लोगतंत्र की कहानी
लोगतंत्र की कहानी
भाग 1: आकर्षण
कहानी शुरू होती है - सन् 2004 से। 2003 में दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर अपने लिए आगे की दिशा तलाशने के लिए मैं संघर्षरत था। कंप्यूटर और इंटरनेट की दुनिया उस वक़्त अपने बाल-अवस्था से निकल कर किशोरावस्था में प्रवेश की तैयारी कर रही थी। ईमेल, याहू का चैट मैसेंजर, आदि बाज़ार में आ चुके थे। शायद 2001 का साल था जब पिताजी ने मुझे पहला कंप्यूटर ख़रीद कर दिया था। इंटरनेट-स्पीड मुस्किल से 280 kbps की थी, अक्सर इसके प्रयोग के लिए मैं इंटरनेट कैफ़े जाया करता था।
इक अनजाना सा आकर्षण मुझे इस दुनिया में खींच रहा था। शायद इसलिए मैंने फ़ैसला किया था कंप्यूटर इंजीनियर बनने का। इसी मक़सद से मैं कोटा गया पर अफ़सोस मैं असफल रहा। पर मन नहीं माना, इसलिए दुबारा तैयारी करना चाहता था, पिताजी से ज़िद्द कर वापस कोटा गया। पर बनना था मुझे सॉफ़्टवेयर इंजीनियर और मुझे पढ़ाया जा रहा था - रसायन-शास्त्र, गणित और भौतिक विज्ञान। भौतिक विज्ञान तो फिर भी समझ आता था, गणित की भी ज़रूरत समझ आती थी, पर अपने उद्देश्य के लिए रसायन-शास्त्र की ज़रूरत मैं कभी समझ ही नहीं पाया। नतीजा हुआ मैं फिर असफल रहा।
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भाग 2: संघर्ष
2006 का समय था। पिताजी ने मेरी लालसा समझी और किसी तरह अपने दिल और जेब पर पत्थर रख, मेरा दाख़िला नागपुर के कॉलेज में करवा दिया। वहाँ मैंने शिक्षा-दीक्षा शुरू की, कई दिशाहीन सहपाठियों से प्रेरित हो कर अपने मार्ग से भटक गया। साथ ही पठन-पाठन की कर्कश पद्धति से ऊब गया। जब मैं अपने शिक्षकों से आग्रह करता कि वेबसाइट या सॉफ़्टवेयर के निर्माण के तरीक़ों पर प्रकाश डालें, तो उनका जवाब मिलता - “ये सब सिलेबस का हिस्सा नहीं है। अपना समय क्यों बर्बाद करते हो।” मुझे ग़ुस्सा आता। धीरे-धीरे मैं विद्रोही बन गया। कई शिक्षकों से बहस करता, कुछ की तो बेइज्जती भी कर डालता। इस ग़ुस्से में मैं अपना नुक़सान करने लगा। कॉलेज की आंतरिक परीक्षाओं की उत्तर पुस्तिका पर बस अपना हस्ताक्षर कर जमा कर परीक्षा-कक्ष से निकल जाता। परिणामस्वरूप, इंटरनल के 20 नंबरों में मुझे 10 से कभी ज़्यादा नहीं आये। किसी तरह एक-दो रात की तैयारी से मैंने इंजीनियरिंग की डिग्री सेकेंड डिवीज़न में हासिल कर ही ली।
कुछ शिक्षक तो मुझसे इतना खार खाते थे कि मुझे अपनी कक्षा में घुसने ही नहीं देते। एक ने तो अपने हाथ जोड़ लिए, और मेरे समक्ष प्रस्ताव रखा कि मेरी प्रॉक्सी वो ख़ुद लगा देंगी, शर्त बस इतनी थी कि उनकी कक्षा में मैं अनुपस्थित रहूँ। कारण सिर्फ़ इतना था कि वो मैडम रोज़ एक पीपीटी(PPT) ले कर आती, प्रोजेक्टर पर चढ़ती और उसकी व्याख्या दे कर निकल जाती। मुझे ना कोई सवाल-जवाब, ना कोई व्यावहारिक ज्ञान मिलता। एक दिन ऊब कर मैं क्लास में खड़ा हुआ और अपनी चिंता ज़ाहिर कि। मैडम ने मुझे क्लास से निकाल दिया और कभी ना आने की सलाह दी। बदले में मेरी उपास्थि वो ख़ुद अपने कर-कमलों से लगती। अपनीं विजय पर इतराता हुआ मैं कैंटीन में बैठने लगा।
इस बीच मेरा परिचय फ़ेसबुक (Facebook) से हुआ। इसके पहले ऑरकुट(Orkut) चलता था। सोशल नेटवर्किंग से मेरी जान-पहचान बढ़ी। मार्क ज़करबर्ग की कामयाबी के क़िस्से सुन कर प्रेरित हुआ। मैंने सोचा जब सोशल नेटवर्किंग इतनी क्रांति कर सकती है तो पोलिटिकल(राजनैतिक) नेटवर्किंग तो धूम मचा देगी। फिर ट्विटर आया। उसकी सफलता की कहानी से मुझे और प्रोत्साहन मिला। एक डिज़ाइन तैयार करने लगा। कॉलेज में रहते मैं इसे कोई मुकम्मल आकर देने में असमर्थ रहा। सहपाठियों से अपनी कल्पना बाँटी, पर किसी के पास कोई सुझाव नहीं था, शिक्षकों के पास भी नहीं।
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भाग 3: जीविकोपार्जन की जद्दोजहद
देखते-देखते 2010 आ चुका था और कॉलेज के चार साल पूरे होने को आये। आख़िरी साल में कैंपस प्लेसमेंट के लिए कंपनियाँ आनी शुरू हुई। सबके के अपने-अपने मानदंड थे, किसी को फर्स्ट क्लास बच्चे ही चाहिए थे, तो किसी को इंटर में 80 प्रतिशत से ऊपर नंबर। मैं लगभग कंपनियों के मानदंड पर खड़ा नहीं उतर पाया। एक दिन एक स्टार्टअप आयी, ओपन प्लेसमेंट का तौफ़ा लिए। कुल 1100 प्रत्याशी पहुँचे, मैं भी दोस्तों के साथ ऐसे ही टाइम-पास करने पहुँच गया। पहले चरण में कुछ ऊटपटाँग से सवाल पूछे। मैंने यूँ ही जो मन में आया लिख कर आ गया। पता चला दूसरे चरण के लिए सिर्फ़ 11 छात्र का चयन हुआ है, उसमें से एक मैं था। मुझे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। पर वो एक छोटी कंपनी थी, और सिर्फ़ एक कर्मचारी के लिए जगह थी, जो मुझे नहीं मिली।
फिर एक बड़ी कंपनी बिना किसी शर्त लिए आयी। अपने दोस्तों के साथ अपनी औक़ात नापने पहुँच गया। मेरे पास खोने को कुछ नहीं था। मुझे नौकरी पाने की लालसा भी नाम मात्र ही थी। कैंपस चयन से सिर्फ़ इतना ही हासिल होना था, कि अपने माँ-बाप के ईमानदारी से कमाए पैसों की लाज बचा सकूँ। तीन चरण में चयन होना था। पता नहीं कैसे, हर चरण से गुजरते हुए, मेरा चयन हो गया। ख़ुशी के मारे मैं नाच उठा। पर नौकर बनने की ख़ुशी कब तक मनाता?
कंपनी से शर्त रखी थी कि कम-से-कम दो साल उनके अधीन ही काम करना पड़ेगा। ये शर्त मुझे रस नहीं आयी। मैंने अपने अभिभावक से इस पर चर्चा भी कि, उनकी राय थी - एक मौक़ा मिला है, और दो साल का अनुभव जीवन में काम आयेगा। मैं राज़ी हो गया, और बँधवा मज़दूरी करने पहुँचा। पहले ही दिन मुझे बाहर का रास्ता दिखाने का फ़ैसला सुनाया गया, क्योंकि मेरी डिग्री में ना सिर्फ़ अनुकंपा के नंबर जुड़े थे, बल्कि उसे जोड़-जाड़ कर भी मैं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण नहीं हो पाया था। कंपनी के मानव संसाधन विभाग (HR Department) के एक कर्मचारी ने मुझे बाहर का दरवाज़ा दिखाया। अफ़सोस और ख़ुशी के मिश्रित भाव से मैंने अपना बस्ता-बोरिया उठाया और निकल पड़ा। पता नहीं क्यों, एक चपरासी मेरे पीछे आया और बोला - “सर आपको बुला रहे हैं।”
मैं वापस गया, कंपनी के मानव संसाधन विभाग के अध्यक्ष ने बुलाया और बोले - “अगर तुम चाहो तो ट्रेनिंग ले सकते हो, उसके बाद होने वाली परीक्षा में अगर पास हो गये तो तुम्हारी नौकरी पर पुनर्विचार करेंगे।” मैं इस प्रस्ताव को ठुकराना चाहता था। पर अंदर से हिम्मत नहीं हुई और ये भी लगा शायद यहाँ मुझे तकनीकी ज्ञान मिल सकता है। इसलिए मैंने जॉइन कर लिया। छह महीने बाद इम्तहान हुए, मैं आराम से उत्तीर्ण हो गया। मुझे नौकरी मिल गई।
मुझसे किसी ने नहीं पूछा मैं कंपनी में क्या भूमिका निभाना चाहता हूँ। मैं सॉफ्टवेयर डेवलपर बनना चाहता था, पर मुझे मिली कंपनी के फाइनेंस डिपार्टमेंट को सपोर्ट देने की ज़िम्मेदारी। दिन भर वहाँ से लोग मुझे कॉल करते और मैं उनकी समस्या का समाधान करने का प्रयास करता। कंपनी की अठन्नी भी गुम हो जाती तो मुझ पर कारवाही होती। तीन-तीन विभागों की सहायता करनी पड़ती। सुबह के दस बजे से रात के आठ बज जाते। शनिवार और रविवार को भी बुलावा आ जाता था। ओवरटाइम के 200 रुपये मिलते थे।
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भाग 4: मोहभंग
मन ऊबने लगा था। किसी तरह एक साल गुजरा। अपने कॉलेज से कुछ जूनियर भी कंपनी में आये। उनमें कुछ परिचित थे। एक ने बताया कि मेरे कारनामों के क़िस्से आज भी कॉलेज में चर्चा का विषय हैं। हमारे विभागाध्यक्ष मेरा उदाहरण कुछ इस प्रकार देते थे - “एक लड़का था, जिसे पूरे डिपार्टमेंट के शिक्षक फेल करने में लगे थे, और वो लड़का अपने दम पर ना सिर्फ़ पास हुआ, कॉलेज से नौकरी भी ले कर गया।” सुन कर मेरी छाती चौड़ी हुई।
किसी तरह छह-सात महीने और गुजरे, दो साल की अवधि पूरी ही होने वाली थी। एक दिन पता चला की कंपनी के काग़ज़ों में मैं सिर्फ़ एक विभाग के लिए ज़िम्मेदार था, बाक़ी दो विभाग का काम एक दूसरा मैनेजर अपने नाम से मुझसे करवाता आया था। मुझे लगा ये तो अत्याचार हुआ है। मैं मानव संसाधन विभाग पहुँचा, और अपनी चिंता ज़ाहिर कि और माँग रखी की मुझे पहले तो अतिरिक्त ज़िम्मेदारियों से मुक्त किया जाये और मुझे सपोर्ट से हटा कर डेवलपर का पद दिया जाये। विभाग ने मेरी एक ना सुनी। मैं चुप-छाप अपना इस्तीफ़ा उसकी मेज़ पर रख कर घर आ गया। अगले दिन एक कॉल आया - “आप कंपनी नहीं छोड़ सकते, अभी दो साल पूरे नहीं हुए हैं और अगर छोड़ना है तो एक लाख रुपये देने होंगे।”
मुझे अपनी हालत पर रोना आया। रुआंसे से मन से पिताजी को अपनी समस्या बतायी। मेरे हर्ष का कोई ठिकाना नहीं रहा, जब पिताजी बोले - “घर आ जाओ। अगर कंपनी ने केस किया, तो देख लेंगे।” मैं वापस घर की तरफ़ निकल पड़ा। काग़ज़ी कारवाही का सवाल ही नहीं था, तो मुझे ना मेरी पीएफ के पैसे मिले ना मिला मुझे अनुभव-पत्र। लगभग डेढ़ साल बाद, ख़ाली हाथ घर लौट आया - बिना किसी योजन-प्रयोजन के। मेरी समझ में नहीं आ रहा था - “आगे क्या?”
संभावनाओं की तलाश शुरू हुई। एक संभावना दिखी आगे की पढ़ाई करने में। एमटेक के लिए आयोजित परीक्षा(GATE) की तैयारी शुरू हुई। पाँच-छह महीने की तैयारी थी, देश भर के 4-5 लाख उम्मीदवारों में मुझे 5865वाँ स्थान मिला। इस स्थान पर आईआईटी में दाख़िले का सपना देख भी नहीं सकता था, दुबारा तैयारी करने की हिम्मत नहीं हुई। सोचा “संघ लोक सेवा आयोग”(UPSC) की तैयारी कि जाये, अगर सफलता मिली तो राजनीति को क़रीब से देखने का मौक़ा मिलेगा, जिससे ‘लोगतंत्र’ की कल्पना को आकर देने में सहायता मिलेगी। इस फ़ैसले को पहुँचते-पहुँचते वक़्त लगा, जब तैयारी शुरू कि, तब मुश्किल से 6 महीने शेष बचे थे। तैयारी पूरी नहीं हो पायी, जिस कारण से मैं फिर असफल रहा।
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भाग 5: लोगतंत्र का प्रारंभिक ढाँचा
तैयारी करने कुछ दिन दिल्ली में रहने का मौक़ा लगा। ये समय था 2014 का, जब भारत की राजनीति करवट ले रही थी। मोदीजी अपनी लहर में देश को लहरा रहे थे। उस वक़्त काफ़ी बारीकी से मैंने देश की खबरों का अनुसरण किया। रोज़ अख़बार पढ़ता। इसके पहले किसी ने अख़बार पढ़ना सिखाया ही नहीं था और मेरी कोई रुचि भी नहीं थी। तैयारी के बीच में मैंने थोड़ी फ़ुरसत निकाल वेबसाइट बनाना भी सीखा। अपने पिताजी के लिए एक वेबसाइट बनाया भी। तैयारी के दौरान मिली सूचना और ज्ञान के आधार पर पहली बार ‘लोगतंत्र’ की कल्पना को एक शकल मिली, वो चेहरा कुछ ऐसा था -
“देश के राजनैतिक और प्रशासनिक ढाँचे को वेबसाइट पर तैयार करना, फिर विभिन्न विभाग से जुड़ कर जनता की समस्या के समाधान के लिए प्रयास करना। उदाहरण के लिए - अगर आपके आसपास की सड़क नहीं बनी हुई है तो आप हमारे साईट पर आ कर अपनी शिकायत दर्ज कर सकते हैं या इस तरह की कोई भी शिकायत जो सामाजिक जीवन से जुड़ी हो। फिर हमारा सिस्टम आपकी शिकायत को सही प्रशासनिक विभाग तक पहुँचा देगा। जैसे सड़क की शिकायत नगर निगम के संबंधित अधिकारी के पास, अगर उसने उचित कारवाही नहीं कि, तो ये शिकायत अपने-आप एक अवधि के बाद उस विभाग के सुपरवाइज़र तक पहुँच जाएगी, फिर भी अगर कारवाही नहीं हुई तो एमएलए, एमपी तक आपकी बात पहुँचेगी। वहाँ तक भी कुछ नहीं हुआ तो मुख्यमंत्री तक, वहाँ से भी कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी तो प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक हमारा सिस्टम आपकी बात पहुँचा देगा। इस तरह से प्रशासन नेता की कम और जनता के लिए ज़्यादा ज़िम्मेदार होगा और सामाजिक संरचना में सुधार आयेगा।”
यूपीएससी में असफलता, वेबसाइट बना पाने के सामर्थ्य और ‘लोगतंत्र’ का सपना, साथ लिए 2014 में मैं घर वापस लौटा। मैंने इसे “सोशल रिपोर्टिंग साईट” के रूप में अवतरित करने का फ़ैसला लिया। पत्रकारिता की ताक़त को जान-साधारण तक पहुँचाने का सपना देखा। पिताजी से अपनी योजना पर विचार-विमर्श किया। कुछ दोस्तों को तैयार किया, एक कंपनी बनायी। 2015 का समय रहा होगा। पर मेरी योजना में आर्थिक लाभ के श्रोत की कमी थी। उसे पूरा करने के लिए मैंने अपनी योजना को विस्तार दिया -
“इस सिस्टम से हम राजनैतिक पार्टी को जोड़ेंगे और उनके चुनाव प्रचार के लिए मुहिम चलाने के पैसे लेंगे। साथ ही मौजूदा मीडिया को खबर भी बेच देंगे। इसके अलावा स्थानीय से लेकर देश के स्तर पर सक्रिय एनजीओ को जोड़ेंगे, जिससे समाज का और भला हो पाएगा।”
पर इस योजना पर मेरे सहकर्मियों को बिलकुल भी भरोसा नहीं हुआ। उन्होंने इससे जुड़ी कई समस्याओं पर प्रकाश डाला। एक तो यह कि राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में सक्रिय लोग कभी अपना सहयोग नहीं देंगे। बात बिलकुल सही लगी। मन भारी हुआ। फिर भी लगा, कुछ लोग भी अगर साथ दिये और मेरी कल्पना का पहिया एक बार चल निकला तो फिर रुकेगा नहीं। मेरे इस तर्क पर किसी को यक़ीन नहीं हुआ, शायद मुझे भी नहीं। आपको भी नहीं हुआ होगा, तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा।
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भाग 6: एक और प्रयास
ख़ैर, घिसटते हुए एक-दो साल कंपनी चली। मुनाफ़ा नहीं होने के कारण बंद करनी पड़ी। वक़्त था - 2017 का, जिस वर्ष मेरी शादी हुई। ना मेरे पास रोज़गार था, ना जीवनयापन का श्रोत, ना ही ऐसी कोई उम्मीद। पर क़िस्मत साथ थी। एक ऐसी पत्नी मिली जिसकी ऐसी कोई माँग ही नहीं थी। उसने मुझे वैसे ही स्वीकार किया, जैसे मैं था। और जैसा मैं था, उस पर ही उसे गर्व हुआ। मेरी हर नाकामयाबी को उसने सहजता से स्वीकार किया। पर अब एक परिवार था, जिसके लिए मैं ज़िम्मेदार था।
इसलिए अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए मैंने यूपीएससी की तैयारी दुबारा करने का फ़ैसला लिया। इस बार क़िस्मत ने धोखा से दिया। पिछली बार से कहीं बेहतर तैयारी थी। पूरे आत्मविश्वास के साथ परीक्षा देने गया। जैसा की आप सब को पता होगा, तीन चरण में होती है ये परीक्षा। जिसके पहले चरण में वस्तुनिष्ठ प्रश्न पूछे जाते हैं और उनके उत्तर ओएमआर शीट पर लिए जाते हैं, जिसकी जाँच कंप्यूटर द्वारा की जाती है। मेरी परीक्षा का केंद्र कोलकत्ता में पड़ा था। जून का महीना था, मानसून ने अभी-अभी बंगाल की खाड़ियों में प्रवेश किया था। उस दिन सुबह से ही मूसलाधार बारिश हो रही थी।
पहले सत्र में सब-कुछ ठीक रहा। पर दूसरे सत्र के अंतिम समय में कहाँ से हवा एक झोंका आया और खिड़की से आये पानी में मेरी मेहनत से रंगी ओएमआर(OMR) शीट ने गोता मार दिया। घबरा कर मैंने शीट उठायी और पोछा। कलाम से रंगे बुलबुलों पर लगी स्याही पूरे पन्ने पर बिखर गई। मैंने कक्षा में मौजूद परीक्षा निरीक्षक को अपनी समस्या बतायी, और उसने अपनी असमर्थता। अपने आँकलन के अनुसार मैं यूपीएससी का पहला पड़ाव ज़रूर पार कर जाता, पर जब रिजल्ट आया तो वही हुआ जिसका डर था। मैं असफल रहा। परीक्षा के बाद मुझे घर लौटने की भी जल्दी थी, क्योंकि मैं बाप बनने वाला था। घर में एक फ़रिस्ते का स्वागत करना था। क़िस्मत से हारा हुआ ही सही, मैं वापस घर लौटा। मुझे बेटी हुई। मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता अगर डॉक्टर ने इतने बुरे दिन नहीं दिखलाए होते। इस घटना पर एक कहानी लिख चुका हूँ - “पिता की प्रसव पीड़ा” के नाम से।
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भाग 7: झरोखा
लगभग 6-7 महीने लगे मुझे, मेरी पत्नी, बच्ची और पूरे परिवार को सामान्य स्थिति में आने में। फिर वही सवाल सामने था - “आगे क्या?” ना वापस आईटी की दुनिया में लौटना संभव लगा, ना आगे ही कुछ सूझ ही रहा था। वापस लौटने का मतलब था, अपने जूनियर के नीचे काम करना, जो मेरे स्वाभिमान को पल-पल ललकार रहा था। दुबारा यूपीएससी की तैयारी की ना हिम्मत बची थी, ना ही उम्र। क्या पता अगली बार ओएमआर शीट में आग लग गई तो। वस्तुनिष्ठ प्रश्नों में वैसे भी क़िस्मत का बड़ा खेल है। ये पहला पड़ाव ही मुझे हतोत्साहित करता रहा है।
दूसरी तरफ़ माँ-पिता की कमाई पर पलने और अपना परिवार पालने का बोझ, मुझे शर्मिंदा कर रहा था। एकल परिवार में इकलौती संतान होने के कारण कोई पारिवारिक समस्या का सामना नहीं करना पड़ा।
पिताजी भागलपुर शहर के विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। इसी बीच विश्वविद्यालय में एक प्रावधान आया कि किसी भी विषय के विद्यार्थी किसी भी विषय में स्नातकोत्तर कर सकेंगे। कुछ पाबंदियाँ थी, जैसे कला के विद्यार्थी का विज्ञान में जाना संभव नहीं था, ऐसी ही कुछ और पाबंदियाँ भी थी। पर मैं दर्शनशास्त्र या मनोविज्ञान पढ़ना चाहता था और ये संभव था। तो मिल-जुल कर ये फ़ैसला हुआ कि मास्टर डिग्री के लिए प्रयत्न किया जाएगा। दो साल के पाठ्यक्रम में चार साल लगे। पर इसी दौरान मुझे वो झरोखा दिखा, जिसके आधार पर मैंने लोगतंत्र की रूपरेखा एक नये अन्दाज़ में बनायी। तो चलिए, देखते हैं ये नयी रूपरेखा कैसी है?
