाया।


उधर से पिताजी बोले - “सो रहे थे क्या?”


अब उन्हें कौन बताये अर्शे से मुझे नींद कहाँ आयी है। पर मैंने इतना साहित्यिक होना उचित नहीं समझा, इसलिए बोला - “नहीं पापा, क्या हुआ? बोलिये!”


बोले - “तो अभी तक रोल नंबर क्यों नहीं भेजे।”


अब मैं भौंचक्का रह गया। हड़बड़ा कर बोला - “एडमिट कार्ड खोज कर उसका फोटो ले कर भेज तो दिया था।”


उन्होंने ने “ठीक है! देखते हैं।” वाला आश्वासन दे कर फ़ोन रख दिया।


इस चुनावी दौर में पापा के ह्वाट्सऐप पर इतने मेसेज आते थे, कि मुझे उनके तीन-तीन ह्वाट्सऐप अकाउंट बनाने पड़े थे। दो-दो मोबाइल ले कर चलते हैं, नहीं दिखा होगा उनको। उनकी कोई गलती नहीं थी। इसलिए मैंने उनके बाक़ी दोनों नंबरों पर अपने एडमिट कार्ड कर फोटो भेज दिया।


इतना कुछ कर ही रहा था कि पापा का फिर कॉल आ गया।

मैंने उठाया - “हाँ, पापा।”


वे बोले - “मैंने कंट्रोलर से बात कर ली है। आवेदन पर उनके हस्ताक्षर भी करवा लिये हैं, तुम बस डिपार्टमेंट जा कर मार्कशीट निकलवा लो, किसी को बोल भी देता हूँ। वो यहाँ से तुम्हारे साथ भी चला जाएगा।”


पिताजी के विश्वविद्यालय के छात्र कल्याण अध्यक्ष होने का सिर्फ़ इतना ही लाभ मिला है मुझे, कि काग़ज़ी कारवाहियों में कम ही उलझना पड़ा है। प्राइवेट स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाई हुई है। वहाँ छात्रों को इतना परेशान कम-से-कम काग़ज़ों के लिए तो नहीं किया जाता है। ख़ैर, मेरा सौभाग्य है, वहाँ भी बहुत कम ही इन चक्करों में पड़ा हूँ। स्कूल तक मम्मी-पापा ने मोर्चा सम्भाले रखा। फिर कॉलेज में कोई ना कोई दोस्त मेरी मदद कर ही देता था। मैं उन सबका तहे दिल से आभारी हूँ।


मन-ही-मन आभार व्यक्त कर ही रहा था, कि एक अनजान नंबर से कॉल आया। जब आपको कॉल आ जाये, तो उठाना मजबूरी हो जाती है। मैंने भी उठाया, पूछा - “जी, कौन?”


उधर से उत्तर आया - “मैं यूनिवर्सिटी से बोल रहा हूँ, सर ने बोला है कि मैं आपके साथ विभाग चला जाऊँ और ले कर फॉरवर्ड करवा लाऊँ।”


मैंने बुझे स्वर में कहा - “जी, आता हूँ।”


“आते हुए अपनी एक पासपोर्ट साइज तस्वीर भी ले आइयेगा।”


मेरे पास और चारा ही क्या था, बोला - “ठीक है।”


बड़ी मुश्किल से अपनी तशरीफ़ उठायी। अब डिपार्टमेंट हाफ-पैंट तो जा नहीं सकता था। इसलिए पहले अपनी पैंट आलमारी से निकली, फिर अपना हाफ-पैंट उतारा। लगा टी-शर्ट भी गंदा हो गया है, इसलिए उसे भी उतारा। एक शर्ट की तलाश शुरू हुई। जो भी सबसे पहली मिली, पहन लिया। 


निकालने ही वाला था कि आईने में अपनी शकल नज़र आयी। बिखरे हुए बाल, सूखा हुआ थोपड़ा, फिर भी खिला हुआ चेहरा देख कर मैंने कंघी उठायी, जैसे-तैसे खड़े बालों को बैठाया। कल ही तो नहाया था, इलेक्शन बूथ पर जाने से पहले, आज नहा कर क्या फ़ायदा?


निकालने ही वाला था, कि याद आया कलम रख लेना चाहिए, वरना कोई ना कोई मेरे छात्र होने पर शक करेगा, क्या पता कहीं बेज्जत ही ना कर दे - “कैसे छात्र हो? एक कलम तक ले कर नहीं चलते।”


दो-चार बार बेज्जत किया जा चुका हूँ। इसलिए कलम भी रख लिया। बन-ठन कर मैं निकला। पैदल ही चल पड़ा विश्वविद्यालय की ओर। वहाँ वो भैया मेरा इंतज़ार कर रहे थे। अपनी बाइक उठायी, मुझे बैठाया और डिपार्टमेंट की तरफ़ चल पड़े।


मुझे लगा था, वहाँ तो काम आसान ही होगा, सारे शिक्षक मुझे भी पहचानते हैं, और उम्मीद है कि कम-से-कम मेरे विभाग के सारे शिक्षकों ने पिताजी को अपना मत दान किया ही होगा। मुझे यह भी लगा था, शायद ही इतने से काम के लिए मुझे अपने किसी शिक्षक से मिलना भी पड़ेगा। कितना ग़लत हो सकता हूँ, मैं? इसका तो अंदाज़ा भी नहीं था मुझे।


मैं सीधे विभाग के कार्यालय में घुस गया, घुसने से पहले - “मेय आई कम इन, सर” बोलकर शिष्टता से बड़े बाबू की इजाज़त भी कर डाली। पर उनके जवाब के आने से पहले ही मैं उनके कक्ष में दाखिल हो चुका था। अपना ही समझता आया था, अपने विभाग को, मैं कितना बेख़बर और अनजान था - आज पता चला।


मैंने बड़े बाबू से आग्रह किया - “सर, मेरा मार्कशीट दे दीजिए।”


वे बोले - “यहाँ नहीं है।”


मैंने पूछा - “तो कहाँ है?”


वे फिर बोले - “विभाग में किसी का मार्कशीट नहीं आया है, विश्वविद्यालय से ही मिलेगा।”


मैंने वहाँ खड़े भैया से पूछा - “तब तो मार्कशीट वहीं से मिल जायेगा। यहाँ तो कोई काम नहीं बचा।”


उन्होंने ने दफ़्तरी मुश्किलें समझाने का प्रयास किया - “वहाँ से मार्कशीट ले कर वापस यहाँ दीक्षांत समारोह वाले फॉर्म को फॉरवर्ड करवाने आना पड़ेगा।”


मुझे लगा इसमें क्या दिक़्क़त है, पहले यहाँ से फॉरवर्ड करवा लेते हैं, फिर विश्वविद्यालय से मार्कशीट ले कर दीक्षांत समारोह का फॉर्म विश्वविद्यालय में जमा कर देंगे। काम कितना आसान हो गया।


इस पर बड़े बाबू मुस्कुराए और बोले - “इस फॉर्म को तो हम तभी फॉरवर्ड करेंगे ना, जब ये सबूत मिल जाएगा कि तुम इस डिपार्टमेंट से पास हुए हो। है ना? इसके लिए जाओ और पहले अपना मार्कशीट के कर आओ।”


मेरे तो जैसे होश उड़ गये। ये वही बड़े-बाबू थे जो कभी विभाग के गलियारों से गुजरते हुए, मुझसे पूछते जाते थे - “ और सुकांत! कैसे हो?” और मैं “बढ़िया हूँ, सर आप कैसे हैं?” बोल कर निकल जाया करता था। वे आज मुझसे इस डिपार्टमेंट से पास होने का प्रमाण माँग रहे थे।


बग़ल में खड़े भैया ने बड़े बाबू से बोला - “आपके पास टी॰आर॰ (टेबुलेशन रजिस्टर, मतलब वो पन्ना जिसमें सारे बच्चों के नंबर विभाग के नोटिस बोर्ड पर लगता है) तो होगा ही ना, उसमें देख लीजिए कि लड़का पास हुआ है या नहीं?”


बड़के बाबू ने टांग पर टांग चढ़ाई और बोले - “जाओ टी॰आर॰ निकलवाने के लिए एक आवेदन लिख कर लाओ।”


मैं कुछ बोलता इसके पहले भैया बोल पड़े - “टी॰आर॰ ले कर घर नहीं जाना है। ये बस आपकी तसल्ली के लिए है।”


बड़े बाबू ने अपनी आवाज़ में थोड़ी गंभीरता भरी, ज़बरदस्ती, बोले - “ये सब काग़ज़ी काम है। इसमें मैं क्या कर सकता हूँ?”


मुझे ग़ुस्सा आ गया, मेरी भी आवाज़ थोड़ी ऊँची हुई, बोला - “आवेदन लिखने के लिए एक पन्ना तो दे सकते हैं, या वो भी बाज़ार जा कर ख़रीद कर लाऊँ?”


वे विचलित हुए, चपरासी को आवाज़ लगायी - “राम बाबू, जरा लड़के को एक पन्ना निकाल कर दे दीजिए।”


बेचारे बुजुर्ग व्यक्ति जो कार्यालय के बाहर स्टूल पर बैठे थे, उन्हें उठना पड़ा। मेरी ख़ातिर। कार्यालय के अंदर आना पड़ा, बड़का बाबू के पास वाले आलमारी से एक पन्ना निकाल कर मुझे देने। मैं शर्मिंदा हो गया। बड़का बाबू पर अब ग़ुस्सा बढ़ता जा रहा था। निश्चय ही पिताजी को वे ज़रूर जानते होंगे, अगर वे पधार गये तो “जी हुज़ूर, जी हुज़ूर” करके सब काग़ज़ तुरंत दुरुस्त कर देते। पर पिताजी तो वहाँ थे नहीं।


ख़ैर, वो ख़ाली पन्ना मेरे हाथ में था, कलम घर से लाया ही था। बड़े बाबू से पूछा क्या लिखना है? बड़े जटिल अन्दाज़ में, अफ़सरी भाषा में तेज़ी से बहुत कुछ बोल गये। मेरा माथा घूम गया। शब्दों की निकली शताब्दी एक्सप्रेस को थमने का प्रयास किया। लगा सिर्फ़ इतना लिखना है, कि श्रीमान से निवेदन है कि वे टी॰आर॰ निकाल कर मेरे पास होने के दावे को अपनी स्वीकृति दें और मेरे दीक्षांत समारोह के फॉर्म को फॉरवर्ड करने के लिए अपनी तशरीफ़ उठायें, बग़ल वाले विभागाध्यक्ष के कमरे में ले जा कर उनके हस्ताक्षर करवाने का कष्ट करें। 


बड़ा वाहियात लगा मुझे ये निवेदन लिखने का कष्ट करना, इसलिए मैंने भैया से पूछा - “एक बात बताइए सिर्फ़ सर के हस्ताक्षर ही चाहिए ना?”


उन्होंने बोला - “हाँ”


“तो सीधे विभागाध्यक्ष के पास चलते हैं, इतना लंबा-चौड़ा आवेदन लिखने की क्या ज़रूरत है?”


बोल कर मैं बड़का बाबू के दफ़्तर से अपनी तशरीफ़ ख़ुद उठा ली। बड़का बाबू हंसे - “बोले विभागाध्यक्ष आज छुट्टी पर हैं।”


मा…. मन में ही जज़्बात कुचल कर मैंने बड़ी शालीनता से उनसे पूछा - “तो महाशय! आप किससे साइन करवाने जाने वाले थे।”


अनायास ही उनके मुँह से प्रभारी मैडम का नाम निकल गया। मैं मैम के कमरे की तरफ़ चल पड़ा। लगा अब तो आसान काम है, मैम तो मुझे और मेरे रिजल्ट को अच्छे से जानती है। उन्हें सबूत की क्या ज़रूरत? पर मुझे कहाँ खबर थी कि मैं कितना ग़लत आदमी हूँ।


मैम ने भी मार्कशीट माँग ही लिया। भारी बोझिल सी धुन में बड़का बाबू के साथ हुई मुठभेड़ की कहानी सुनायी। मैम की ममता जाग उठी, बोली - “तुम्हारे फ़ोन में तो मार्कशीट की कॉपी होगी ही, निकल कर दिखा दो।”


रिजल्ट आये दो-चार, पता नहीं कितने महीने गुजर चुके हैं। ह्वाट्सऐप की कब्र में जाने कहाँ छिपा होगा टी॰आर॰? कहाँ खोजूँ मैं? मुझे तो ये भी याद नहीं कि उस समय मैं इस फ़ोन का इस्तेमाल करता भी था या नहीं? पता नहीं, मिलेगा भी या नहीं?


ना जाने कितने सवालों से जूझता मैं ह्वाट्सऐप की कब्र से मैसेजों की परतें उखाड़ने लगा। कुछ नये सवाल भी उठे - क्या मैम मुझे पहचानती नहीं है? क्या उन्हें याद भी नहीं कि अपने बैच का मैं ही टॉपर हूँ? रुआँसा सा, ह्वाट्सऐप की कब्र मैं खोदता गया, कहीं टी॰आर॰ की दफ़नाई लाश मुझे मिल भी गई। पर उसके मिलने की कोई ख़ुशी नहीं हुई। मैम को उदास मन से दिखा दिया। वे बोली - “जाओ बड़ा बाबू को बुला कर लाओ।”


पता नहीं, साइन करने के लिए उन्हें बड़े बाबू की क्या आवश्यकता पड़ गई? बग़ल वाले कमरे में ही थे। पर वहाँ तक जाने कि मेरी हिम्मत नहीं थी। फिर भी कोई और उपाय नहीं था। दबे पाँव से चार कदम चल पड़ा, पहुँच कर बोला - “बड़े बाबू, मैडम ने आपको बुलाया है। चलिए॥”


बड़का बाबू हंस पड़ा, बोला - “पड़ गई ना मेरी ज़रूरत?”


उनको दंभ भरता देख मेरा ग़ुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। ग़ुस्से और बौखलाहट में विभाग के गलियारे में मैं चिल्लाया - “आना है तो आ जाइएगा, वरना मैडम को बोल दूँगा, आपने मना कर दिया है, अगर मैडम को कोई काम होगा तो उनसे निवेदन करूँगा वे ख़ुद आपके पास चल कर आ जायें। और नहीं, तो मैं घर जा रहा हूँ, वैसे भी मुझे किसी भी समारोह में शिरकत होने का इतना भी कोई शौक़ नहीं है।”


चिल्लाते हुए, मैडम के कमरे में पहुँच गया। रास्ते में एक सर का कमरा पड़ता है, जिन्होंने विभाग में टी॰आर॰ आने के बाद ह्वाट्सऐप पर मुझे बधाई संदेश भेजा था। विभाग के गलियारों में शोर सुन कर वे भी मेरे पीछे मैडम के कमरे में पहुँच गये।


मैंने मैडम से कह दिया - “बड़े बाबू व्यस्त हैं, नहीं आ सकते। आप फॉरवर्ड करेंगी तो ठीक है। वरना रहने दीजिए। अब और मेहनत मैं नहीं कर सकता।”


सर ने जानकारी लेने की लिए, मुझसे पूछताछ कि। बुझे मन से मैंने सारा वाक्य उन्हें सुनाया और बोल बैठा - “सर, पता नहीं सिस्टम में इंसान काम भी करते हैं या नहीं? जो दूसरे इंसान को पहचानने से भी इनकार कर देते हैं? क्या सिस्टम में इंसानियत की कोई जगह नहीं है?”


सर से मुझे सहानुभूति की उम्मीद थी। सर ने उस पर भी पानी फेर दिया, बोले - “सिस्टम अगर ठीक से अपना काग़ज़ी काम नहीं करेगा तो भ्रष्टाचार बढ़ेगा ना?”


मैं अंदर से चिढ़ चुका था, आपा खोते हुए, ऊँचे आवाज़ में बोल गया - “सर सिस्टम इतना पेंचीदा है कि इसके जाल में सिर्फ़ ईमानदार लोग ही फँसते हैं, बेईमान लोग आराम से निकल जाते हैं। अगर बड़का बाबू को पहले ही ५०० रुपये का काग़ज़ थमा दिया होते, तब किसी काग़ज़ की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। तो कबका मामला सलट गया होता।”


इतना बोल कर मुझे ग्लानि हुई। कहीं मैं अपने शिक्षक का अपमान तो नहीं कर बैठा? आख़िर उन्होंने कुछ ग़लत भी तो नहीं कहा था। पता नहीं क्यों मैं इतनी जल्दी, इतनी छोटी सी बात पर इतना क्यों भड़क जाता हूँ? 


सर को बुरा लगा होगा। मैं माफ़ी माँगना चाहता था। पर वे मुझे शांत करने और दिलासा देने ले लिये ख़ुद हो बोल पड़े - “आज तक मुझे यहाँ कोई दिक़्क़त नहीं हुई.....” फिर अपने क़िस्से सुनने लगे, जिन्हें मैंने एक कान से सुनकर, दूसरे से बाहर निकाल दिया। बाद में मुझे इसका अलग से अफ़सोस हुआ।


ख़ैर, तब तक मैम ने अपनी स्वीकृति देते हुए, अपने हस्ताक्षर से मेरे फॉर्म को सुशोभित कर दिया था। वे बोलीं - “जाओ, राम जी को बोलना, विभाग की मोहर ले आयें।”


बेमन से मैं उस वृद्ध व्यक्ति के पास गया। उनसे अपनी बात कही। दुखते घुटनों पर हाथ रखते हुए, कमर को सम्भालते किसी तरह वे उठे, बड़का बाबू के पास गये, मोहर ला कर उन्होंने, मुझे दे दिया। बड़का बाबू यथावत अपने स्थान पर बैठा रहा। पता नहीं कितना ज़रूरी काम कर रहा था?


कितनी छोटी सी बात थी, दीक्षांत समारोह में शामिल होने कि। इसके लिए पता नहीं कितनी हिल-हुज्जत करनी पड़ी। गोल्ड मेडल मिलने वाला है, इसी लालच में इतना कुछ सह गया। अब पता नहीं, जाऊँगा भी या नहीं?


मैं ग़लत हो सकता हूँ, पर क्या आपको लगता है - सिस्टम सही है?


या तस्वीर जो मैंने पोस्ट में लगायी है, इसके लिए भी मैं किसी का आभारी हूँ, और अपने सभी पात्रों का भी। आपने पढ़ लिया, इसलिए मैं आपका भी आभारी हूँ॥


ध्यान रहे ये एक क़िस्सा ही है, इसके सच या झूठ होने का फ़ैसला आपको ही करन है।


मुझे अपने किसी पात्र से कोई शिकायत नहीं है। मैंने तो आते वक़्त बड़का बाबू से बोला भी था - “माफ़ कीजिएगा सर, अगर आपको मेरी किसी बात बुरा लगा होगा। मेरे कटाक्ष और व्यंग्य इस सिस्टम के ख़िलाफ़ थे, आपके ख़िलाफ़ नहीं।”


आख़िर रिश्ता तो बना कर रखना ही पड़ता है, अभी इसी विभाग से शोध भी करना है। कहीं इतनी छोटी सी घटना का बदला बड़का बाबू ऐंन-टाइम पर ना निकाल लें। ख़ैर तब का तब देखा जाएगा।


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