श्राद्ध
श्राद्ध
बदले सामाजिक परिस्थिति में ‘क्रियाकर्म’ की पद्धति में परिवर्तन की आवश्यकता है। मेरे ख़याल से एक नयी परंपरा की शुरुआत करनी चाहिए। मृतक के शरीर को जलाने के बाद उसकी अस्थियों को नदियों में ना बहा कर, ज़मीन में एक पेड़ के बीज के साथ रोप देना चाहिए। जिसकी देख रेख की ज़िम्मेदारी मृतक के बचे परिवार की नैतिक ज़िम्मेदारी हो।
ऐसा करने से नदियों में बढ़ते प्रदूषण पर नियंत्रण किया जा सकता है। साथ ही जो बीज हमने अपने परिजनों के अवशेष के साथ बोयेंगे, उस पेड़ को मृतक के शरीर से प्रारंभिक पोषण मिलेगा। जिससे उनका जीवाश्म उस पेड़ के साथ संरक्षित रहेगा, जो उस पेड़ के बीज के साथ कालांतर के लिए इस नश्वर संसार में विद्यमान रह पाएगा। उस पेड़ को आप अपने प्रियजनों का नाम दे कर रक्षा करने से, वायुमंडल से प्रदूषण कम होगा। हरियाली छायेगी, और आने वाली पीढ़ी का जीवन बेहतर होगा। वह पेड़ अपने परिवार के बच्चों को छाँव भी देगा, सांस लेने के लिये शुद्ध हवा के साथ पोषण भी।
उदाहरण के लिए - अगर आम का पेड़ रोपा जाएगा, तो आने वाली पीढ़ी उस आम का मज़ा ले पाएगी। साथ ही परिवार के सदस्य उस पेड़ की रक्षा करेंगे, जिससे वे अपनी ज़मीन से जुड़े रह पायेंगे।
जिन परंपराओं में मृत शरीर को दफ़नाया जाता है, उसमें पत्थर पर नाम कुरेदने से अच्छा एक पेड़ को उनका नाम नाम देना चाहिए, जिससे सामाजिक जीवन और वातावरण लाभान्वित होगा।
ऐसा बोध हो सकता है, ऐसा करने से क्या फ़र्क़ पड़ेगा? फ़र्क़ तब पड़ेगा जब परिवार का हर सदस्य उस पेड़ से भावनात्मक स्तर पर जुड़े, उसे बड़ा और फलदायी बनाने में अपनी भूमिका निभाये।
यह कोई साधारण पेड़ नहीं होगा, इससे हमारा व्यक्तिगत और भावनात्मक रिश्ता होगा। हमारे पुरखों का पेड़, जिसकी नींव में उनके अस्तित्व की मिठास होगी। धर्म और शास्त्रों को वर्तमान की ज़रूरतों का ख़याल रखते हुए संशोधित करते रहना चाहिये। वरना उसमें आयी स्थिरता से समाज में सड़ांध आने लगती है।
फिर धरती हरी होगी। पेड़ों के फलों से हमें पोषण मिलेगा और पूर्वजों के दिये फलों की मिठास हमारे साथ उनकी स्मृतियों के साथ बची रह जायेंगी।