Sukant Kumar

Inspirational

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Sukant Kumar

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नेति-नेतिः छात्र क्यों ख़ुदख़ुशी कर लेते हैं?

नेति-नेतिः छात्र क्यों ख़ुदख़ुशी कर लेते हैं?

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राम और रावण में सिर्फ़ स्वाभिमान और अभिमान, मतलब सिर्फ़ ‘स्व’ या ‘स्वयं’ का ही अंतर था। राम को अपनी अच्छाई की खबर थी, रावण अपने आप से बेख़बर था। तभी तो विभीषण उसका भाई था, और राम के भाई लक्ष्मण थे। ख़ुद को समझने के बाद जो अभिमान बच जाता है, वही स्वाभिमान कहलाता है। अहंकार में इंसान ख़ुद को भी नहीं पहचान पाता। 


अतः, जीवन का एक मात्र लक्ष्य ख़ुद को समझना है।


ख़ुद को समझने का रास्ता कठिन है, क्योंकि वो रास्ता दिखता तो सीधा है, बिलकुल सीधा, जैसे एक बड़े से पाइप में हमें चलना है, एक छोर से घुस कर दूसरे छोर से निकल जाना है। मगर इस पाइप में एक समस्या है, हवा दोनों छोर से बराबर रफ़्तार से चल रही है। हवा की रफ़्तार हमारे रफ़्तार के ठीक बराबर है। जिस कारण ना हम आगे बढ़ पाते हैं, ना हम पीछे हट पाते हैं। वहीं के वहीं फँसे रह जाते हैं। हमें ये भी पाता नहीं होता, कि हम सिर्फ़ एक कदम मंज़िल से दूर हैं - हर वक़्त, हर जगह। अगले कदम पर मोक्ष है, इससे बेख़बर हम संघर्ष करते रहते हैं। अक्सर हम ख़ुद के लिए पाइप फाड़ कर नया रास्ता बनाने में अपनी ऊर्जा और वक़्त गँवाते रहते हैं। हम ना आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं, ना पीछे हटने कि।


वो रास्ता - “नेती-नेती” का है। ख़ुद को पहचान देने के क्रम में हमें अपनी हर पहचान को नकारने का रास्ता तलाशना है। जब नकारने को कुछ नहीं बच जाएगा, तब आप ख़ुद बच जाओगे। उस एक कदम को बहुत कम लोग उठा पाये, जहां वे ख़ुद को हर रूप से नकार कर पहुँचे। बुद्ध की कहानी का सामाजिक सच इसका सबूत है। बुद्ध ने ख़ुद को एक पति की पहचान से मुक्त किया, एक पिता के संबंध को नकारा। सब कुछ नकारने की ज़िद्द में वे एक पेड़ के नीचे बैठ गये। जिस दिन उन्होंने हर प्रकार से अपनी वैश्विक-पहचान से ख़ुद को मुक्त कर दिया, उन्हें ‘निर्वाण’ मिल गया, वे सिद्धार्थ से बुद्ध बन गये। इस तरह बुद्ध स्वाभिमान के रास्ते आगे बढ़ निकले।


वैसे तो आधी दूर हमारे मोदी साहेब भी पहुँच गये हैं। पर वे रास्ता भटक गये। चले तो थे वे बुद्ध के रास्ते ही, पहले सेज-संबंधियों से पीछा छुड़ाया, फिर पत्नी से पिंड छुड़ा लिया, उनके बच्चों का कोई ठिकाना नहीं पता मुझे। उनसे गलती रास्ता चुनने में हो गई। वे पाइप में पीछे की तरफ़ अपने कदम ले गये, उन्होंने स्वाभिमान का रास्ता चुनने की जगह अहंकार का रास्ता चुन लिया। इसी रास्ते उन्होंने विपक्ष से भी अपनी पहचान को नकार दिया। अब उनकी पहचान पर जनता को शक होने लगा है, आख़िर वे चौंकीदार हैं या चोर?


ख़ैर, ज़ाहिर है, हम सब ना बुद्ध बन सकते हैं, ना ही मोदी। हमें तो अपनी साधारण सी मिडिल-क्लास ज़िंदगी काटनी है। पर “नेति-नेति” के रास्ते पर कुछ दूर चलने से हमारा वैश्विक-जीवन सरल हो सकता है। 


मैं इस बात को समझाने के लिए सिर्फ़ अपना उदाहरण दे सकता हूँ। जब मैंने दसवीं कक्षा पास कि, किसी ने मुझे ऐसा करने की सलाह नहीं दी। ख़ुद की सामाजिक-पहचान को तलाशना, हमारी स्वाभाविक जिज्ञासा होती है। इस पहचान को स्थापित करने के लिए, हम अपना परिवार देखते हैं, परिवेश देखते हैं, फिर एक फ़ैसले पर पहुँचते हैं कि अपने सामाजिक क्षेत्र में हम क्या कर सकते हैं, क्या नहीं? 


जैसे मेरे माता-पिता ने मुझे पढ़ाने के लिए गाँव-घर से दूर, भागलपुर नाम के शहर में डेरा डाला, ताकि मेरी शिक्षा-दीक्षा एक अच्छे इंगलिश मीडियम स्कूल में करवा सकें। इस फ़ैसले में मैं कोई भूमिका अदा करने में अक्षम था, क्योंकि मैं बहुत छोटा था और मेरी तार्किक बुद्धि का विकास नहीं हुआ था। इसलिए किसी तरह से मैंने दसवीं कक्षा पास कर लिया। अभी तक मेरी पहचान माता-पिता और मेरे रिजल्ट पर निर्भर करता था। पर अब मुझे अपने जीवन का पहला फ़ैसला लेना था - 

“आगे क्या? “


ख़ैर इस कहानी को सुनाने के लिए मैं अलग से एक उपन्यास लिखने वाला हूँ। पर सारांश यही है कि मैंने ख़ुद को एक इंजीनियर की पहचान से नकार दिया। फिर एक अफ़सर की पहचान की तलाश में निकाल, यूपीएससी में मिली असफलता के कारण मजबूरन इस पहचान को नकारना पड़ा। एक कंपनी शुरू कि, जो डूब गई। मजबूरन एक एंटरप्रेन्योर की पहचान को भी नरकारने का अवसर प्राप्त हुआ। इतनी असफलता के बाद मैंने असफलता को ख़ुद की पहचान के रूप में स्वीकार करने का प्रयास किया। इस पहचान को मेरे परिवार ने नकार दिया। 


फिर जीवन निरर्थक लगने लगा। उम्मीद की तलाश में दर्शन की शरण में पहुँचा। एक दार्शनिक के रूप में अपनी पहचान बनाने कि कोशिश कर रहा हूँ। अपने दर्शन को समझ देने के लिए शब्द देना अनिवार्य लगा। इसलिए ख़ुद को एक लेखक के रूप में पहचानने का प्रयास कर रहा हूँ। इसके लिए मुझे अपने भूत को स्वीकार करना पड़ेगा, और फिर शायद इस पहचान को साबित करने के बाद भी लालसा बची रही तो एक और पहचान तलाशूँगा, और अंत में मुझे उसे भी नकारना पड़ेगा। अगर इस जन्म में ये अभियान पूरा नहीं हो पाया तो मुझे अगला जन्म लेना पड़ेगा।


इस तरह से मेरा संघर्ष चल रहा है। पर इस बात को मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, कि हर पहचान को मिटा देने के बाद जीवन आसान लगने लगता है। हाँ, इस संदर्भ में एक बात और स्वीकार करना ज़रूरी प्रतीत होता है, कि फ़िलहाल मेरे और मेरे परिवार के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी मेरे माता-पिता उठा रहे हैं। इसे कथन से आपको तार्किक दृष्टि से ऐसा लग सकता है, की मैंने अपने परिवार में अपने माँ-बाप को शामिल नहीं किया है। अगर आपको भी ऐसा लगा तो क्षमा चाहूँगा, कि आप सही हैं। 


जिस समाज का मैं हिस्सा हूँ, वहाँ वर्ण व्यवस्था भी है और आश्रम व्यवस्था भी। मतलब पच्चीस साल कि उम्र के बाद मैं गृहस्थ आश्रम में पहुँच गया और क़ायदे से माता-पिता को वनों की तरफ़ प्रस्थान कर लेना चाहिए और अपने नये परिवार के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी मुझे अपनी पत्नी के साथ मिल कर पूरी करनी चाहिए। वरना धार्मिक स्तर पर मैं अधर्मी और सामाजिक स्तर पर नालायक ही ठहराया जाऊँगा। साथ ही मुझे अपने सनातन धर्म के अनुसार पितृ ऋण भी चुकाना है। जिसके लिए जीविकोपार्जन के लिए मुझे काम करना ही पड़ेगा। आज कल लोग भले आदमी को भीख भी कहाँ देते हैं?


तो ख़ुद की एक पहचान मुझे यहाँ से प्राप्त हुई - “नालायक” वाली। ख़ैर, इसे नकारने का ढोंग लिए बिना मैं भी इस समाज के अनेक सदस्यों की तरह आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाता। मैं इस बात से इनकार भी नहीं कर सकता कि कई बार आत्महत्या की कल्पना ने मेरे मन में अपना घर बनाया है। पर हर बार मैंने अपनी मृत-पहचान से ख़ुद को नकार कर आपके समक्ष खड़ा हूँ। सांस लेता हुआ, अभी यह लिख रहा हूँ।


इतना कुछ नकारने के बाद अपनी नहीं पायी पहचान - एक दार्शनिक और लेखक के रूप में ख़ुद को समृद्ध देख पाता हूँ। स्वाभिमान से अपनी असफलता को स्वीकार कर लेने से कई नये आयाम खुले। पहले भी कई बार लेखक बनने का सपना मैंने देखा था। पर कभी समझ नहीं आया - “लिखूँ तो, लिखूँ क्या?” मेरे पास लिखने को है ही क्या? 

ना मेरे पास कोई दैवीय शक्ति है, जिसका विवरण दे कर मैं अपने पाठकों को भ्रमित कर सकूँ। जैसे लेखन के शक्ति तुलसीदास में थी। 

ना ही जीवन में कोई सफलता हासिल कि जिसको लिख कर पढ़ने लायक़ एक संस्मरण ही लिख पाऊँ।

ना तो मेरा इश्क़ इतना पाक था, की मैं मजनू बन पाता और अपनी मोहब्बत की दास्तान लिख देता।

ना ही कभी इतनी कल्पना-शक्ति का आभास हुआ कि एक महाभारत लिख डालूँ।


और ना जाने कितना कुछ मुझे मजबूरन नकारना पड़ा, क्योंकि मैंने ख़ुद को अपनी या किसी और कि आँखों में इतना काबिल नहीं समझ पाया।


इतना कुछ स्वेक्षा से या परीक्षा से मुझे नकारना पड़ा। तब जा कर लिखने को इतना कुछ मिला कि एक किताब लिखने के बाद, मेरे पास छह और किताब की रूपरेखा तैयार है। जिसे मैं आपके साथ इस फ़ेसबुक अकाउंट के ज़रिए बाँट चुका हूँ। जिस दौरान एक औसत उपन्यास जो क़रीब चालीस हज़ार शब्दों का होता है, मैं इस अकाउंट पर ही लिख चुका हूँ। कुछ लोगों ने इसे पढ़ा भी और पसंद भी किया।


मैं आप सब का आभारी हूँ, जो मुझे इतना प्रोत्साहन दिया। इस आलेख के पहले मैं यहाँ साठ हज़ार शब्दों से ज़्यादा लिख चुका हूँ। जल्द ही अपने किताबों और शोध पर भी काम करना शुरू करूँगा। 


इतना लिखने का मेरा दो उद्देश्य है -

पहला, इस “नेति-नेति” के रास्ते छात्र अपने लिए एक ऐसा करियर चुन सकता हैं, जो उनके जीवन को उचित अर्थ दे पाये।

दूसरा, हमारे समाज और हमारी शिक्षा व्यवस्था को हमें पर्याप्त अवसर देना चाहिए, ख़ुद की लिए अनेक पहचान को नकारने का। 


जैसे उसे हमें बताना चाहिए कि हम डॉक्टर भी बन सकते हैं नहीं भी।

 इंजीनियर भी बन सकते हैं, नहीं भी। 

क्लर्क भी बन सकते हैं, नहीं भी।

नेता भी बन सकते हैं, नहीं भी।

वैज्ञानिक भी बन सकते हैं या कवि भी। 


मुझे ये देख कर अफ़सोस होता है कि समाज और ख़ास कर शिक्षा व्यवस्था हम पर हमारी पहचान थोप रही है। जो क्लास में पढ़ाई में अच्छे हैं, वे अफ़सर ही बनेंगे, आईएएस बन कर माँ-बाप का नाम रौशन करेंगे। जो उनसे थोड़े नीचे अकादमिक पायदान पर हैं, वे डॉक्टर या इंजीनियर बनेंगे, उनसे नीचे जो बच गये वे क्लर्क और किरानी। और जो समाज के किसी लायक़ नहीं बचे, परिवार वालों ने उन्हें कहीं-न-कहीं पारिवारिक जीवन से बेदख़ल कर दिया। जिस कारण वे बग़ावत पर उतर आये। इनमें से कुछ बाग़ी बनने के क्रम में आज के नेता बन गये, जिन्हें वहाँ भी जगह नहीं मिली वे गुंडा-गर्दी पर उतर गये, और इस रास्ते राजनीति में भी वे दम-दाखिल हो गए। जिन्हें ये भी रास नहीं आया वे मोह-माया से ऊपर उठ गये और आज के साधु-महाराज बन गये, और इस रास्ते रणनीति और व्यापार में अपनी जगह बना ली। 


वरना साधु-महात्मा तो जंगलों में मिलने चाहिए, पंच-सितारा होटलों में, महँगी से महँगी गाड़ियों में नहीं घूम रहे होते। धर्म के नाम पर दंगे नहीं करवा रहे होते। मुख्यमंत्री बन कर तानाशाही नहीं कर रहे होते।


अब आप ही फ़ैसला करें आप अपने बच्चों को क्या बनाना चाहते हैं? और क्या आपको लगता है कि मौजूदा शिक्षा-व्यवस्था आपके बच्चों का जीवन आसान कर रही है? और अगर सचमुच शिक्षा-व्यवस्था अपना काम बखूबी कर रही है, तो देश में छात्रों के बीच आत्महत्या का दर इतना ज़्यादा क्यों है?


सोचने वाली बात है, सोचो और अपनी राय दो। अगर अपने बच्चों से प्यार करते हो, तो इतना कर ही सकते हो अपने बच्चों के लिए। नहीं?

आँकड़े आप ख़ुद देख लीजिए, कुछ कीजिए, कहीं इन आँकड़ों में आपका बच्चा भी शामिल ना हो जाये?


अपनी पहचान को स्वीकार कर नकार पाने में असमर्थ छात्र, ख़ुदख़ुशी कर लेता है।

जब अपने ऊपर थोपी गई सामाजिक पहचान स्थापित करने में असफल हो जाता है, ख़ुदख़ुशी कर लेता है।

अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी का वहन करने में हारा हुआ वह व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है।


यह आलेख, भारतीय दर्शन के दो महावक्यों पर आधारित है, जो प्रायः हर समृद्ध दर्शन का हिस्सा भी है - “अद्वैतवाद” के सिद्धांतों की बुनियाद भी। वे दो महावक्य हैं -

“अहम ब्रह्माश्मी” और ब्रह्म को परिभाषित करने के लिए प्रयोग किया जाने वाला सत्य - “नेति-नेति”।


मैं आपने आँकलन में कितना सही हूँ, इसका फ़ैसला मैं आप पर छोड़ता हूँ? उम्मीद है, आप भी ख़ुद से सवाल करेंगे और जवाब भी देंगे।



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