Sukant Kumar

Others

3  

Sukant Kumar

Others

एक अंधभक्त दोस्त

एक अंधभक्त दोस्त

7 mins
237


यह घटना आज सवेरे-सवेरे घटी, जिसके बाद मुझे लगा - “मेरा कोई दोस्त नहीं है। पर, इसके लिए मैं अपने सारे दोस्तों का आभारी हूँ, तुम्हारा भी।”


ये आश्चर्य की बात है कि मेरा कोई दोस्त नहीं है, क्योंकि मैंने शायद ही किसी को आज तक धोखा दिया होगा या किसी से उधार लेकर चुकाया नहीं होगा। झूठ भी कम ही बोलता हूँ। जहां तक मुझे याद है, मैंने किसी का साथ भी नहीं छोड़ा। आपने-अपने स्वार्थ के लिए लोग मुझसे जुड़े और लाभ ना मिल पाने के कारण मुझे छोड़ कर चले गये। कुछ के चले जाने का अफ़सोस हुआ, कुछ के चले जाने की ख़ुशी। 


हाँ, मुझमें एक बुरी आदत है - “मुझे हाँ में हाँ मिलाना नहीं आता। लोगों को झूठे वादे करना नहीं आता। जो ग़लत लगता है, मुँह पर साफ़ लिखता-बोलता हूँ।”


यह घटना आज सवेरे-सवेरे घटी, जिसके बाद मुझे लगा - “मेरा कोई दोस्त नहीं है। पर, इसके लिए मैं अपने सारे दोस्तों का आभारी हूँ, तुम्हारा भी।”


घटना कुछ इस प्रकार घटी। 


सुबह-सुबह बचपन वाले स्कूल ह्वाट्सऐप ग्रुप में एक मित्र ने अपनी चिंता कुछ इस प्रकार ज़ाहिर कि - “Salary of docs in pvt medical college KIMS.. this is after 12 years of rigor.. when will doctors be paid at par to top exec in Pvt sector..”, अर्थात्, प्राइवेट हॉस्पिटल के डॉक्टरों को पैसे क्यों कम मिलते हैं? उनकी १२ साल की कड़ी मेहनत के बावजूद, कब इन प्राइवेट हस्पतालों के डॉक्टरों को न्याय मिलेगा? लगता है वो दोस्त कोई बड़ा डॉक्टर बन चुका है, जो प्राइवेट हॉस्पिटल में कार्यरत है। अपने लिए न्याय माँग रहा है। 


शायद ही इस व्यक्ति से मेरी स्कूल में कभी बातचीत हुई होगी। जब हम स्कूल में थे, मैं एक शर्मीला लड़का था। क्लास के किसी कोने में पड़ा रहता था। इक्के-दुक्के दोस्त ही थे। वे भी मेरे मोटापे और काली सूरत का मज़ाक़ बनाते थे। 


आठवीं या नौवीं कक्षा की हिन्दी पुस्तक में एक कहानी थी। उस कहानी का नाम तो याद नहीं, पर उसमें एक किरदार था - ‘श्यामलाकांत’, जो ‘आठ’ बच्चों का बाप था। मेरा नाम सुकांत है। इसलिए लड़कों को जोड़-घटाव करने में ज़्यादा देर नहीं लगी और मेरा नाम ”श्यामलाकांत” रख दिया। इसी नाम से वे चिढ़ाते और मैं चिढ़ जाता। उन्हें मज़ा आता। ख़ैर, अपने बचपन की इन यादों को कहीं पीछे छोड़ आया था। आज उस दोस्त ने फिर याद दिला दिया। मुझे याद नहीं उसने कभी मुझे इस नाम से चिढ़ाया हो, क्योंकि उसका सेक्शन अलग था और जैसा मैंने पहले भी बताया, हमारे बीच आज के पहले कभी बातचीत नहीं हुई थी।


पर उसकी इस चिंता पर मैंने अपनी प्रतिक्रिया दी, अक्सर मैं ग्रुप चैट से दूर ही रहता हूँ। पर आज मैंने लिख दिया - “We must focus on improving public sector rather increasing our dependence on private sector for basic necessities like health, education and security. So that it will be accessible to each and every one of us.”। मेरा स्कूल अंग्रेज़ी माध्यम था, इसलिए बातचीत अंग्रेज़ी में करना पड़ता है। वहाँ पर हिन्दी में बात करने पर पिटाई होती थी। आज भी वो डर कहीं ना कहीं हमारे अंदर व्याप्त है। ख़ैर मेरे कहने का अर्थ सिर्फ़ इतना था - “हमें सरकारी सुविधा ख़ास कर जो बुनियादी सेवा है, जैसे स्वस्थ और पढ़ाई, उसे मज़बूत करने का प्रयास करना चाहिए, ना कि इन बुनियादी सेवाओं के निजीकरण पर ज़ोर देना चाहिए। ऐसा करने से इन सेवाओं का लाभ सभी को मिल पाएगा।” 


इतना सुनना था, कि भाई-साहब उखाड़ पड़े। उनका पहला तर्क आया - “Govt has no biz to be in biz... It should be policy making entity, nothing more than that”। मतलब, सरकार का काम बिज़नेस नहीं है, उसे सिर्फ़ नीति निर्धारण करना चाहिए।


मैंने जवाब में लिखा - “Heath and education should have never been in business.”, अर्थात्, समाज को स्वस्थ और शिक्षा को कभी धंधा बनाना ही नहीं चाहिए था।


उसने प्रस्ताव रखा - “Food also should not be in biz, road should not be in biz...”, मतलब, ख़ाना और सड़क भी व्यापार में शामिल नहीं करना चाहिए।


ये चुनौती थी, मैंने स्वीकार की और लिखा - “Food definitely should not be in business but it’s mandatory for economy. So I can't argue on that. But ration shops and community kitchens shall be regulated by society and government alike.”, मतलब - “निश्चय ही खाने को व्यापार में शामिल नहीं करना चाहिए था। पर अर्थव्यव्यस्था के लिए यह ज़रूरी है, इसलिए मैं इस पर अत्यधिक ज़ोर देने के पक्ष में नहीं हूँ। परंतु, राशन की दुकान और सामुदायिक रसोई की देख-रेख सरकार और समाज को मिल कर करनी चाहिए। ताकि इस बात को सुनिश्चित किया जा सके की हमारे समाज में कोई भूखा ना सोये।”


साथ ही यह भी लिखा - “Government is not a policy making business. In democracy it stands for a welfare state. And no welfare is possible in terms of business.”। मेरे अनुसार सरकार कोई नीति-निर्धारक व्यापारी नहीं है, लोकतंत्र में उसकी भूमिका एक लोक हितकारी राज्य की स्थापना मात्र है।


इसके जवाब में उसने अपनी भड़ास कुछ इस प्रकार निकाली, लिखा - “As a policy maker you can become effective welfare state.. When you have right policy and implementation as well as monitoring of policy.. all these things are taken care of..”, मतलब, उसके अनुसार अगर नीति का निर्धारण सही ढंग से हो और उसका उचित कार्यान्वयन हो, तो ख़ुद-बू-ख़ुद राष्ट्र एक लोक हितकारी राज्य बन जाएगा।


मैंने उससे पूछा - “I don’t think history has ever given such an evidence. Do you have any?”, मतलब, इतिहास में तो कहीं ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जहां सिर्फ़ नीति-निर्धारण से लोक हितकारी राज्य की स्थापना हुई हो, क्या तुम्हारे पास ऐसा कोई उदाहरण है?


इस बीच मैंने उसकी एक दुविधा पर भी अपनी राय दी, जहां तक मुझे पता है सड़कें आज भी पीपीपी अर्थात् पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप में बनती हैं और जहां तक सड़कों की बात है, मनुष्य-जीवन के लिए उसकी अनिवार्यता वैसी नहीं हैं, जैसी ख़ाना, शिक्षा और स्वस्थ कि है।


तब तक उसका उत्तर आ गया - “When was last time in history you heard govt subsisidy being transferred to accounts or transferring money through upi... History just provides beacon to make policies”। उसके कहने का तत्पर्य था - “आख़िरी बार इतिहास के पन्नों पर मैंने कब देखा था कि कोई सब्सिडी या सरकारी लाभ आम नागरिक तक पहुँच हो।”


मेरे पर इसका भी जवाब तैयार था - “Theory and practice has a gap between them. For this we must not ignore theory all together. If we have an incapable government we must not focus on self-reliance, rather we must try to form a better government.. After all, we all are social and political animals.” मेरे कहने का आशय था - “सिद्धांत और अभ्यास में एक दरार तो होती ही है। इसका मतलब यह नहीं कि हम सिद्धांत को ही नष्ट कर दें और व्यवहार में कुछ भी करते रहें। अगर सरकार नाकाबिल है, तो इसका समाधान यह नहीं की हम आत्म-निर्भर बन जायें, बल्कि हमें एक बेहतर सरकार बनाने का प्रयास करना चाहिए। आख़िरकार हम एक सामाजिक और राजनैतिक प्राणी हैं।”


इसके बाद उसके जवाब आने बंद हो गये। मुझे लगा यह अच्छा मौक़ा है, मैं अपना लेखन जो अब तक फ़ेसबुक के ज़रिए प्रकाशित करता आया हूँ, उसे अपने बचपन के साथियों के साथ साझा कर उनकी राय माँगू। इसलिए मैंने अपनी किताब और अन्य लेखों को ग्रुप के साथ साझा करने लगा।


पर मेरे दोस्त को मैं खटकने लगा था। उसने बोला - “हो गया भाई।”


मैंने उत्तर दिया - “नहीं भाई। अभी तो शुरू किया है।”


मैंने कुछ और लेख ग्रुप में डाल कर सबसे प्रतिक्रिया देने का आग्रह किया।


मुझे पता भी नहीं था कि वो दोस्त आग-बबूला हो रहा है। मेरा उसे अपमानित करने का कोई इरादा नहीं था। अचानक उसका मेसेज आया - “रहम करो प्रभु,,”


इसके बदले मैंने लिखा - “I think for now I am done.. will keep you guys updated.. thanks for having me in this group..” मतलब मेरे हिसाब से मैंने सब कुछ भेज दिया है, आगे जैसे-जैसे लिखता जाऊँगा, आप सब को अपडेट करता जाऊँगा।


उसने फिर लिखा - “गलती हो गया मालिक”


मैंने उसकी माफ़ी को स्वीकार करते हुए लिखा - “कोई बात नहीं, भाई। पढ़ना ज़रूर, और अपनी प्रतिक्रिया भी देना। Take care and stay aware..”


इसके बाद उसने मुझे ग्रुप से निकाल फेंका।


मैंने हार नहीं मानी, उसे निजी रूप से मेसेज करने लगा। अपनी ही एक टिप्पणी उसे भेजकर उसे बताया कि पढ़े-लिखे तो हो पर शिक्षित नहीं लगते। देश में यही हो रहा है, जो विपक्ष में बोले उसे संसद से ही निकाल फेंको। तुमने भी वैसे ही किया, भक्त लगते हो। उसकी बोलती बंद रही। शायद उसने मुझे ब्लॉक कर दिया होगा।


संसद से लेकर समाज में अज्ञानता हावी हो रखी है। शायद स्कूल के ग्रुप पर मुझे ये बातें नहीं करनी चाहिए थी। पर ऐसा भी कुछ ग़लत नहीं कहा था, कोई गाली-गलौज नहीं किया था, जो ऐसे ग्रुपों में बहुमत में मिलता है। ख़ैर, मैं उसका शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ। आख़िर वो ही तो इस कहानी की प्रेरणा बना। मैं उसका अत्यंत आभारी हूँ।


प्राइवेट स्कूल से निकले बच्चे स्वाभाविक रूप से स्वार्थी होते हैं। क्योंकि वहाँ उन्हें सिर्फ़ अपने लिए जीना सिखाया जाता है। अपना घर, अपना कैरियर, अपनी ज़िंदगी आदि-आदि। 


अंत में मेरे पास यही निष्कर्ष बच गया, जो उसे भेज कर मैं इस कहानी को अंजाम देने में लग गया - “मेरा कोई दोस्त नहीं है। पर, इसके लिए मैं अपने सारे दोस्तों का आभारी हूँ, तुम्हारा भी।”


Rate this content
Log in