घोंसला या पिंजरा
घोंसला या पिंजरा
अपने लेखन-परियोजना के दूसरे खंड - "आगे क्या ?" पर मैंने काम करना शुरू किया। पर क़रीब 9 अध्याय लिखने के बाद, मुझे अपने लेखन से संतुष्टि नहीं मिली। इसमें सुधार करने की हिम्मत नहीं है। सुधार करने से आसान, मुझे नयी शुरुवात करना ज़्यादा उचित लगा। नौवाँ अध्याय पूरा नहीं हो पाया, अधूरा ही है, शायद ही पूरा हो। पर इसी क़िस्से को एक नये अन्दाज़ में लिखूँगा। कथा-वस्तु उलझ सी गई थी। मैं अपने इस साहित्यिक सफ़र में जहां पहुँचना था, और जिस मोड़ पर आ खड़ा हुआ - वहाँ एहसास हुआ कि मैं अपने उद्देश्य से भटक सा गया हूँ। इसलिए दुबारा, शुरू से लिखने का फ़ैसला लिया है। पहला प्रयास आपके साथ साझा कर रहा हूँ। अगर कोई भी इन्हें पढ़कर अपनी राय, या कोई मशविरा देना चाहें, तो उनका हार्दिक स्वागत है। पहली कोशिश थी, हिन्दी में लिखने कि, आपके आँकलन और समीक्षा का आकांक्षी। जहां भी सुधार की गुंजाइश नज़र आये, कृपया बताने का कष्ट करें। आपके प्रोत्साहन का भी अभिलाषी।
लाल स्याही
स्कूल में छुट्टी की घंटी बज़ी। आज की घंटी थोड़ी ख़ास है, क्यूँकि अगले एक महीने तक अब यह बच्चों को न राहत देगी, ना ही परेशान करेगी, गर्मी की छुट्टियाँ जो शुरू होने वाली हैं। घंटी बजते ही बच्चे वैसे ही बिलबिला कर अपनी-अपनी कक्षाओं से निकल पड़े, जैसे मधुमक्खियों के छत्ते पर पत्थर मारने से, मधुमक्खियाँ। कुछ के घरवाले स्कूल के गेट पर उनका इंतज़ार कर रहे हैं, कुछ के अभी घर पर ही होंगे स्कूल-बस के इंतज़ार में, शायद थोड़ी देर में कुछ बस स्टैंड के लिए निकलें।
इन बच्चों की भीड़ में दो तरह के बच्चे हैं, एक तो मदमस्त हंसते-खेलते चल रहे हैं, कुछ का मुँह लटका हुआ है, ठीक उनके भारी बस्तों की तरह। कुछ उत्सुक हैं, आने वाली छुट्टियों में क्या-क्या करेंगे ? इसकी योजनाएं बना रहे हैं। कुछ उदास हैं, कैसे गुजरेंगी ये छुट्टियाँ ? ये छुट्टियाँ ही क्या, उनमें से कुछ तो बस सरका देना चाहते हैं अपना बचपन, इस उम्मीद में कि जवानी थोड़ी रंगीन होगी। इस आशा में भी कि कम से कम रोज़-रोज़ स्कूल तो नहीं आना पड़ेगा और कॉलेज तो लोग सिर्फ मौज- मस्ती के लिए जाते हैं। टीवी, मूवी में यही तो दिखाते हैं। दिखाते हैं तो सही ही होगा। फिर नौकरी का क्या, वहां तो खुद होंगे बॉस। कौन रोकेगा-टोकेगा।
अब कौन समझाए इन्हें जब रोज़-रोज़ ऑफ़िस जाना पड़ता है तो क्या हाल होता है। कितना भी बड़ा बॉस क्यूँ ना बन जाओ, कोई ना कोई ऊपर लगाम कसने को होता ही है। और तो और इनमें से कुछ की नौकरी तो ऐसे ही किसी स्कूल में लगेगी। उनको ये सब बता भी दें तो क्या फ़ायदा! एक शिक्षक की हैसियत से जब अभी वे खुद को देखेंगे तो बोलेंगे - अरे! करना ही क्या होता है, थोड़ा पढ़ कर पढ़ा दो, थोड़े नम्बर कम दे दो, और कुछ नहीं तो दो चार थप्पड़ जड़ कर मामला वहीं रफ़ा-दफ़ा करो। पलट कर थोड़े ही मारेगा बच्चा। इतनी हिम्मत जब हम में नहीं तो उनमें कहाँ से आएगी। हाँ! सब का आँकलन ऐसा नहीं होगा, कुछ तो यक़ीन भी नहीं कर पाएँगे कि वे किसी लायक़ बन पाएँगे। क्या पता कुछ तो इतना सब कुछ झेल भी ना पाएँ। ऐसा जवाब शायद उन उदास बच्चों का होगा।
आज ही उनकी पहली इकाई जाँच परीक्षा के परिणाम आए हैं। शायद इसलिए भी उनकी फिदरत उनके चेहरे पर साफ़ झलक रही हैं। उदास बच्चे कुछ ज़्यादा ही उदास हैं, और बाक़ी थोड़ा ज़्यादा ही उत्तेजित। तीसरी कक्षा में पढ़ने वाला छात्र सागर कुमार बुझे मन से बस की तरफ़ चल रहा है, बड़ा सा बस्ता टाँगे, फ़ीते से बंधा एक पानी का बॉटल उसके हाथों में बिना हिले-डुले, बिना लहराये, ज़मीन पर टकटकी लगाए उसके साथ चल रहा है। पहली बार उसकी रिपोर्ट कार्ड में लाल स्याही जो पुती है, अंग्रेज़ी में वह फेल हो गया है। दूसरी कक्षा के वार्षिक परीक्षा में जब उसने ग्यारहवीं स्थान पाया था, तब उसकी माँ का चेहरा लटका हुआ था। “थोड़ी और मेहनत करता तो कम से कम टॉप टेन में तो आ जाता” - ये शब्द उसके ज़ेहन में गूंज रहे हैं। पर इस बार तो वह फेल ही हो गया है। कैसे अपनी शकल दिखाएगा माँ को, उधेड़बुन में उलझा चला जा रहा है।
बस के पास जब पहुँचा, उसने देखा बस कचमकच भरी हुई है। आगे की सीट पर दो शिक्षक बैठे हैं, उनमें से एक उसकी क्लास टीचर है, नज़रें मिलते ही सागर की नज़र झुक जाती है। सीटों के बीच के गलियारे में भी जगह नहीं है खड़े होने कि, बस का पायदान ही शेष बचा है। ख़ैर सीट मिलने की उम्मीद उसे थी भी नहीं, पर उसे इस बात की राहत थी की कम से कम दरवाज़े के पास खड़ा रहेगा तो रास्ते-भर थोड़ी हवा आती रहेगी। तभी कुछ और बच्चे आ गए बस पर चढ़ने। सागर ने साइड ले कर उन्हें ऊपर जाने की जगह देनी चाही। एक दो तो ऊपर चले गए, पर उनमें से एक बड़ा दबंग था, उसने उसे ठेल कर अंदर कर दरवाज़ा भी हथियाना चाहा। सागर भी थोड़ा तैश में आया, थोड़ी धक्कम-धुक्की हुई। सागर के शर्ट का तीसरा बटन टूट कर गिरा और लुढ़कता हुआ बस के नीचे गिर गया। उसने नीचे उतरने की कोशिश की, पर कंडक्टर भैयाजी ने उसे ऊपर धकेला, सीटी मारी और बस चल पड़ी। उस लम्बे चौड़े लड़के के पीछे उसका दम घुट रहा था, थोड़ा अपनी हार से, थोड़ा उस पसीने की बदबू से जिससे पूरा बस बास मार रहा था। छोटी क़दकाठी वाला सागर नाक घूमचाए किसी तरह साँस रोके अपनी जगह खड़ा रहा। उसका स्टाप दूसरा ही था। पंद्रह-बीस मिनट में ही वह अपने मुक़ाम तक पहुँच गया और राहत की साँस लेता ही, कि सामने से माँ आती नज़र आयी और जैसे उसके बैग में पड़ा रिपोर्ट कार्ड शिव के नाग की तरह बाहर निकल उसकी गर्दन दबोचने लगा।
ख़ैर माँ ने उसका बोझ हल्का किया, बस्ता उसके नाज़ुक कंधों से अपने हाथों ले लिया। ऊपर से नीचे तक निहारते हुए उसने देखा सागर के शर्ट का बटन टूटा हुआ है। पूछा - “बटन कैसे टूट गया ?”
“वो बस की हैंडल में फँस कर टूट गया।” - सागर को धक्का-मुक्की के बारे में बताने का नतीजा पता था, और सवाल होंगे, फिर थोड़ी सहानुभूति मिलेगी, आख़िर में थोड़ी हिदायत। इतना वो पहले कई बार सुन चुका है। दुबारा वही सब सुनने के मूड में नहीं है। हाँ अगला सवाल उसे पता था, और उत्तर तैयार।
“तो बटन कहाँ गया ?”
“वो बस से नीचे गिर गया, जब तक मैं नीचे उतर कर उठाता, भैयाजी ने सीटी मारी और बस चल पड़ी।” - ये सच ही था, तो बड़ी शिद्दत से सागर ने माँ को बताया। उसमें उसे कुछ जोड़ना-घटाना जो नहीं पड़ा था।
उसके बाद दोनों चल पड़े घर तक का सफ़र तय करने। सागर सिर झुकाए माँ के पीछे चल पड़ा। माँ ने बताया कि घर पर बड़े-पापा आए हैं, सड़क के शोर-गुल में उसने सुना घर पर नए पापा आए हैं। कहीं माँ ने दूसरी शादी तो नहीं कर ली। एक पापा कम थे क्या जो एक और ले आयी। आज साड़ी भी पहने हुई है। चक्कर क्या है ? हाल ही में उसने एक पिक्चर देखी थी जिसमें सौतेला बाप कैसे-कैसे जुल्म ढाता था बच्चों पर। मन में एक अजीब घबराहट ने घर कर लिया। उसके कदम थोड़े तेज हुए, माँ की बग़ल में जा पहुँचा और फिर पूछा घर पर कौन आए हैं ? माँ ने वही कहा जो पहले कहा था पर इस बार वह सही सुना और उसे थोड़ी राहत मिली। इतनी भी नहीं क्यूँकि माँ का अगला सवाल उस नाग की फूँफकार सा था जो थोड़ी देर पहले उसकी गर्दन जकड़े पड़ा था, और अभी माँ के हाथों में झूलते बस्ते से अपना फ़न निकाल उसे डरा रहा है, जब माँ ने पूछा - “आज तुम्हारा रिज़ल्ट आने वाला था ना ?”
“वो नहीं आया।” - सागर ने तपाक से उत्तर दिया।
“क्यूँ नहीं आया ?” - माँ से सवाल दागा।
“वो॰॰वो॰॰ स्कूल वालों ने बोला छुट्टी के बाद देंगे।”
चलते चलते वे अपनी गली में मुड़े, इतने में पीछे से बिट्टू अपनी मम्मी के साथ हाथों में बड़ा सा चॉकलेट लिए आ रहा था। बिट्टू उसी की क्लास में पढ़ता है, दोनो अच्छे दोस्त भी हैं। उसने चॉकलेट का एक हिस्सा तोड़कर सागर की तरफ़ बढ़ाया, ले ना ले, सागर जब तक कोई फ़ैसला करता चॉकलेट का वह टुकड़ा बिट्टू के मुँह में था। बिट्टू की मम्मी ने बताया कि बिट्टू को क्लास में चौथा स्थान मिला है, और यह भी कि आज ही शाम की फरक्का एक्सप्रेस से वे सब कलकत्ता जा रहे हैं, छुट्टियाँ बिताने। गली में घुस जाने के बाद बच्चे शेर हो जाते हैं। बिट्टू भी दौड़ पड़ा अपने घर की ओर पैकिंग-वैकिंग करने, उसे कौन-कौन से कपड़े और खिलौने ले जाने हैं उसके अलावा और कौन फ़ैसला करेगा। उसके पीछे उसकी माँ उसे धीरे-धीरे चलने को बोलते हुए तेज़ी से आगे निकल गयी। पीछे रह गया सागर, उसकी माँ और उसकी माँ का सवालिया चेहरा।
“बिट्टू की मम्मी ने तो कहा रिज़ल्ट आ गया है। सिर्फ़ तुम्हारा ही नहीं आया क्या ?”
“म्म्म्म्म्म्म्म॰॰॰”
“म्म्म्म्म्म्म्म॰॰॰”
“म्म्म्म्म्म्म्म॰॰॰”
शब्द ही नहीं मिल रहे थे सागर को। क्या बोले, क्या ना बोले। कहीं माँ ने बैग खोल कर यहीं देख लिया तो बचे कूचे रास्ते भर कूटेगी भी और डाँट का सिलसिला जो यहाँ से शुरू होगा महीने भर नहीं रुकने वाला। राज भी खुल गया है। अब कैसे खुले हुए नागराज को वापस बस्ते में डाले।
“वो मैं अंग्रेज़ी में फेल हो गया था ॰॰॰”
“क्या ?” - माँ चौंक गयी। माँ के चेहरे पर दुःख और ग़ुस्से के भाव को भाँपते हुए सागर आगे बोल पड़ा।
बिलकुल ऐसे ही मैं भी चौंक गया था, रिपोर्ट कार्ड देख कर। मैंने कहा मैम ज़रूर कहीं, शायद से कोई गलती हुई होगी, मैं फेल नहीं हो सकता। मैंने कहा मुझे मेरी अंग्रेज़ी की कॉपी देखनी है। मैम ने दिखाया, मैंने नम्बर जोड़े तो जितना रिपोर्ट कार्ड में लिखा था उससे कहीं ज़्यादा थे। मैम शायद एक पूरे पन्ने का मार्क्स जोड़ना ही भूल गयी थी। शायद दो पन्ने चिपके रह गए होंगे, इसलिए जोड़ना भूल गयी होगी। मैंने मैम को दिखाया, तो उसने बोला ठीक है तो तुम छुट्टियों के बाद अपना रिपोर्ट कार्ड ले जाना।” - ये पूरी मनगढ़ंत कहानी एक ही साँस में सागर बोल गया। उसे खुद पर ही भरोशा नहीं हो पा रहा था कि ये शब्द आ कहाँ से रहे हैं, इतना तो उसने सोचा भी नहीं था।
बोलने के बाद वो साँस लेता ही कि माँ का दूसरा सवाल हाज़िर था।
“तो कितने नम्बर आए थे तुम्हें ?”
दिमाग़ में जोड़-घटाव शुरू हुआ। पूरे अंक थे ५०, और पास करने के लिए चाहिए थे २० नम्बर और उसे आए थे कुल १३ नम्बर, तो ज़ायद से ज़्यादा उसे ३० के अंदर का कोई अंक बोलना चाहिए। उसने जितनी जल्दी हो सके अपने पाए अंकों को दुगुना किया और जवाब दिया - “२६”।
“और कितना नम्बर रिपोर्ट कार्ड पर ॰॰॰”
माँ के सवाल सवाल को काटते हुए सागर बीच में ही बोल उठा - “पर पता है माँ सभी बच्चों को इस बार अंग्रेज़ी में बहुत ही कम नम्बर आए हैं। बड़ा कठिन प्रश्न पूछ दिया था टीचर ने। और तो और मेरा तो नम्बर ही जोड़ना भूल गयी। लगता है अंग्रेज़ी वाली मैडम को हमारी गणित की कक्षा में बैठाना पड़ेगा।”
आगे और कोई सवाल ना आए, उसने खुद ही ढेर सारे सवाल मम्मी पर दाग दिए - “मम्मी! बड़े-पापा मेरे लिया क्या ले कर आए हैं ? हम लोग छुट्टियों में कहाँ जाने वाले हैं ? दादी घर जाएँगे क्या ?”
और जाँच पड़ताल करने की तमन्ना रही होगी माँ के मन में, पर घर पास आ गया था। उन्होंने बुझे से स्वर में सागर के सवाल का जवाब दिया - “बड़े-पापा गाँव से आम लाए हैं। हाँ हम सब दादी घर जाएँगे, शायद तुम्हारे चाचा-चाची भी आने वाले हैं।”
“सनी-गुड़िया भी आएँगे क्या ?” - सागर ने चहक कर पूछा। सनी-गुड़िया - उसके चचेरे भाई-बहन, खूब बनती थी उनकी।
सवाल जवाब का सिलसिला यहाँ थम गया, घर आ गया था। दोनों माँ-बेटे ने अपने-अपने चेहरे के भाव बदले और घर में दाखिल हुए। माँ ने पल्लू सिर पर चढ़ाया, सागर ने बड़े-पापा के पाँव छूए और अपना बस्ता लेकर कमरे में चला गया। सबसे पहले उसे रिपोर्ट कार्ड को ठिकाने लगाना था, कहीं घरवालों के हत्थे चढ़ गया तो छुट्टियों का तो सत्यानाश होगा ही, कहीं दादी घर जाने का प्रोग्राम भी ना बिगड़ जाए, वह यहीं अकेले घर पर क्या करेगा पूरे एक महीने। बिट्टू भी कलकत्ता निकल जाएगा। गर्मी भी तो कितनी है। उसने कमरे में घुसते ही वो जगह तलाशनी शुरू की जहां एक महीनों तक कोई साफ़-सफ़ाई नहीं होने वाली हो।
कमरा काफ़ी छोटा है। मुश्किल से एक पलंग अटा पड़ा है, जहां मम्मी, पापा और वो सोता है। बग़ल में एक कमरा है, जहां बड़े-पापा बैठे हैं। दूसरी तरफ़ एक छोटा सा स्टोर-रूम सा है जहां कपड़े और कुछ किताबें रखी है, यहाँ तो माँ हर रोज़ ही आती है। ठीक सटा हुआ किचन है, अभी वहाँ माँ होगी। पलंग के बग़ल की दीवार में बने कुछ खाने हैं जहां पापा की किताबें रखी हुई हैं। पिताजी हाई-स्कूल में मास्टर हैं। किताबों का बड़ा शौक़ है उन्हें। उनको सीलन से बचाने के लिए पहले अख़बार के पन्ने रखे हुए हैं, और उसके बाद किताबों की एक मीनार सी खड़ी है। नीचे बड़ी चौड़ी किताबें, उसके ऊपर की किताबें निरंतर छोटी और पतली होती जाती है। उन किताबों में अधिकतर किताबें पिताजी की पढ़ी हुई हैं, रोज़ रोज़ वहाँ से किताबें कोई नहीं निकालता। सफ़ाई भी अगली दिवाली के पहले नहीं होने वाली। कपड़े बदलते हुए, सागर ने वो जगह ढूँढ ली जहां एक महीने तक उसका रिपोर्ट कार्ड ठिकाने लगाया जा सकता है।
इसके पहले माँ खाने के लिए आवाज़ लगाए, उसने रिपोर्ट कार्ड बैग से निकाला, अलमारी से कुछ किताबें उतारी और अख़बार के पन्नों के नीचे अपना राज दफ़ना दिया। उसने दुआ भी कि इस एक महीने में सीलन से वो लाल स्याही मिट जाए, या फिर दीमक चाट जाए नम्बर ही क्या पूरे रिपोर्ट कार्ड को, या नहीं तो कोई फ़रिश्ता आ कर कुछ नम्बर जोड़-जाड़ कर कम-से-कम २६ ही कर दे। उम्मीद पर ही तो दुनिया क़ायम है।
फिर उसे ख़याल आया - उसे अपनी बतायी कहानी को और भी पुख़्ता करना पड़ेगा। उसने पहले ही दो ग़लतियाँ कर दी हैं, एक तो उसने अपनी माँ को सच भी बता दिया है, और दूसरा उसने कुछ ज़्यादा ही बार ‘शायद’ का प्रयोग किया था। उसे लगा मम्मी ने कहानी पर यक़ीन तो नहीं ही किया होगा। पापा लौटेंगे तो फिर से पूछताछ शुरू होने ही वाली है। उसे तैयार रहना पड़ेगा।
तभी किचन से माँ ने खाने के लिए आवाज़ लगायी। वह अपने बहाने के ताने-बाने बुनता चल पड़ा रसोई की ओर, इस उम्मीद में की आज आम खाने तो ज़रूर मिलेगा। उसे आम बहुत पसंद है, आम के दिनों में वो हर खाने के साथ तो आम खाता ही है - आम-चूड़ा, आम-रोटी, और अगर उसका बस चलता तो वो आम-भात भी ज़रूर खाता। पर आम-भात का ख़याल उसने किनारे कर दिया, शायद अच्छा नहीं लगेगा, दोनों ही बड़े लसलसे से होते हैं। आम के दिनों में उसे जब भी भूख लगे एक-दो आम खा कर काम चला लेता है। खाने के ख़याल में पल भर के लिए अपने दुःख भूल गया, और ये सोच कर अभी शाम तक का वक्त है पापा के आने में, तब तक कुछ-न-कुछ जुगाड़ कर लेगा उसका ख़ुराफ़ाती दिमाग़, उसने खाने में अपना दिल लगाने का फ़ैसला किया।
तारीख़ पे तारीख़
सागर जब तक कमरे से निकलता, उसके नानाजी बाहर से उसे आवाज़ दे रहे थे। उसका नानी-घर पास ही गाँव में था, नानाजी अक्सर साइकल से आते रहते थे। सागर का डेरा उनके ऑफ़िस और नानी-घर के रास्ते में पड़ता था। नानाजी ज़िला के कृषि विभाग में कार्यरत थे। जब भी आते सागर के लिए कुछ-न-कुछ ज़रूर ले कर आते। कभी अमरूद, तो कभी जामुन, आज एक बड़ा सा तरबूज़ ले कर आए थे। नानाजी उसे चॉकलेट, बिस्कुट, चिप्स आदि हरगिज़ नहीं देते थे, वो माँगता तब भी नहीं। अब तो उसने माँगना ही छोड़ दिया था। पर फल फूल खूब खिलाते थे। नानाजी वैसे तो थोड़े बूढ़े हो चले थे, पर दम-खम एकदम नौजवानों जैसा। आवाज़ में क्या खनक थी। ग़ुस्सा जाएँ तो मजाल है सामने वाला कोई चूँ-चपड़ भी कर सके। आख़िर अपने गाँव में आरएसएस शाखा के शाखा-प्रमुख भी तो थे, उसके नानाजी।
सागर भी कभी-कभी शाखा पर गया था, पर लाठी भांजने में उसे कोई ख़ास मज़ा नहीं आता। फ़ौजी वाले कोई गुण नहीं थे उसमें। ना उसमें अनुशासन था, ना ही मार-पीट करने की शक्ति। यदा-कदा कहीं मुठभेड़ हो जाए तो वो अपने हाथ-पैर ढीले छोड़ देता, सामने वाले को उसे मारने में मज़ा ही नहीं आता और वो सस्ते में ही छूट जाता। एक-आध बार उसने हावी होने की भी कोशिश की थी। उसने देखा ऐसा करने के बाद, उसे ज़्यादा ही दर्द झेलना पड़ता था और घर पर गालियाँ पड़ती थी, सो अलग। इसलिए अब अगर बात हाथापाई पर आ जाए, तो वह कट लेने की फ़िराक़ में रहता है, पलट कर हाथ नहीं उठाता।
सागर के नानाजी गाँव में डॉक्टर के रूप में भी जाने जाते थे। डिग्री भले ना हो, पर होम्योपैथी की दवाओं की खूब पहचान थी उन्हें। उनका कहना था - होम्योपैथी दवा असर करे ना करे, नुक़सान कभी नहीं करती है। मज़ेदार बात ये थी कि उनकी दी गयी दवाई अक्सर काम भी कर जाती थी। नानी घर के हॉल में एक बड़ी सी काठ की आलमारी थी, जिसमें नानाजी अपनी दवाओं का ख़ज़ाना रखते थे। गाँव में जिसे भी ज़रूरत होती नानाजी से दवाएँ ले जाता था। उस अलमारी में कई सारी किताबें भी रखी रहती थी। सागर को पूरा भरोसा था कि नानाजी ने सारी किताबें पढ़ी होगी, तभी तो हर मर्ज़ का इलाज जानते हैं। सागर को कुछ भी होता उसे पहली दवाई नानाजी के ख़ज़ाने से ही मिलती थी।
जब भी कोई मरीज़ सलाह माँगने आता, वे अक्सर एक मोटी सी किताब ले कर दवाइयों का नाम खोजते। ठीक वैसे ही जैसे सागर एग्जाम के पहले अपनी किताबों के पन्ने पलटता था। अंतर बस इतना कितने भी पन्ने वो पलट लेता, उसकी समझ में कुछ ख़ास नहीं आता। नानाजी दवा का नाम तलाशने के बाद अलमारी से एक ख़ाली छोटी-सी प्लास्टिक की शीशी निकालते, उसमें मीठी गोलियाँ भरते, दवाई की बॉटल से पाँच-दस बूँद बड़े हिसाब से डालते और मरीज़ को दे देते। बड़ी मेहनत से सागर ने उस किताब का नाम कुछ दिन पहले ही पढ़ा था - ‘होम्योपैथिक मैटीरिया मेडिका’। पाँच-दस बार वर्णों को जोड़-जोड़कर पढ़ा था उसने। सागर भी बड़ा होगा तो ऐसी ही बड़ी-बड़ी किताबें पढ़ेगा।
सागर जब भी गाँव जाता, नानाजी की उस आलमारी से वो सफ़ेद गोलियाँ जिसमें होम्योपैथी दवा का अर्क डाल कर मरीज़ों को दिया जाता है, चुरा-चुरा कर खाता था। वैसे वो नानाजी से माँग कर भी खा सकता है, वो कभी माना नहीं करते, पर चुराई हुई गोलियाँ उसे ज़्यादा मीठी लगती थी। जब कोई देख ना रहा हो, चुपके से अलमारी खोलना, नानाजी की काठ वाली भारी-भरकम कुर्सी को खिसका कर ऊपर वाली दराज तक पहुँच काँच की भूरी शीशी से बड़ी हिफ़ाज़त से गोलियाँ निकालने का अलग ही आनंद था। नानाजी से माँगता तो वे बस अलमारी कर दरवाज़ा खोलते बॉटल से गोलियाँ निकालते और दे देते। ना कुर्सी खिसकना पड़ता, ना ऊपर वाली दराज तक पहुँचने में कोई मसक्कत करनी पड़ती। गोलियाँ तो वही होती पर खुद से निकालने में मज़ा आता था, क्यूँकि जब भी पकड़ा जाता तो उसे डाँट के साथ नसीहत फ़्री दी जाती थी - शीशी काँच की है, गिरेगी तो शीशी तो फूटेगी ही, साथ ही ई लड़का गिर कर कपाड़ भी फुड़वाएगा, एक दिन। अगर वो मान ही जाएगा तो ना हिदायत देने वाले को मज़ा आएगा, ना लेने वाले को।
नानाजी बाहर से सागर को तीसरी या चौथी बार बुला चुके थे। सागर अपने रिपोर्ट कार्ड को ठिकाने लगा चुका था। पर हड़बड़ी में वो स्कूल की पैंट उतरना भूल गया था। ऐसी गलती वो अभी नहीं कर सकता था। माँ फट से सवाल करती इतनी देर में पैंट भी नहीं बदली और शक करती, फिर उसे कुछ बहाना बनाना पड़ता। वह वापस कमरे में गया, जल्दी से उसने हाफ़-पैंट चढ़ायी और भाग कर बाहर पहुँचा। नानाजी से थैला ले कर, बड़ी यतन से माँ के पास रसोईघर पहुँचाया। बड़ा भारी तरबूज़ था, ४-५ किलो से कहीं कम नहीं होगा, उसने अंदाज़ा लगाते हुए माँ को बताया। माँ ने बरामदे पर चटाई बिछा, उसका खाना लगा दिया था। खाने की थाली के बग़ल में एक प्लेट में आम भी काट कर रख दिए थे। माँ ने उससे कुछ बोला नहीं, और सीधे मेहमान कक्ष में बैठे नानाजी से खाने को पूछने चली गयी। नानाजी खाना खा कर आए थे, उन्होंने कहा बस चाय बना दो। सागर सोच रहा था, इतनी गर्मी में कोई कैसे गरम-गरम चाय पी सकता है। तभी उसे याद आया उसे अपनी कहानी पर भी तो सोचना है, पापा के आने का समय क़रीब आ रहा है।
माँ किचन में चाय बनने चली गयी और नानाजी बड़े-पापा के साथ बातें करने लगे। खाते हुए, आम की मिठास का मज़ा लेते, सागर अपने बहाने के ताने-बाने को बुनने में लग गया। उसका ध्यान तब टूटा जब नानाजी और बड़े-पापा की आवाज़ें थोड़ी ऊँची हो गयी, ऐसा लग रहा था दोनों किसी बात पर लड़ने लगे थे। सागर ने ध्यान से सुनने की कोशिश कि, पता लगाने के लिए कि माजरा क्या है ? उनकी बातों से पता चला कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार तेरह दिनों में ही गिरने वाली है। उसके बड़े-पापा और पापा दोनों ही कांग्रेसी मिज़ाज के थे, नानाजी भाजपा के समर्थक और उसकी मम्मी इन दोनों की आलोचक, बिलकुल सागर की तरह। उसने अंदाज़ा लगा लिए कोई ख़ास बात नहीं है, थोड़ी देर में दोनों अपनी-अपनी दलीलें दे कर चुप हो जाएँगे। आए दिनों ऐसी राजनैतिक बहस उसके घर में आए मेहमान पापा के साथ करते रहते थे, निष्कर्ष कुछ नहीं निकलता था। पर सब अपनी-अपनी बातें बड़े तेवर में बोलते और आख़िर में दुआ-सलाम करके चले जाते। सागर की समझ में नहीं आता आख़िर क्या मज़ा मिलता है इन लोगों को ये फ़ालतू की बहस करके। ख़ैर उसे लगा उसकी तो अदालत जल्द ही लगने वाली है, पापा आते ही होंगे, उसे अपनी जिरह की तैयारी करनी चाहिए।
तब तक माँ चाय बना नानाजी और बड़े-पापा को दे आयी। सागर का खाना ख़त्म होने वाला था, और उसके दिमाग़ में जिरह करने के कोई तर्क नहीं आ रहे थे। थोड़ी देर और आराम से बैठ वो आम चूसता रहा, इस उम्मीद में अब कोई नया आइडिया आएगा दिमाग़ में। कुछ नहीं आया। उसने माँ से तरबूज़ खाने की फ़रमाइश की। इसी बहाने थोड़ा समय और मिलेगा। उसने दिमाग़ पर और ज़ोर डाला, पर कोई जुगाड़ नहीं मिल पा रहा था। समय बीतता जा रहा है, और धीरे-धीरे सागर को लगने लगा कि उसकी बुद्धि घास चरने चली गयी है। उसे खुद पर ग़ुस्सा आने लगा था।
उधर नानाजी और बड़े-पापा की चाय ख़त्म हो चुकी थी, उनकी बातें और उनके तेवर ठंढे पड़ रहे थे, दलीलें ख़त्म होने लगी थी। सूरज ढलने लगा था और इधर सागर के मन की बत्ती बुझने लगी थी। उसे लगा अब तो जल्द ही उसका कोर्ट मार्शल होगा, पता नहीं कौन सा दंड मिले। वह हिसाब लगाने लगा कि ज़्यादा से ज़्यादा कितनी सजा मिलेगी। घड़ी की टिक-टिक के साथ उसकी धड़कन कदम-ताल मिलने लगी। पल-पल मन की व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। वह लगभग हार मानने की कगार पर आ खड़ा था। अब जो होगा देखा जाएगा, इतने से गुनाह के लिए घरवाले उसे फाँसी पर थोड़े ही लटका देंगे। इस ख़याल से थोड़ा निश्चिंत हुआ सागर, खाने की थाली लेकर किचन की तरफ़ चल पड़ा। मम्मी वहीं थी। उसने सागर को शक्की निगाहों से देखा, सागर झेंप गया और जल्दी से मेहमान कक्ष की तरफ़ चल पड़ा, नाना और बड़े-पापा के पास ही अभी वह महफ़ूज़ रह सकता है।
जब वह वहाँ पहुँचा, दोनों की बातें ख़त्म हो चुकी थी। दोनों चुप-चाप बैठे थे, नानाजी के हाथों में आज का अख़बार था और बड़े-पापा आँख मूँदे लेटे हुए थे। सागर नानाजी की बग़ल में जा कर बैठ गया। शाम हो चुकी थी, वह सोच रहा था बाहर खेलने जाए या नहीं। अगर खेलने गया तो जब लौट कर आएगा, तो कोर्ट मार्शल के बाद उसके खेल की तुलना आवारागर्दी से होगी। कहीं कल से खेलने भी ना जाने मिले। अच्छा रहेगा आज भले मानस सा घर पर ही बैठा रहे। उससे भी अच्छा ये होगा कि वो अभी से किताब ले कर पढ़ने बैठ जाए। पर उसने अंदाज़ा लगाया - माँ से ये भी हज़म नहीं होगा, वह ज़रूर सोचेगी अभी तो स्कूल से आया है, आज ही छुट्टियाँ शुरू हुई हैं, ये पढ़ाई की नौटंकी काहे कर रहा है, दाल में ज़रूर कुछ काला है। पूछताछ भी कर सकती है। ठीक है ना! वह बोल देगा बहुत होम्वर्क मिला है, अभी कर लेगा तो बाक़ी छुट्टियाँ मस्ती कर पाएगा, किताबों का बस्ता ढो कर वह दादी-घर नहीं ले जाना चाहता था। वैसे भी बिट्टू तो खेलने आने से रहा, कलकत्ता जो जा रहा है। वह ये भी अंदाज़ा नहीं लगा पा रहा था कि बाक़ी बच्चे भी खेलने आएँगे या नहीं। खेलने जाने का रिस्क लेने का कोई ख़ास फ़ायदा उसे नज़र नहीं आ रहा था।
नानाजी तब तक अख़बार के सारे पन्ने पलट चुके थे। धूप भी कम हो चली थी। वे उठे, माँ को बुलाया और बोले कि अब उन्हें जाना चाहिए, वरना घर पहुँचते-पहुँचते अंधेरा हो जाएगा। इतना सुनते ही सागर के दिमाग़ की बत्ती जली। वह तपाक से माँ को बोला - “माँ! मैं भी नानी-घर जाऊँगा।”
माँ को ये माँग कहीं से जायज़ नहीं लगी। पर नाजायज़ भी नहीं थी, आख़िर आज ही तो सागर के स्कूल में गर्मी की छुट्टियाँ शुरू हुई थी।
माँ ने दूसरा दांव खेला, बोली - “शाम होने वाली है, पापाजी आप यहीं रुक जाइए ना।”
नानाजी ने बताया ये सम्भव नहीं है, आज सत्संग है और सत्तेंद्र बाबा आने वाले हैं। उनका वहाँ जाना बहुत ही ज़रूरी है।
माँ ने थोड़ा और ना-नुकुर किया। सागर के होम्वर्क का वास्ता भी दिया। नानाजी ने कहा - “जाने दो ना! अभी तो छुट्टियाँ शुरू हुई हैं, इतना पढ़कर कल-के-कल ही कलेक्टर बन जाएगा क्या! आज घर पर सत्संग भी है, इसे भी वहाँ मज़ा आएगा। कुछ अच्छा सीखने भी मिलेगा।”
हर मंगल और शुक्रवार को नानी-घर में नानाजी सत्संग का आयोजन कराते थे। सागर माँ के साथ कई बार उस में शामिल हो चुका था। कभी-कभार कोई बाबा भी आते थे, जैसे आज सत्तेंद्र बाबा और परवचन देते थे। गाँव के कई सारे लोग अपने बच्चों के साथ वहाँ आते थे। सत्संग में सागर की कोई दिलचस्पी नहीं थी। बाबा की बातें उसे बकवास लगती थी। इतने आराम और फ़ुरसत से एक जैसी ही कहानी बार-बार कोई कैसे सुना सकता है। वह अक्सर आधे परवचन में ही सो ज़ाया करता था। कोई और दिन होता तो प्रवचन के नाम पर उसका नाक-मुँह सिकुड़ जाता, पर आज वह नानाजी की हाँ में हाँ मिलाए जा रहा था।
माँ सब समझ रही थी, पर अपने पापा से ज़्यादा जिरह नहीं कर पायी और सागर के कुछ कपड़े एक थैले में डाल कर ले आयी। सागर के मन में जीत का बिगुल बजा, पापा की अदालत में उसकी पेशी की तारीख़ जो बढ़ गयी थी। ऐसे ही तारीख़ पे तारीख़ वो बढ़वाता रहेगा और छुट्टियाँ गुजर जाएँगी। उसने अंदाज़ा लगा लिया, जब तक नानी-घर से लौटेगा तो दादी-घर के लिए रवाना होने का समय आ जाएगा। वहाँ से लौटते-लौटते छुट्टियाँ ख़त्म होने वाली होंगी और मामला ठंडा पड़ चुका होगा।
अपनी बुद्धि पर इतराते हुए सागर नानाजी की साइकल की पिछली सीट पर बैठ गया और माँ को टाटा करते हुए नानी-घर की तरफ़ निकल पड़ा। सागर जब तक नानी-घर पहुँचता अंधेरा होने वाला था। उस गाँव में मुश्किल से ५-१० परिवार रहते थे और हर परिवार किसी-न-किसी तरह से खून के रिश्तों से जुड़े हुए थे। एक तरह से पूरा गाँव ही उसका नानी-घर था। वो किसी भी घर में बेझिझक घुस जाता और जो मन करे उठा कर खा लेता। अपनी उम्र का वो एकलौता बच्चा था उस गाँव में, बाक़ी या तो उससे थोड़े बड़े थे या बहुत ही छोटे। शायद इस कारण से वो सबका लाड़ला भी था।
बच्चों में बाक़ी सारे या तो सागर के मामा लगते थे, या मौसी। अभी तक कोई मामा शादी के लायक़ नहीं हुआ था, इसलिए मामी की कमी थी। सत्संग के बाद, शुरू हुई सोने की तैयारी। उसके नाना और चचेरे नाना के छत्त सट्टे हुए थे, दोनों के मिलने से एक लम्बी सी छत्त बन गयी थी। उसके अपने मामा चार थे और चचेरे मामा और मौसी मिला कर कुल आठ। सोने के लिए छत्त पर बड़ी-बड़ी दो-चार दरी बिछायी गयी, नौ तकिए लगाए गए। गर्मी बहुत थी, इसलिए दरी बिछाने के पहले पूरे छत्त को धोया गया। धोने के बाद मिट्टी और सिमेंट से बनी छत्त से बिलकुल वैसी ही ख़ुशबू आ रही थी, जैसी पहली बारिश के बाद आती है। चुन्नी मौसी ने आँगन से बेली के फूल तोड़ लाई थी और सबके तकिए के सिरहाने में रख दिए। ऐसा लग रहा था कि खुले आसमान के नीचे किसी राजमहल की बगिया में लगा है आज उनका बिस्तर। बेली के सफ़ेद फूलों की ख़ुशबू बड़ी प्यारी होती है, और उस सुगंधित सेज पर नींद भी बड़ी गहरी आती थी।
मामा और मौसियों के बीच सागर लेट गया। थोड़ी देर तक इधर-उधर की बातें होती रही, फिर धीरे-धीरे सब सो गए। वैसे तो सागर बिस्तर पर आते ही सो ज़ाया करता था, पर आज उसे नींद नहीं आ रही थी। बेली की ख़ुशबू ने उसकी उत्तेजना पर क़ाबू कर रखा था, पर अंदर से वो परेशान था। सोच रहा था अब तक पापा घर पहुँच गए होंगे। शायद मम्मी ने आज का पूरा वाकिया पापा को बता दिया हो। पापा को जितना वो जानता है, पापा ने कुछ नहीं कहा होगा, ना ही उनके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया आयी होगी, पर अंदर ही अंदर उनके मन में कई सवाल उठे होंगे। उन्हें दुःख तो ज़रूर हुआ होगा, पर कितना ? सागर को इसका अंदाज़ा लगा पाने की हिम्मत भी नहीं हुई। पिताजी बड़े मेहनती और ईमानदार स्वभाव के हैं। सागर को हमेशा सच का साथ देने की शिक्षा देते हैं। फिर उसने अपनी कल्पना में खुद से सवाल किया - “अगर वह सच बोल देगा, तो क्या होगा ?”
इस सवाल ने उसमें एक रोमांच तो भरा, पर इसका उत्तर वहीं पर थम गया जितना उसने पहले सोच रखा था। अगर वो सच बोल देगा तो मम्मी-पापा थोड़ा ग़ुस्सा करेंगे, फिर थोड़ा समझाएँगे, और मेहनत करने बोलेंगे। इस चिंतन में एक और सवाल उठा - आख़िर सच होता क्या है ? उत्तर ना मिले तो और सवाल उठ खड़े होते हैं, जैसे - सच जो भी होता होगा, उसका निर्धारण किस प्रकार किया जा सकता है ? कोई बात सच है या झूठ कैसे पता लगाएँगे ? उसे लगा, अगर उसे वो फ़ोर्मुला पता चल जाए जिससे सच का निर्धारण होता है, तो वो अपने लिए नए-नए सच बना लेगा। पर उसे क्या पता था इन सवालों ने ना जाने कितने दार्शनिकों को जमाने-भर से परेशान कर रखा है, और सबके अलग-अलग सिद्धांत हैं। इस बाल मन को अभी कहाँ से समझ आएगा। पर वो सवाल कर पा रहा है, ये क्या कम है!
उसने और एक बात पर गौर किया जब मम्मी ग़ुस्सा करती है तो उसके पापा उसे प्यार करते हैं और जब पापा को ग़ुस्सा आता है तो माँ उसका पक्ष लेती है, उसे प्यार से समझाती है। लगता है, दोनों अलग से बैठ कर तय करते होंगे - अब किसके गुस्साने की बारी है। यह सब सोचते-सोचते कब उसे नींद आ गयी पता ही नहीं चला।
धोबी का कुत्ता
सुबह हुई, सूरज के फलक पर आते ही रात का आलस्य रफ़ूचक्कर हो गया। गाँव की हवा में एक अलग ही ताज़गी होती है। सारे मामा और मौसी एक-एक कर उठे, अपने-अपने काम पर लग गए। सागर को यहाँ कोई काम नहीं था, सिवाय मस्ती करने के। उठने के बाद नानी के हाथों का नाश्ता किया और निकल पड़ा गाँव भर में टहला मारने।
गाँव में कुछ खेतों के बाद आम का बगीचा है, सागर अपने सबसे छोटे मामा के साथ बगीचे की तरफ़ निकल पड़ा। उनके अपने हिस्से में चार-पाँच आम के पेड़ हैं। एक बड़ा मालदा आम का गाछ है, एक जर्दालू आम का और बाक़ी बीजू आम हैं। इसके अलावा दो अमरूद, दो फलसा, एक बड़हल और एक कटहल का भी पेड़ है। उसके मामा ने बताया उनके शहर का जर्दालू आम इतना मशहूर है कि यहाँ से कुछ जर्दालू आम देश के प्रधानमंत्री को भी भेजे जाते हैं। बगीचे के बीचों-बीच एक बांस का मचान बना हुआ है, जहां बैठ कर मामा दिन में और रात में नाना आम जोगते हैं। बगीचे के चारों ओर कँटीली झाड़ लगायी गयी है, ताकि कोई जानवर ना घुस पाए या कोई और आदमी रात-बिरात घुस का आम ना तोड़ ले जाए। जानवरों से कम आदमियों से ही ज़्यादा ख़तरा रहता है इंसानों को।
कुछ ही देर में और भी बच्चे बगीचे पहुँच गए। फिर शुरू हुआ खेला। उनके खेलों में लुक्का-छिप्पी, गुल्ली-डंडा, ओका-बोका आदि शामिल थे। खेल के बीच में कहीं से ‘धप्प’ की आवाज़ आती तो सब बच्चों के कान खड़े हो जाते। इस आवाज़ का मतलब था कहीं तो पक्का आम गिरा है। सब बच्चे उसकी खोज में निकल जाते, जिसे मिलता आम उसका। कभी अगर दो या तीन बच्चे एक साथ गिरे हुए आम तक पहुँच जाते तो आम का छिलका किसी के हाथ, किसी के हाथ गुठली लगती। जो भी मिलता बच्चे उसी का मज़ा लेते रहते। पर जो मिठास छिना-झपटी से पाए आम में होता, वो धोए-काटे थाल में सजाए आम में कहाँ मिलता। बच्चे गमछे में घर से चूड़ा-मूढ़ी बांध कर लाते थे, आम के साथ यही उनके दिन का भोजन होता था।
पर सागर ठहरा अंग्रेज़ी माध्यम का बच्चा, शायद अपने कुल-ख़ानदान का पहले अंग्रेज। वह अपने ही घर के इन बच्चों के बीच खुद को पराया सा महसूस किया करता था। उसे तो गाँव की भाषा भी ठीक से नहीं आती थी। अंग देश की भाषा, अंगिका। थोड़ा-बहुत समझ आ भी जाए, पर वो बोल बिलकुल नहीं पाता था। ओका-बोका के खेल में सारे बच्चे अपनी हथेली ज़मीन पर रखते, उनमें से एक कोई ये लोकगीत गाया जाता था, जिसके बोल कुछ इस प्रकार थे -
ओका-बोका तीन तरोका
लउआ लाठी
चनन काठी
चनना के नाम का ?
उसके बाद जिसकी हाथ पर गीत का अंत होता था, वो अपना हाथ आगे करता, जिस पर दूसरे बच्चे थप्पड़ मरते थे, जब भूका जाते थे, तो सब गाते थे आगे -
अटकन-मटकन दही चटाकन
बर फूले, बरइला फूले
सावन में करइला फूले
सावन गइले चोरी
धर कान मरोरी।
सागर को ये गाने अच्छी तरह समझ नहीं आते और गा तो बिलकुल नहीं पाता था। बाक़ी बच्चे उसका मज़ाक़ भी उड़ाते, पर बेचारा क्या करता, ज़्यादा-से-ज़्यादा झेंप जाता या पलट कर कोई अंग्रेज़ी कविता सुनाने लगता। बच्चों को उसकी कविता भले अच्छी नहीं लगती हो, वे तंज भी कसते - बड़ा आया अंग्रेज कहीं का! पर गाँव के बुड्ढों को वो कविताएँ सुनने में बड़ा मज़ा आता। वे उसे बुला कर कविता सुनाने बोलते। अगर बाक़ी बच्चे आस-पास होते तो सागर बड़ा इतरा-इतरा कर सुनाता, वरना जल्दी से सुना कर निकल लेता। अक्सर कविता सुनाने के लिए उसे कुछ ना कुछ इनाम भी मिलता। गाँव का हर बच्चा ‘ओका-बोका’ गा सकता था, पर अंग्रेज़ी कविता शायद की किसी और को आती हो। सागर वहाँ के बाक़ी बच्चों से अलग तो हो जाता, पर साथ ही अकेला भी।
खेलते-धूपते कब दोपहर शाम में बदलने लगी, खबर ही नहीं लगी। आम के घने बाग़ीचे में वैसे भी धूप बड़ी छन-छन कर आती है। सागर मामा के साथ घर की तरफ़ निकला। वहाँ पहुँचा तो देखता है पिताजी बैठे नानाजी के साथ चाय पी रहे थे। उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम। पापा इतनी जल्दी कैसे आ गए! सागर को देख पापा के चेहरे पर कोई नयी प्रतिक्रिया नहीं हुई। वे वैसे ही शांत भाव से चाय पीते रहे और सागर को बोला - “समान समेट लो, घर चलेंगे। कल सुबह की गाड़ी से दादी-घर जाना है।”
सागर अंदर गया, अपने कपड़े थैले में डाल चुप-चाप पापा के पास आ कर बैठ गया। पापा ने चाय ख़त्म कि और जाने के लिए उठे, सागर बैठा रहा। वह अंदर से घबराया हुआ था, कहीं रास्ते में पापा जाँच-पड़ताल ना शुरू कर दें। पिताजी के कहने पर वह उठा और उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। नानी का घर जैसे-जैसे पीछे छूट रहा था, सागर की धड़कने तेज होती जा रही थी। रास्ता गुजरता गया, दोनों ख़ामोश मंज़िल की तरफ़ चले जा रहे थे। क्या ये तूफ़ान के पहले की खामोशी है ?
सागर को ये भी खबर नहीं थी कि माँ ने पापा को बताया है या नहीं ? पर पिताजी की खामोशी से वो अंदाज़ा लगा सकता है, पापा थोड़े चिंतित से हैं। पर चिंता के विषय के बारे में उसे कोई सुराग नहीं मिल पा रहा था। उसे पता था चिंता में पिताजी चुप हो ज़ाया करते हैं। क्या उसे पिताजी से बात करनी चाहिए ? क्या बोलेगा वो पापा को ? उसकी समझ में नहीं आ रहा था। कहीं ऐसा तो नहीं सागर अपनी चिंता की परछाई पापा की खामोशी में तलाश रहा है ?
रास्ता गुजरते वक्त कहाँ लगता है, दोनों घर पहुँच गए। अंधेरा होने में अभी भी वक्त था। थोड़ी देर में आता हूँ, यह कह कर पिताजी निकल गए। बड़े-पापा भी कहीं बाहर गए थे। घर पर सागर मम्मी के साथ अकेला रह गया। मम्मी अपने काम में लगी रही। माँ को घर पर कभी चैन से बैठे सागर ने कभी देखा हो, ऐसा उसे याद नहीं। माँ के कहने पर वो अपना सामान समेटने में लग गया। सागर को ध्यान आया कहीं रिपोर्ट कार्ड मम्मी ने देख तो नहीं लिया। जब उसने किताबों के खाने को देखा तो लगा कोई किताब अपनी जगह से हिली भी नहीं है। सब कुछ वैसा ही है जैसा वो छोड़ कर गया था। माँ से नज़रें चुरा, मौक़ा देख उसने अख़बार के नीचे छुपे रिपोर्ट कार्ड को चुपके से देखा और वापस रख दिया।
माँ से ज़्यादा कोई बातचीत नहीं हुई। वैसे तो ये सामान्य बात थी। चुप्पी इस घर में पुरानी है। वैसे भी एकलौता बच्चा कितना ही शोर करेगा। अकेला चना आख़िर कितना बजेगा। उसे भूख लग रही थी, पर खाने को कुछ माँगने की हिम्मत नहीं कर पाया। ये सोच कर रात को तो खाने मिलेगा ही, उसने अपनी भूख को शांत रहने का हुकुम दिया।
धीरे-धीरे रात पास आने लगी। बिजली कम ही रहती थी, सो माँ ने लालटेन जलाया। माँ खाना बनाने लगी, सागर पढ़ने बैठ गया, क्यूँकि उसके करने लायक़ कुछ और था भी नहीं। लालटेन के पास बैठे-बैठे वो पसीने से तर-बतर हो गया। माँ का जब खाना बन गया, उन्होंने सागर से पूछा - “खाएगा ?”, उसे भूख तो लगी थी, पर उसने कहा - “पापा आते ही होंगे, साथ ही खाएँगे।”
सागर की घबराहट को माँ ने भाँप लिया होगा, पर सीधा सवाल-जवाब करना उचित नहीं समझा। गर्मी थी, और बिजली भी कटी हुई थी। माँ सागर को लेकर छत पर चली गयी। खुली हवा में सूखते पसीने से दोनों को थोड़ी राहत मिली। एक चटायी बिछाकर दोनों बैठ गए। धीरे-धीरे सागर माँ के पास लेट गया। माँ ने उससे पूछा - “नानी-घर पर क्या-क्या किया ?” सागर ने बताया जो भी वो याद कर पाया। बताने के लिए कुछ ख़ास हुआ भी तो नहीं था।
सागर को कई बार ये ख़याल आया की वो माँ से सब सच-सच बता दे। अपनी रिपोर्ट-कार्ड ला कर उनके हस्ताक्षर ले ले। पर हिम्मत नहीं हुई। अपने मन को भटकाने के प्रयास में सागर के मन में एक सवाल आया, उसे लगा ये बात वो अपनी माँ से पूछ सकता है। उसने पूछा - “माँ! तुम्हारे कितने भाई-बहन हैं ? वो मामा लोग तुम्हारे भाई हैं ना ?”
“हाँ बेटा! हम पाँच भाई-बहन हैं। सबसे बड़ी मैं ही हूँ।”
“माँ! पापा के कितने भाई-बहन हैं ?”
“पापा के दो भाई और दो बहन हैं।” - माँ ने बताया।
कुछ सोच सागर ने सवालों की लड़ी सी लगा दी - “माँ! मेरे कोई भाई-बहन क्यूँ नहीं है ? मैं कितना अकेला हूँ। माँ! ये भाई-बहन कहाँ से आते हैं ?”
माँ ने उसके दुःख को समझा या नहीं, पता नहीं। पर उसके सवालों से परेशान ज़रूर हो गयी। हर वे सवाल जिनका जवाब ना आता हो या आते हुए भी दे नहीं सकते, किसी को भी परेशान कर देते हैं। वैसे सवालों को हम भगवान भरोसे छोड़ देते हैं। माँ ने भी वही किया। थोड़ा सोच-विचार कर कहा - “बेटा! बच्चे तो भगवान के दिए तौफ़े होते हैं। वे जब देंगे तो तुम्हें भी भाई-बहन मिल जाएँगे।”
“माँ! ये भगवान कौन है ?”
“वही जिसने इस पूरे संसार को बनाया। मुझे और तुम्हें बनाया। वही सब करता है। जब हमारे अच्छे कामों से वो खुश होता है तो हमें तौफ़े देता है।”
“माँ मुझसे वो खुश नहीं है क्या ? कैसे पता चलेगा ? मुझे भी तौफ़े में भाई-बहन चाहिए। कहाँ मिलेगा भगवान ?”
“वो मिलते नहीं हैं। वो ऊपर से हमें देखते रहते हैं। तुम भी अच्छे-अच्छे काम करोगे तो वो तुमसे भी खुश हो जाएँगे और तुम्हें जो चाहिए मिल जाएगा।”
सागर ने ऊपर तारों भरे आकाश में देखा, उँगली उठा कर बोला - “क्या उन तारों के पास भगवान रहते हैं ?”
चाँद-तारे तो इंसान सदियों से इंसान की जिज्ञासा का केंद्र रहे हैं। माँ ने प्यार से गोद में लेटे सागर के बालों में उँगलियाँ फिरायी और कहा - “बेटे! हम लोगों की आर्थिक हालत बहुत अच्छी नहीं है। मुश्किल से घर चलता है। बहुत मेहनत करते हैं तुम्हारे पापा, ताकि तुम अच्छे से पढ़ाई कर सको। जब तुम पैदा हुए थे, हमने फ़ैसला किया था कि एक ही बच्चे को ढंग से पालेंगे। अच्छी तालीम देंगे। नानी जब तुम्हें ज्योतिष के पास ले गयी थी, उसने तुम्हारा हाथ देख बताया था कि तुम बड़े हो कर बड़े सरकारी अधिकारी या इंजीनियर बनोगे। बहुत उमीदें हैं तुमसे। अगर तुम्हारे और भाई-बहन होंगे, तो हम तुम पर ठीक ढंग से ध्यान नहीं दे पाएँगे और ना ही उस पर। बेटा! बहुत लड़-झगड़ कर मैंने तुम्हारा दाख़िला इस शहर के सबसे अच्छे अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल में कराया है। तुम्हारे पापा तो किसी सरकारी स्कूल में तुम्हें पढ़ाना चाहते थे। मैंने ही ज़बरदस्ती तुम्हें अच्छे-से-अच्छे स्कूल में डाला।”
“माँ! पापा तो सरकारी स्कूल में ही शिक्षक हैं ना ?”
“हाँ बेटा! लेकिन वहाँ पढ़ाई अच्छी नहीं होती। वहाँ के बच्चे बड़े बिगड़ैल होते हैं। बहुत बदमाशियाँ करते हैं। उनकी संगत में तुम भी बर्बाद हो जाते।”
“माँ हम लोग गरीब हैं क्या ?”
माँ को लगा ग़रीबी वाली बात ज़्यादा हो गयी। बच्चे को ये सब नहीं बतानी चाहिए। उसने बात बदलने की कोशिश में कहा - “नहीं बेटा! भगवान का दिया सब कुछ है। उसके घर में देर है, पर अंधेर नहीं। समय के साथ सब ठीक हो जाएगा। तुम पढ़-लिख कर जब बड़े आदमी बनोगे, तब छप्पर-फाड़ धन बरसेगा।”
अचानक मिली ढेर सारी सूचनाएँ सागर की चेतना को झकझोर कर रख दिया। जो भी अभी-अभी माँ ने कहा था, उसने अपने मन में एक बार दुहराने और समझने का प्रयास किया। उसने जो समझा, उसका सार कुछ इस प्रकार उसने खुद को समझने का प्रयास किया - मतलब, हम लोग गरीब हैं। मेरे भाई-बहन ना हैं, ना ही कोई उम्मीद है, क्यूँकि भगवान खुश नहीं है। उसके दुःख का मुख्य कारण मैं खुद हूँ। मैं ही बुरा हूँ, तभी तो हम सब गरीब हैं। ऐसे में अगर मेरे भाई-बहन हुए, तो मेरे माँ-बाप मेरा ध्यान नहीं रख पाएँगे। माँ ने बड़ी मुश्किल से मेरा दाख़िला इतने अच्छे स्कूल में करवाया है। भले मुझे गाँव की भाषा ना आती हो, मुझे थोड़ी-बहुत अंग्रेज़ी तो आती है, जो गाँव की भाषा सीखने से ज़्यादा ज़रूरी है। ज़रूरी होगा ही, तभी तो मम्मी-पापा इतनी मेहनत करते हैं, गाँव-घर से दूर मेरे लिए रहते हैं।
इतना कुछ सोचते-सोचते उसके मन में अख़बार के नीचे पड़े अपने रिपोर्ट-कार्ड और उस पर पुती लाल-स्याही की तस्वीर उभर आयी। अंग्रेज़ी में फेल होने का दंश और भी गहरा गया। उसके फेल होने पर भगवान और नाराज़ हुए होंगे। उसे खुद पर बड़ी शर्म आयी। उसे लगा उसे माँ को बता देना चाहिए और ये भरोसा दिलाना चाहिए कि आगे वो कड़ी मेहनत करेगा। पर सच के ये अल्फ़ाज़ उसके ज़ुबान तक नहीं पहुँचे। बाहर आयी तो बस एक हिचकी। अपने ऊपर ग़ुस्से का तेज झोंका भी आया। थोड़ा ठहरा, फिर गुजर गया।
उसे माँ की ज्योतिष वाली बात भी याद आयी जिसने कहा था वो बड़ा आदमी बनेगा। ज्योतिष को ये बात कैसे पता चली होगी ? एक सवाल उठा मन में। पर उसने माँ से यह सवाल किया नहीं, उसे लगा फ़िलहाल तो वही ज्योतिष उसके पक्ष में प्रतीत होता है। ना वो खुद, ना उसका रिपोर्ट कार्ड उसके साथ थे। कोई विद्वान ही होगा, जिसे भविष्य की खबर होती होगी। उससे भगवान बहुत खुश रहते होंगे, तभी तो उसे सब बताते हैं। भगवान ने ही बताया होगा, शायद। कई और सवाल, कई और द्वंद उसकी चेतना को छलनी कर गए। वह चुप रहा। आँखें बंद कर लेटा रहा। उसने खुद से वादा किया आगे से वो पढ़ाई पर और ध्यान देगा। शाम को खेलना भी छोड़ देगा। बिलकुल भी बदमाशी नहीं करेगा। शायद तब भगवान खुश हो जाए।
“सो गया क्या ?” - अंधेरे में आती आवाज़ पापा की थी। उसने सुनी, पर हिला नहीं।
माँ ने उसे खाने के लिए जगाया। वैसे तो उसकी भूख ने कब की आत्महत्या कर ली थी, फिर भी वह उठा, खाना खाया और खुद से किए वादे को दुहरा कर, सो गया। अगला सवेरा सुनहरा होगा, इस उम्मीद में। उसे अच्छे-अच्छे काम करने हैं। भगवान को खुश करना है। उसे मेहनत तो करनी ही पड़ेगी, वरना वो ना घर का रहेगा ना घाट का।
लोकतंत्र
भोरे-भोरे चार बजे ही पापा ने सागर को उठाया। बाक़ी सब पता नहीं कब से उठे हुए थे, नहा-धो कर तैयार हो चुके थे। अब बस सागर के तैयार होने का ही इंतेज़ार था। सागर ने जल्दी-जल्दी ब्रश किया, दो बूँद पानी से नहाया, जिसे उसकी माँ कौवा-स्नान बुलाती है और फटाफट कपड़े पहन तैयार हो गया। सबने थोड़ा नाश्ता किया। पापा ने सामान की अटैची उठायी, माँ ने एक थैला, बड़े-पापा ने अपना झोला और सागर ने अपने स्कूल का बस्ता जिसमें उसने कुछ किताबें और खिलौने कल ही भरे थे। उसे अपना बस्ता थोड़ा भारी लगा। खुद से किया वादा भी याद आया। उसने सारे खिलौने निकालकर रख दिए। बस्ता हल्का हुआ, उसमें बच गयी तो कुछ किताबें, कॉपी और एक पेन्सल-बॉक्स।
सब स्टेशन की तरफ़ निकले। अभी पौने-पाँच हुए हैं, साढ़े-पाँच बजे की ट्रेन है। समय पर पहुँच गए तो अच्छी सीट मिल जाएगी। बड़े तेज कदमों से चले जा रहे थे, सबके साथ रहने की जद्दोजहद में सागर लगभग दौड़ रहा था। स्टेशन पर पहुँच कर पिताजी ने टिकट लिए। सब ट्रेन पर चढ़े। दो-ढाई घंटे का सफ़र है। बैठने को सीट मिल गयी। सागर ने खिड़की वाली सीट ली। थोड़ी देर में उसे पखाना करने की ज़रूरत जान पड़ी। सुबह हड़बड़ी में वो कर नहीं पाया था। पिताजी के कान में बोला। पापा उसे शौचालय ले गए। उसे अंदर भेज कर, दरवाज़ा सटा दिया, बोले - “जब हो जाए बुला लेना।”
सागर को हिलते हुए ट्रेन के डब्बे में शौच करने में कठनायी हुई। किसी तरह बैठ कर उसने अपना काम निपटाया। पर उसकी टट्टी शौचालय के छेद में नहीं गयी, बाहर ही रह गयी। एक नल था, जिससे थोड़ा-थोड़ा पानी गिरता था। किसी ने ज़ंजीर तोड़ उस बाथरूम का मग चुरा लिया होगा। टूटे हुए ज़ंजीर को देख उसके दिमाग़ में स्टेशन पर हो रही घोषणा कौंध गयी - “रेल आपकी संपत्ति है, इसकी सुरक्षा में सहयोग करें।” जिसने भी मग्गा चुराया होगा उसने रेल को अपनी संपत्ति ही समझा होगा, इसलिए अपने घर ले गया। शायद अब वो मग सुरक्षित होगा। बड़ी मुश्किल से उसने चुल्लू-भर पानी से अपना पिछवाड़ा धोया। फिर पिताजी को आवाज़ लगायी - “हो गया, पापा।”
पिताजी ने देखा सागर ने बाथरूम गंदा कर दिया है। कुछ बोले नहीं। फ़्लश चलने की कोशिश की, पर वो भी ख़राब था। सागर को ले कर उसे सीट पर माँ के पास बिठाया। फिर पीने की पानी-बॉटल और अख़बार के कुछ पन्ने जिसमें खूबसूरत नायिका के तस्वीर छापे थे, ले कर बाथरूम की तरफ़ चल दिए। सागर उत्सुकतावश उनके पीछे-पीछे चला गया। उसने देखा पापा ने बॉटल से पानी उड़ेल कर उसकी टट्टी बहाने की कोशिश की। टट्टी जम गयी थी, पिताजी ने अख़बार के उन पन्नों को टट्टी पर रखा और पैरों से ठेल कर छेद में गिरा दिया, फिर पानी से फ़र्श साफ़ कर दिया। बॉटल को कूड़ेदान में डाला और अपना हाथ धोने लगे। सागर चुप-चाप सब देखता रहा। पिताजी ने अभी तक उसे नहीं देखा था। जब पिताजी मुड़े, दोनों की नज़रें मिली तो सागर की नज़रें शर्म से झुक गयी। पापा ने कहा - “कोई बात नहीं बेटा। आगे से ध्यान रखना।” फिर दोनों अपनी सीट पर जा कर बैठ गए।
सागर खिड़की से बाहर देखते सोच रहा था - पापा ने ऐसा क्यूँ किया होगा ? पापा ने वैसे ही शौचालय की सफ़ाई कि जैसे वे घर के शौचालय की किया करते थे। पापा ने रेल को अपनी संपत्ति मानी, या उस आदमी ने जिसने मग्गा चुराया होगा ? क्या ज़रूरत थी पापा को साफ़ करने कि, देखने वाला तो कोई नहीं था। ना किसी ने ये देखा की गंदगी किसने की, ना किसी ने पापा के इस नेक काम को ही देखा। किसी को दिखाने के लिए तो पापा ने ये काम तो किया नहीं। ना ही किसी ने तारीफ़ ही की। पर अगर गंदगी वहीं रह जाती तो कोई अजनबी मुझे बिना जाने ही कोसता। पापा ने मुझे किसी अपरिचित अजनबी के अनजाने अपमान से बचा लिया। पर बेचारी उन खूबसूरत हसीनाओं को मेरे कारण क्या दिन देखने पड़े, उन्हें तो कभी पता भी नहीं चलेगा। ख़ैर, अफ़सोस करता सागर पास से गुजरते पेड़-पौधों को देखता रहा और देखते-देखते दादी-घर का स्टेशन आ गया।
ट्रेन से उतरने के बाद सब आराम से घर की तरफ़ चल पड़े। अभी कोई हड़बड़ी नहीं थी, घर थोड़े ही छूट जाता। चलते-चलते सब घर पहुँचे। दादा-दादी के पैर छू कर सागर छत पर पहुँचा जहां से उसके बाक़ी भाई-बहनों की आवाज़ आ रही थी। ऊपर चाचा बैठे थे। उन्हें देख सागर ने उनके भी पाँव छुए। उसके चाचाजी बड़े अधिकारी हैं। बड़े-बड़े शहरों में शानदार मकानों में रहते हैं। कभी-कभार ही छुट्टियों में गाँव आते हैं। सागर को याद आया, जब पहली बार चाचा घर आए थे और माँ ने पूछा कौन हैं तब सागर ने कहा था - “कोई अंकल आए हैं, बिलकुल पापा जैसे ही दिखते हैं।” माँ बाहर आयी तो बताया था - “बेटा ये तुम्हारे चाचाजी हैं। पापा के छोटे भाई, पैर छुओ इनके।” सागर ने उनके पैर छुए और उसे चॉकलेट मिली थी। आज भी चॉकलेट के लालच में उसने पैर पड़े, पर आज कुछ नहीं मिला। आज मिले तो मिले बस कुछ सवाल।
“किस क्लास में पहुँचे ?”
“तीसरी में, चाचाजी।”
“पढ़ाई कैसी चल रही है ?”
“अच्छी॰॰॰”
“बड़े हो कर क्या बनोगे बेटा।”
सागर के आज का ठिकाना नहीं था। फेल हो कर आया है और किसी को बताया भी नहीं है। बड़े होने की कल्पना भी नहीं कर पाया। क्या बोले कुछ समझ नहीं आया। चाचा ने ही नसीहत का बोझ सागर पर डाल दिया - “बेटा पढ़ाई में अभी से ध्यान दोगे तभी कुछ बड़ा कर पाओगे। देखो! सनी को अभी से पता है उसे वैज्ञानिक बनना है और वो अभी तुमसे कितना छोटा है।”
“जी चाचाजी! बहुत मेहनत करूँगा। मुझे भी आपकी तरह ही बड़ा आदमी बनना है।”
उसके चाचाजी घर-परिवार में आदर्श के रूप में माने जाते हैं। उसकी मम्मी तो अक्सर उनका उदाहरण दिया करती है, ख़ासकर जब पढ़ाई की बात हो। सागर ने भी फ़ैसला किया है - उसे भी बड़ा आदमी बनना है। उसके ज्योतिष ने भी माँ को भरोशा दिलाया ही है। पर उसे पता नहीं है आदमी बड़ा कैसे बनता है ? पढ़ने से बनता है बस इतना पता है। पर क्या पढ़ने से ? कई सवाल उसे चारों ओर से घेरे हुए रहते हैं। इतना मुश्किल क्यूँ होता है बड़ा बनना ? छोटा रहने में हर्ज ही क्या है ? ग़रीबी और ज़लालत भरी ज़िंदगी। कुछ सवाल उत्तर खुद साथ लाते हैं।
ख़ैर अभी तुरंत क्या पढ़ेगा, थोड़ी देर में बस्ते से किताब निकालूँगा यह सोच अपने भाई-बहन के साथ खेलने में लग गया। चाचा के दो बच्चे हैं, बड़े-पापा के चार। छुट्टियों में जब सब साथ आते हैं, तो घर भरा-पूरा लगता है। खूब ऊधम-कूद मचाते हैं। खेलते-खेलते शाम होने को आयी। पापा ने सागर से पूछा - “बगीचा चलोगे ?”
सागर पापा के साथ निकल पड़ा, खेतों की पगडंडियों पर चलता-फिसलता सागर पापा के पीछे-पीछे चल रहा था। उसने सोचा पापा से ही पता किया जाए आदमी बड़ा कौन होता है और कैसे बनता है। उसने पापा से पूछा - “पापा दुनिया का सबसे बड़ा आदमी कौन है ?”
“वही जो सबसे अच्छा है।”
पापा का जवाब बड़ा धुंधला सा था। सागर ने सवाल को थोड़ा तोड़-मरोड़ कर फिर से पूछा - “पापा दुनिया का सबसे बड़ा पद कौन सा है ?”
“बेटा ऐसा कोई पद नहीं है। कोई भी पद बड़ा या छोटा नहीं होता। जो भी अपना काम ईमानदारी से करते हैं, वे सब बड़े होते हैं।”
इस जवाब से भी सागर की दुविधा में कोई अंतर नहीं आया। उसने सवाल का दायरा थोड़ा और सीमित किया - “इस देश का सबसे बड़ा पद कौन सा है ?”
सवाल जब सटीक हो तभी जवाब सटीक मिलता है। पिताजी ने उसे बताया - “वैसे तो पद हमारे देश में राष्ट्रपति का पद सबसे बड़ा है, पर प्रधानमंत्री के पास ज़्यादा ताक़त होती है और ज़िम्मेदारी भी।”
“कोई इस देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री कैसे बनता है ?”
“चुनाव से।”
“कैसे ?”
“बेटा हमारे देश में लोकतंत्र है। हम अपने प्रतिनिधि को चुनते हैं। फिर सारे चुने हुए प्रतिनिधि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का चुनाव करते हैं।”
“ये प्रतिनिधि लोग कौन से स्कूल में पढ़ते हैं ?”
पिताजी को सागर के इस मासूम-से सवाल पर हंसी आ गयी, बोले - “किसी भी स्कूल में पढ़ सकते हैं। चुनाव लड़ने के लिए पढ़ाई ज़रूरी नहीं है। कोई अनपढ़ भी चुनाव लड़ सकता है, और राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बन सकता है।” - जवाब देते-देते पिताजी के चेहरे से हंसी ग़ायब हो गयी।
“मतलब प्रधानमंत्री बनने के लिए पढ़ा-लिखा होना ज़रूरी नहीं है ?”
“नहीं, पढ़ना बहुत ज़रूरी है बेटा। पढ़ोगे तभी तो जानोगे अच्छा क्या है और बुरा क्या। देखो! जब तुम इतिहास पढ़ोगे तो पता चलेगा राजाओं ने क्या अच्छा किया, क्या ग़लतियाँ की। भूगोल पढ़ोगे तो पता चलेगा तुम्हारी कार्य-भूमि कहाँ से कहाँ तक है, और उसकी ज़रूरतें क्या-क्या हैं। अर्थशास्त्र पढ़ोगे तो जानोगे कितनी सम्पदा है, और कैसे उसका बेहतर इस्तेमाल हो सकता है। विज्ञान हमें अपनी सम्पदा का बेहतर इस्तेमाल करने में मदद करता है। राजनीति-विज्ञान के ज्ञान से शासन कैसे करते हैं, इसका पता चलेगा। इन सब को पढ़ने के लिए भाषा के ज्ञान की ज़रूरत पड़ेगी। अभी तुम्हें स्कूल में भाषा का ज्ञान और पढ़ने सिखाया जा रहा है। आगे विज्ञान, समाजशास्त्र आदि भी पढ़ाए जाएँगे। एक अच्छा शासक ज्ञानी होता है।
“कुछ दिन पहले अकबर की कहानी सुनायी थी ना। कैसे उनके दरबार में नवरत्न थे, जो ज्ञानी थे और राज-काज के कामों में उसकी मदद करते थे। वैसे ही आज हमारे राष्ट्रपति अकबर जैसे हैं और उनके नवरत्नों का सबसे बड़ा रत्न हमारे प्रधानमंत्री होते हैं, बीरबल की तरह। साथ ही काम-काज में योगदान देने कई और मंत्री होते हैं, कई पढ़े-लिखे अधिकारी भी होते हैं। तब जा कर चलता है इतना बड़ा देश। इन सबको पढ़ाने के लिए शिक्षक होते हैं। जैसे मैं भी बच्चों को पढ़ाता हूँ, इनमें से कुछ मंत्री बनेंगे, कुछ अधिकारी। तुम भी पढ़-लिखकर कुछ अच्छा करोगे।”
आख़िरी वाली पंक्ति पर सागर को भरोशा नहीं हुआ। सागर को माँ की बतायी बात याद आयी, उसने पूछा - “पर पापा, मम्मी ने तो बताया था, आपके स्कूल के बच्चे बड़े बदमाश होते हैं। उनकी संगति में मैं बर्बाद हो जाऊँगा।”
“ऐसा नहीं है बेटा, मैं जिस स्कूल में पढ़ाता हूँ वह एक सरकारी स्कूल है। सस्ता होता है, इसलिए गाँव और गरीब घर के बच्चे ज़्यादा आते हैं। उनके रहन-सहन में आभावों के कारण कई कमी रह जाती है। किसी के पास पर्याप्त किताबें नहीं होती, तो किसी के पास बचपन से ही घर चलाने का दवाब। ऐसे में उनकी पढ़ाई में कमी रह जाती है, अज्ञानतावश वे थोड़े बदमाश हो जाते हैं। पर सब ऐसे नहीं होते। मैं, मम्मी, तुम्हारे चाचाजी और बड़े-पापा भी तो सरकारी स्कूल में ही पढ़े हैं।”
सागर ने सारी बातें को बड़े ध्यान से सुना। सोचा राष्ट्रपति भले पद में बड़ा हो, जब प्रधानमंत्री ज़्यादा ताकतवर है तो कोई राष्ट्रपति क्यूँ बनना चाहेगा ? मैं तो प्रधानमंत्री बनूँगा। कल्पना पर किसी की पाबंदी थोड़े ही होती है। उसने ठान लिया अब अगर कोई पूछेगा - बड़े हो कर क्या बनोगे ? तो वह बोल देगा - मुझे तो प्रधानमंत्री बनना है। अपनी सोच पर उसे बड़ा गर्व हुआ। परमानंद या तो सर्वज्ञानि का गुण है या अज्ञानी का, अंतर बस गुणवत्ता का ही तो है। बच्चे भी परमहंस-तुल्य हैं और महावीर भी। नंगे तो दोनों ही हैं, फ़र्क़ इतना ही है - महावीर को पता है कि वे नंगे हैं, बच्चों को नहीं।
ख़ैर खेल-खेल में छुट्टियाँ ख़त्म होने को आयी। सागर ने अपना लगभग होम्वर्क ख़त्म कर लिया था। अब वापस लौटने की बारी थी।
बेज्जती
लम्बी छुट्टी थी, महीने भर की। सागर लगभग भूल ही गया था - अपना रिपोर्ट कार्ड और वो लाल स्याही। जब पापा ने बताया कि शाम की गाड़ी से हम वापस जाएँगे, अपना समान समेट लो। दहशत से भर गया सागर का मन। वापस जाने का डर, फिर स्कूल में डर, वहाँ से वापस घर आने का डर, अगले दिन का डर। कितना अच्छा है गाँव, क्या कमी है यहाँ, जो छोड़ कर जाए। खाने को बढ़िया खाना, पीने को शुद्ध पानी और दूध, साँस लेने के लिए साफ़ हवा, खेलने को खुले खेत और पहाड़, जीने और कितना चाहिए। जल, ज़मीन, जंगल सब तो है यहाँ। फिर याद आया खुद से किया बड़ा आदमी बनने का वादा।
सोचा - ये गाँव के लोग गाँव में कभी बड़े नहीं हो सकते। उनको भी बड़ा बनने शहर जाना पड़ता है, पापा और चाचा की तरह। देखो तो यहाँ के लोग कितने गरीब हैं। इनके बच्चों को रहने का कोई सलीका नहीं आता। ना कपड़े अच्छे, ना बातें अच्छी। कैसा काला सा चेहरा और सूखा-सा बदन लिए घूमते रहते हैं। देखो तो नाक से नेटा बह रहा है। कैसे जाहिल लोग हैं। सागर ने अपना चेहरा आइने में देखा। उसे लगा वो तो बिलकुल गाँव के बच्चों सा दिखता है। काला है, छाती की हड्डियाँ दिखती हैं। उसमें शहर वाले कोई गुण भी तो नहीं हैं। वह तो बिलकुल देहाती सा दिखता है।
कमरा ख़ाली था, उसने पास पड़ी पाउडर की डिबिया उठायी और थोड़ा पाउडर निकाल, अपने चेहरे पर मल लिया। अब गोरा दिख रहा है। फिर थोड़ा और पाउडर निकला कंधे से छाती तक लगा लिया। बिलकुल अंग्रेज दिख रहा है। मन ही मन गुनगुनाने लगा - “साला मैं तो साहेब बन गया। साहेब बन कर कैसा तन गया॰॰॰” - उसकी बाछें खिल गयी। इतने में माँ कमरे में दाखिल हुई, पूछा - “ये क्या हाल बना रखा है ?” सागर झेंप गया, पास पड़े गमछे से पाउडर झाड़ने लगा। माँ अपना काम कर कमरे से निकल गयी। सागर का ख़याली ट्रेन आगे बढ़ा।
लोग तो सिर्फ़ शहरों में बड़े होते हैं। ये गाँव-वाले लोग तो सिर्फ़ खाना का दाना बनाते हैं, इसमें भी कोई बड़ी बात है। शहरों में लोग अपनी लक़दीर बनाते हैं, खूब सारा पैसा बनाते हैं, तब जा कर कहीं बड़े बनते हैं। उसे जाना ही पड़ेगा वापस, बड़ा आदमी बनने। उसे तो गाँव की भाषा भी नहीं आती, खेती-बाड़ी भी नहीं आती, उसे तो यहाँ का कुछ भी नहीं आता। यहाँ क्या करेगा ? पर वहाँ ही क्या कर लेगा ? उसे तो वहाँ के तौर-तरीक़े भी नहीं आते। आता-जाता उसे कुछ भी नहीं है। कैसे कटेगी उसकी ज़िंदगी ? पता नहीं। क्या बड़ा आदमी बन पाएगा ? पता नहीं। कितना कुछ उसे नहीं पता है। स्कूल में भी ये सब कहाँ सिखाते हैं। कहाँ सीखेगा ? पता नहीं।
सोचते-सोचते अपनी किताबों को बस्ते में डाला। उसे पेन्सल-बॉक्स नहीं मिल रही थी। पूरा कमरा छान मारा। खुद पर रोना आया। पर चुप रहा। दूसरे कमरे में खोजा। फिर अगले कमरे में। कहीं नहीं मिला। जहां देखो उसे सब कुछ लाल नज़र आता। वापस उसी कमरे में गया, पसीना पोछने गमछा उठाया। यहाँ छुपा बैठा था पेन्सल-बॉक्स। उसने बस्ते में ग़ुस्से से पेन्सल-बॉक्स घुसेड़ा। कपड़े पहने और निकल पड़ा अपने शहर के बसेरे की ओर, डरा हुआ, सहमा हुआ। पूरे रास्ते चुप रहा, अंदर-ही-अंदर रोता हुआ। घर पीछे छूट रहा था, आगे तो बस बसेरा था। अगले दिन से स्कूल भी जाना है। रिपोर्ट-कार्ड में पापा या मम्मी के हस्ताक्षर भी लेने हैं। कैसे बोलेगा सच ? कैसे लेगा हस्ताक्षर ? बड़ी दुविधा है।
बसेरा पहुँचते-पहुँचते रात के नौ बज गए। उसकी हिम्मत नहीं हुई, घर वालों से कुछ भी कहने की। चुप-चाप पापा, मम्मी के बीच सो गया। कल देखा जाएगा। सुबह हुई। इतनी जल्दी क्यूँ हो जाता है सवेरा ? थोड़ी देर और रुक जाती रात। कश्मकश में उठा, नहाया, स्कूल के कपड़े पहने। बस-स्टाप पर माँ छोड़ आयी। बस पर चढ़ा। स्कूल पहुँचा। टीचर आयी। पूछा - “सबने रिपोर्ट-कार्ड साइन करवा लाए ?” जिसके नम्बर अच्छे थे, फ़ौरन अपना रिपोर्ट-कार्ड ले कर टीचर के पास पहुँच गए। कुछ अपनी जगह बैठे रहे, सागर भी। टीचर ने कहा जैसे-जैसे वे रोल-नम्बर बुलाएगी, वैसे-वैसे अपना रिपोर्ट-कार्ड कर छात्र जमा करेंगे। सागर का नम्बर आया। वह अपनी जगह से हिला नहीं, कोई आवाज़ भी नहीं आयी। टीचर ने फिर उसका नाम लिया। उसके कान पहले से खड़े थे और खड़े हो गए। पर उस में कोई हरकत नहीं आयी। फिर से क्लास में उसका नाम गुंजा। वह फिर चुप। पास बैठे बच्चे ने बोला - “मैम! सागर यहाँ है।” अब कोई चारा नहीं बचा था। सागर उठा मैम के पास गया और बोला - “रिपोर्ट-कार्ड लाना भूल गया।”
“खाना खाने भूल गए थे ?”
“नहीं।”
“नहाना भूल गए थे ?”
“नहीं।”
“तो रिपोर्ट-कार्ड कैसे भूल गए ?”
“बिना खाए मार जाऊँगा। बिना नहाए गंदा हो जाऊँगा। पर वो लाल रिपोर्ट-कार्ड गंदा है, मुझे मार डालेगा। खाना क्यूँ भूलूँ भला। नहाना क्यूँ भूलूँ। मैं तो रिपोर्ट-कार्ड ही भूलूँगा।” - सागर ने मन-ही-मन बोला। पर सामने चुप।
“कल ले कर आना, वरना पिटायी होगी।”
“सॉरी मैम।” - सागर की जान आज तो बच गयी। पर कल क्या होगा ? पता नहीं। घर पर कैसे बोलेगा ? पता नहीं।
स्कूल में छुट्टी की घंटी बाज़ी। सागर भारी मन से अपना भारी बस्ता उठाया, भारी कदमों से बस तक पहुँचा। चढ़ा। वही पसीने की दुर्गंध में साँस लेना भी मुश्किल था। टीचर वहीं बैठी थी। उसने फिर सागर को याद दिलाया। सागर ने सिर हिलाया। बस चली। उसके स्टाप पर पहुँची। माँ वहीं खड़ी थी। सागर के उतरते ही पूछा - “रिपोर्ट कार्ड मिला ?”
सागर चुप। क्या बोले। मम्मी ने बैग लिया। दोनों घर की तरफ़ चले। सागर को जैसे साँप सूंघ गया था। वही नाग जो अभी किताबों के नीचे बिछे अख़बार के नीचे दबा हुआ है। फूँफकार रहा है। उसकी लाल आखें सागर को घूर रही हैं। डरा हुआ है।
दोनों घर पहुँचे। माँ ने फिर वही सवाल किया। पूरी दुनिया में और कोई बात नहीं बची है क्या करने को। बार-बार एक ही सवाल क्यूँ पूछती जा रही है माँ। उसे माँ पर भी ग़ुस्सा आया। पर अब भी चुप। माँ ने फिर पूछा।
“माँ आज भी नहीं मिला रिपोर्ट-कार्ड। टीचर बोली आज लाना भूल गयी थी। कल देगी। शायद छुट्टियों में अपने घर ले गयी थी, अपनी गलती ठीक करने।”
माँ को अब पक्का यक़ीन हो गया था - कुछ तो गड़बड़ है। किचन गयी। खाना निकाल कर सागर को बुलाया। सागर ने अनमने ढंग से खाया। फिर बिस्तर पर लेट गया। आँखें मुँदे लेटा रहा। पापा आए। फिर वही सवाल। फिर वही झूठ। शाम हुई, फिर रात। फिर सवेरा हो गया। सागर सवेरे को कोसता उठा, तैयार हुआ। स्कूल गया। टीचर ने फिर रिपोर्ट-कार्ड माँगा। उसने फिर वही जवाब दिया। टीचर ने छड़ी उठायी। सागर ने बिना हिचक हाथ आगे कर दिए। टीचर ने तीन-चार छड़ी जमा दी। उसकी स्कूल-डायरी मंगायी। उसमें अभिववक के नाम ख़त लिखा, जिसमें उन्हें हाज़िर होने का हुकुम दिया गया था। सागर से बोला - इस ख़त पर अपने पापा के हस्ताक्षर ले कर आना और लिखवा कर लाना कि वे कब आएँगे मिलने। अभी तक बस रिपोर्ट-कार्ड पर हस्ताक्षर करवाने थे, अब डायरी पर भी। उफ़्फ़। पापा को आना भी पड़ेगा। उनकी भी क्लास लगेगी। फिर मेरी कुटायी होगी। दहशत का महौल और गहरा गया।
छुट्टी हुई। सागर की बस स्टाप पर पहुँची। उसे पूरी उम्मीद थी, उतरते ही माँ वही सवाल करेगी। अब क्या बोलेगा ? पता नहीं।
आश्चर्य! आज माँ ने कुछ नहीं पूछा। सागर का बस्ता लिया और घर की तरफ़ चल पड़ी। सागर पीछे-पीछे चलता रहा। घर पहुँचे। सागर ने देखा पापा घर पर ही हैं। जहां उसने रिपोर्ट-कार्ड छिपाया था, वहाँ से सारी किताबें निकली हुई है। रिपोर्ट-कार्ड पापा के हाथ में है। सच का पिटारा खुल चुका है, उसमें छुपा नाग पापा के हाथों में मचल रहा है। सागर को काटो तो खून नहीं।
पापा ने उसे बुलाया, पास बिठाया। प्यार से सिर पर हाथ सहलाया। बोले - “बेटा! सभी कभी फेल तो कभी पास। इसमें इतना डरने की क्या ज़रूरत है ? झूठ बोलने की क्या ज़रूरत थी ? सच बता देते, तो ना तुम्हें इतनी परेशानी होती, ना मुझे इतना दुःख।”
पापा ने घबराए हुए सागर को गोद में बिठाया। सागर डर से काँप रहा है। क्या बोले, क्या ना बोले - कुछ समझ नहीं आ रहा है। पिताजी की भी हालत कुछ वैसी ही है। ग़ुस्सा है, थोड़ा मलाल भी। बच्चे की हालत पर तरस भी आ रहा है। कुछ बोल नहीं पाए। उनकी आखों से आंसू छर-छरा कर बह निकले। सागर और सहम गया। पिताजी के आंसू पोछने लगा। ढेर सारे वादे करना चाहता था। पर शब्द नहीं निकले। वह भी रो पड़ा। दोनों को रोते देख माँ भी रुआंसी हो गयी। घर पर सब रो रहे थे। सागर को लगा सब उसकी गलती है। वह सॉरी पापा, सॉरी पापा बोलते हुए पापा के आंसू पोंछता रहा।
थोड़ी देर में पिताजी शांत हुए, सागर को गोद में लिए छत पर गए। सागर को गोद में जकड़े छत पर घूमने लगे। बहुत कुछ समझाना चाहते हैं, ज़िंदगी के बारे में, सच के बारे में। पर बोल कुछ नहीं पाए। सागर कितना समझ पाएगा ? इसका आँकलन नहीं कर पा रहे हैं। चुप हैं। सब चुप है और बोलने को बहुत कुछ। डाँटना भी चाहते हैं, पर अब हालत नहीं है। जब शब्द काम नहीं आते, मौन अपना काम कर जाता है। अब इस चुप्पी को सागर ही तोड़ सकता है।
“पापा! आगे से मैं बहुत मेहनत करूँगा।”
“ठीक है बेटा। पर वादा करो कभी झूठ नहीं बोलोगे। कोई बात छुपाओगे नहीं।”
सागर ने सहमति में सिर हिला दिया। थोड़ी देर और छत पर टहलते रहे। शाम ढलने लगी थी। माँ ने दोनों को नाश्ते के लिए बुलाया। सागर अभी भी सहमा हुआ है। पापा उसे ले कर नीचे गए। सागर ने अभी-अभी वादा किया है, सच बोलेगा, कुछ छिपाएगा नहीं। सागर ने अपनी स्कूल-डायरी पापा को दिखायी। पापा ने पढ़ा, कुछ बोले नहीं। अपने हस्ताक्षर से दोनों अपमान को स्वीकृति दे डाली। लिख दिया वे कल ही सागर के साथ स्कूल जाएँगे।
शाम रात में बदली, रात सुबह में। आज सागर बस से नहीं जाएगा। पापा उसे ले कर स्कूल पहुँचे। प्राइवेट स्कूल में सिर्फ़ छात्रों को ही नहीं, उसके अभिभावक की भी जम का बेज्जती की जाती है। वही हुआ। पिताजी को मैडम ने बड़े अच्छे-अच्छे शब्दों में बेज्जत किया। सागर के आखों से आंसू छलक गए। पिताजी से मैडम ने बोला - “आपका बच्चा पढ़ाई में कमजोर है। इसे ट्युशन की ज़रूरत है। आप इसे किसी अच्छे टीचर से ट्युशन दिलवाएँ।” पिताजी उनकी हर बात से सहमत होते गए। सागर चुप रहा, बस रोता रहा। उसे रोते सब ने देखा पर किसी को उस पर दया नहीं आयी। पिताजी उसे स्कूल में छोड़ कर चले गए। सागर स्कूल ख़त्म होने के बाद घर पहुँचा। माँ ने उसे बताया पिताजी कितने परेशान हैं। एक अंग्रेज़ी के शिक्षक से बात हुई है। खा लो फिर मैं तुम्हें वहाँ ले चलूँगी।
सागर के स्कूल बैग में माँ ने किताबें और कॉपी डाली। खा-पी कर दोनों निकले। दो गली छोड़ कर एक घर में घुसे। माँ ने सर से बात की, कुछ पैसे थमाए और शुरू हुई ट्युशन की क्लास। चार-पाँच बच्चे पहले से बैठे थे। सारे उदास थे। खेलने का थोड़ा जो समय मिलता था उन्हें, वह भी छीन गया था। पर खेलने से क्या होगा, पढ़ाई ज़रूरी है। सो मुंडी गोत कर सब रटने में लगे रहे।
वार्षिक परीक्षा में सागर के अच्छे नम्बर तो आए, फिर भी कई बच्चों से कम। इसका दुःख अलग था। कम था, पर था। अगली क्लास में भी वही हाल रहा। चौथी कक्षा पार हुई। फिर पाँचवीं। फ़िट छठी। सागर की अंग्रेज़ी अब बेहतर हुई, पर इस बार वो गणित में फेल हो गया। तो अब गणित के ट्युशन की बारी थी। पर गणित फिर भी उसके पल्ले नहीं पड़ा। वह लगातार फेल होने लगा।
उसके ट्युशन वाले मास्टर ने भी एक दिन उसकी जम कर बेज्जती कर डाली, बोले - “हिंदी के शिक्षक का बेटा गणित क्या जाने!” सारे बच्चे खि-खि करते, दांत बिचकाते उसकी तरफ़ देख रहे थे। सागर अपमानित सा बैठा रहा। इस बार तो सिर्फ़ उसकी नहीं, उसके माँ-बाप को भी गाली पड़ी थी। उसके पापा-मम्मी दोनों ही हिंदी के शिक्षक थे। हिंदी-माध्यम के छात्र। सागर को आज समझ आया किस अपमान का सामना उसके माता-पिता ने किया होगा, जिस कारण इतनी जद्दो-जेहद से उसे अंग्रेज़ी-माध्यम में पढ़ाने का कष्ट उन्होंने उठाया। डरे-सहमे घर पहुँचा, किसी को कुछ नहीं बताया। बताता भी तो क्या बताता ? बता भी देता तो उसे ही गालियाँ पड़ती। पूरे ख़ानदान की नाक कटवाने का इल्ज़ाम भी लगता।
ख़ैर, किसी तरह अनुकम्पा के नम्बर जोड़-जाड़ कर सागर अगली कक्षा में पहुँचा। सातवीं में भी गणित का भूत उसे डरता रहा। गणित के भूत के साथ अब विज्ञान का पिशाच भी उसके पीछे पड़ गया। अब वो दो-दो ट्युशन जाता है, स्कूल के बाद।
बचपन के दिन लगभग समाप्त होने वाले थे। पूरा बचपन बीत गया, सागर ने शायद ही कोई बदमाशी की होगी, शायद ही शरारत की कोई शिकायत उसके घर पहुँची होगी। एकलौता डरा-सहमा बच्चा, जिसका बचपन स्कूल और ट्युशन की भाग-दौड़ में ख़त्म होने वाला था, शैतानी कब करता। बचपन का सबसे अनमोल धन उसकी किताबें ही थी, स्कूल वाली नहीं। वो क़िस्से-कहानियों की किताबें जो उसके पापा उसे ला-ला कर दिया करते थे पढ़ने - नंदन, नन्हे-सम्राट, बालहँस, चम्पक और कई सारे बाल उपन्यास। उसे कॉमिक्स पढ़ने का भी खूब शौक़ था, पर पिताजी को कॉमिक्स पसंद नहीं थे। उसे कभी नहीं दिलाते। चुरा-छिपा कर उसने वो भी पढ़ी थी, कभी दोस्तों से ले कर, या कभी मामा की खुशामद करके।
किशोरावस्था
उसकी माँ सुबह-शाम भगवान को खुश करने में लगी रहती है। नहा-धो कर अगरबती जलाती है। पूजा-पाठ करती है। पिताजी को भगवान से ज़्यादा लेना देना नहीं था। स्कूल के इन भूतों के चक्कर में सागर भी आज-कल अगरबत्ती जला कर पढ़ने बैठता है। फिर भी कोई चमत्कार नहीं हुआ। सातवीं की वार्षिक परीक्षा में भी वो गणित में फेल हो गया। फिर से अनुकम्पा के नम्बर जुड़े, तब जा कर वो आठवीं में पहुँचा।
अब सागर की दिनचर्या कुछ इस प्रकार थी - सुबह उठना, स्कूल जाना, फिर लौट कर गणित के ट्युशन जाना, वहाँ से विज्ञान का ट्युशन। शाम की आख़िरी रौशनी ख़त्म होने के पहले घर वापस आना। फिर स्कूल और ट्युशन का होम्वर्क बनाना। सोने, उठना, वापस वही सब। छुट्टियों में भी होम्वर्क के पहाड़ तले दबा रहता।
माता-पिता दोनों उसकी पढ़ाई के लिए परेशान। वह खुद पढ़ाई से परेशान। किसी को उसके शारीरिक या मानसिक स्वस्थ की चिंता ही नहीं थी। हाँ कभी बीमार होता या बीमारी का बहाना भी बनता, तो मम्मी-पापा उसे तुरंत डॉक्टर के पास ले जाते थे।
इस बीच कब किशोरावस्था दम-दाखिल हुई किसी को खबर ही नहीं लगी। शरीर में नए-नए बदलाव आने लगे। अचानक उसका वजन बढ़ गया। सातवीं की परीक्षा जब वह देने जाता था, बिलकुल दुबला-पतला था। आठवीं में जब स्कूल वापस गया, तो मोटा-तगड़ा हो गया था। छाती में सूजन आ गयी, बिलकुल लड़कियों जैसी। उसके स्तन बाहर निकल आए थे। उसे शर्म आने लगी। किसी तरह बनियान को तान कर चड्डी में खोंस कर उन्हें दबाने की कोशिश करता। पर जब कभी वो दौड़ता, उसके दोनों स्तन हिलने लगते। उसे दौड़ने में भी शर्म आने लगी। खेलना तो बचपन में ही बंद हो गया था, दौड़ने से भी डर लगने लगा था - कहीं कोई चिढ़ा ना दे।
स्कूल में बच्चे उसका मज़ाक़ उड़ाते, मोटा-मोटा कह कर बुलाते। उनकी हिंदी की पुस्तिका में एक किरदार था - “श्यामलाकांत”, जो चार बच्चों का बाप था। इस नाम से उसे किसी बच्चे ने नवाज़ा। बाक़ी बच्चों को बड़ी हंसी आयी। अब सब उसे “श्यामलाकांत” बुलाते हैं। वह चिढ़ जाता, तो बच्चों को और मज़ा आता। वे बार-बार उसे चिढ़ाते, वह बार-बार चिढ़ जाता। कभी झगड़ा करता, या दूसरे का मज़ाक़ उड़ाने का असफल प्रयास करता।
उसे तो किसी का मज़ाक़ उड़ाना भी नहीं आता। सागर बेज्जती में कहीं बची-कुची इज़्ज़त तलाशता। पर खुद पर गर्व करने लायक़ उसके पास कुछ भी तो नहीं था। घर पर भी कुछ रिश्तेदार उसे समझाते - “बेटा अपनी सेहत का ख़याल रखो। देखो तो कितने मोटे हो गए हो!” वह झेंप जाता। उसे ग़ुस्सा भी आता। पर क्या बोलता, सो चुप रहता। बेज्जती झेल जाता।
इस बीच उसके पिताजी की नौकरी कॉलेज में हो गयी। उन्हें कॉलेज में ही एक क्वॉर्टर मिल गया। सामने बड़ा-सा खुला मैदान था। दौड़ने के लिए काफ़ी जगह थी, खेलने के लिए भी। पर समय नहीं था। सागर ने फ़ैसला किया, वो रोज़ सुबह मुँह अंधेरे ही उठेगा और दौड़ने जाएगा, ताकि उसे मोटापा से छुटकारा मिले। अगले दिन वह सुबह चार बजे ही उठा, मैदान में गया। देखता है, बहुत सारे लड़के और लड़कियाँ वहाँ दौड़ रहे हैं, कोई कसरत कर रहा है, कोई खेल रहा है। वह दौड़ नहीं पाया, उसे शर्म आ रही थी। खुद को कोसता, वापस घर आ गया।
पढ़ाई में तो फिसड्डी था ही, खेलना उसे आता नहीं, दौड़ने से वो शर्मा जाता है, बाक़ी कुछ उसने सिखा नहीं। ना उसे नाचना आता, ना गाना। फुरसत ही कहाँ थी। एक बार शिक्षक दिवस पर क़व्वाली में हिस्सा लिया। नाचते-नाचते वो मंच पर से लुढ़क गया। बाक़ी बच्चों ने उसकी खुल कर खिल्ली उड़ायी। ज़िंदगी ज़लालत से भर गयी। अब माँ-बाप, परिवार उसके रिज़ल्ट को भी देखते और सेहत को भी। दोनों का दोषी उसे ही ठहरा देते। वह भी मान चुका है - सारा दोष उसी का तो है। कैसा नालायक है ? उसे कुछ भी तो नहीं आता।
किसी तरह नौवीं में पहुँचा। नए-नए भूत मिले, उनमें से एक था कम्प्यूटर। सागर उसमें में भी फेल हो गया, उसने कम्प्यूटर को एक नया नाम दिया - ‘करम-फ़ुटर’। अब एक और ट्युशन जुड़ गया, कम्प्यूटर का। एक-दो दोस्त ही उसके भी बने, जो उसका मज़ाक़ नहीं उड़ाते। बिट्टू उनमें से एक था, दूसरा अंकित था। पर बिट्टू और अंकित की आपस में नहीं बनती। तो सागर को इन दोनों से अलग-अलग मिलना पड़ता। वैसे ये सब एक ही कक्षा में थे, पर कभी एक साथ नहीं होते। सागर अंकित के साथ कम्प्यूटर के ट्युशन जाता और बिट्टू के साथ गणित और विज्ञान का। वह जहां भी जाता डरा-सहमा सा जाता।
पिछले कुछ दिनों से सागर के साथ एक नयी घटना घटने लगी थी। वह जब सवेरे उठता, उसकी चड्डी गिली होती। बिस्तर में पेशाब करना उसे याद था, क्यूँकि चौथी-पाँचवीं तक वो बिस्तर गिला करता रहा था। पर ये कुछ नया था। पेशाब नहीं था। कुछ गाढ़ा, चिपचिपा सा था। उसकी समझ नहीं आया। किसी से पूछने की हिम्मत भी नहीं होती। उसे लगता उसे कोई नया रोग हो गया है। कई दिनों तक डरा रहा।
एक दिन कम्प्यूटर के ट्युशन में वो अंकित के साथ था। मास्टर ने अपने कम्प्यूटर पर उन्हें कुछ प्रोग्राम लिखने दे कर कहीं बाहर चले गए। उनके मास्टर अभी कुंवारे थे और अकेले रहते थे। मौक़ा देख दोनों ने कम्प्यूटर में इधर-उधर देखना शुरू किया। उन्हें एक विडीओ फ़ाइल मिली। खोलने पर दिखा एक गठीला नंगा युवक एक खूबसूरत नंगी युवती पर चढ़ा हुआ है। बड़ी अजीब-अजीब आवाज़ें आने लगी। घबरा कर पहले तो सागर ने विडीओ बंद कर दिया। पर उत्सुकता ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। उन्होंने मिल कर दिमाग़ लगाया, स्पीकर के तार को कम्प्यूटर से निकाला और वापस विडीओ शुरू किया।
युवक-युवती एक दूसरे को चूम रहे हैं। फिर सम्भोग का दृश्य दिखा। कैसे युवक का लिंग खड़ा था और योनि में प्रवेश कर रहा था। उनके लिंग में हरकत हुई। दोनों हतप्रभ और सम्मोहित से देखते रहे। दरवाज़े पर हुई हलचल से दोनों का सम्मोहन टूटा, फ़ौरन विडीओ बंद हुआ और किताबें खुल गयी।
ट्युशन से निकलने के बाद दोनों चुप-चाप नज़रें छुपाए घर निकल गए। घर जाते ही सागर बाथरूम पहुँचा। कम्प्यूटर पर देखा दृश्य उसने अपने मन में दुहराया, लिंग में फिर हरकत हुई। उसने पहली बार खुद को ऐसे छुआ, जैसे पहले कभी नहीं छुआ था। थोड़ी देर सहलाने के बाद वैसा ही चिप-छिपा सा कुछ निकला जैसा उसकी चड्डी को गिला करते आया था, जो पेसाब नहीं था।
आनंद का एक नया आयाम अभी-अभी खुला था, मर्दंगी का पहला अनुभव। एक बात और निश्चित हुई, उसे कोई रोग नहीं था। फिर उसकी नज़र अपनी सूजी हुई छाती पर गयी। अपनी मर्दंगी पर उसे शक हुआ। गहरे चिंतन और चिंता से घिर गया। उसके स्कूल में लड़के-लड़कियाँ दोनों पढ़ते थे, कॉन्वेंट स्कूल था। पर लड़के लड़कियों से बात भी नहीं कर सकते थे। बात करते देखे जाने पर टीचर लड़कों को डाँट कर भगा देते। हाल ही में किसी लड़के ने एक लव-लेटर लिखा था। उसे स्कूल से निकाल दिया गया था। इस नए अनुभव के बाद, सागर का लड़कियों के प्रति नज़रिया ही बदल गया। पहले तो उसे लड़कियों से बात करने की कोई दिलचस्पी नहीं थी, क्यूँकि लड़के भी उससे ठीक से बात नहीं करते थे। लड़कियों से वो क्या बात करता। पर अब लड़कियों के सामने उसे घबराहट होने लगी।
अपने बेडौल शरीर से उसे चिढ़ आती। अपने बढ़े हुए स्तनों को काट देना चाहता था। घर पर जब एक बार वो अकेला था, उसने चाकू भी उठाया आज उन्हें काट कर अलग कर देगा। पर हिम्मत नहीं हुई। दर्द के पहले ही दर्द का अनुभव कर उसे रोना आ गया। अकेले वो रोया। उसे देखने वाला कोई नहीं था। माँ स्कूल में, पापा कॉलेज में। किशोरावस्था ज़िंदगी का बड़ा नाज़ुक मोड़ होता है। कोई साथ होना चाहिए, कोई सुनने-समझने वाला। पर सागर बिलकुल अकेला था। उसके तो दोस्त भी गिने-चुने थे। उनसे भी बात करने में उसे झिझक होती थी। उसे हमेशा डर लगा रहता था, कहीं किसी बात पर इनसे भी झगड़ा ना हो जाए। फिर तो वो बिलकुल ही अकेला हो जाएगा। उसके कोई भाई-बहन भी नहीं थे। एकल परिवार था।
स्कूल में तो बात करने पर भी फ़ाइन लिया जाता था। अंग्रेज़ी-माध्यम स्कूल था, हिंदी में बोलते पकड़े गए तो फ़ाइन दुगुना होता था, साथ में अलग से मार भी पड़ती थी। अंग्रेज़ी में वो अपने विचारों को शब्द देने में अभी सक्षम नहीं था। हिंदी में बोलने की इजाज़त नहीं थी। उसकी क्लास में सप्ताह की आख़िरी घंटी मार-पीट की थी। सप्ताह भर क्लास का मॉनिटर उन सबके नाम लिखता जो क्लास में बात करता था और साथ में कितनी बार बात किया उसका नम्बर। जितना नम्बर होता, उतनी छड़ी पड़ती थी। सो सागर स्कूल में भी चुप, घर में भी चुप।
ऐसे बच्चों के लिए जेल और स्कूल का अंतर लगभग ख़त्म हो जाता है। वैसे भी दोनों का काम तो एक ही है - व्यक्तित्व में सुधार का। दोनों ही जगह हंटर भी चलते हैं। बस अंतर इतना ही होता है, जेल कोई अपनी या अपनों की मर्ज़ी से नहीं जाता। वैसे स्कूल भी कोई अपनी मर्ज़ी से नहीं जाता, पर माँ-बाप अपने बच्चों को जेल से बचाने के लिए, ज़बरदस्ती स्कूल भेजते हैं। होंगे कुछ बच्चे जो स्कूल जाना चाहते होंगे, पर सागर उनमें से एक नहीं था। सागर ने कोई सपने नहीं सजाए थे, जिसे पूरा करने वो स्कूल जाता। घरवालों ने कुछ सपने थोप रखे थे। माँ-बाप को खुश रखने के अलावा सागर को स्कूल जाने का कोई और कारण कभी मिला नहीं। मम्मी-पापा उसके लिए ही तो सारी मेहनत करते थे। अगर वो इतना भी करता तो क्या करता ? किसी और लायक़ तो वो खुद को मानता भी नहीं था।
मम्मी-पापा अपने काम से थक कर आते तो जल्दी-जल्दी माँ खाना बनाती, पिताजी टी॰वी॰ देखते, सागर होम्वर्क करने के बाद पापा के पास बैठ कर टी॰वी॰ देखता, फिर खा कर सब सो जाते। देर रात तक टी॰वी॰ भी देखने की इजाज़त नहीं थी उसे। वैसे तो टी॰वी॰ उसी के कमरे में थी। पर दो ही कमरे थे, जो एक दरवाज़े से जुड़े थे। थोड़ी भी खटर-पटर से मम्मी की पतली नींद खुल जाती। इसलिए सागर कोई रिस्क नहीं लेता। बिस्तर पर लेता रहता, कभी-कभी तो आधी रात तक सागर अपनी ज़िंदगी को कोसते-कोसते सो जाता। हर रात कोसने के नए-नए तरीक़े खोजता।
कभी उसे माँ की वो बात याद आती थी - भगवान को खुश करने वाली। पर उस बात से उसका भरोशा उठने लगा था। उसे लगने लगा था, ये भगवान कोई बहुत ही दुखी-आत्मा है, कुछ भी कर लो वो खुश नहीं होने वाला। सदियों से कितनी पूजा-अर्चना इंसानों ने की होगी, अभी तक खुश नहीं हो पाया, बेचारा। सागर क्या ही कर लेगा भगवान को खुश करने के लिए। हर रोज़ मंदिरों में, मस्जिदों में ज़ोर-शोर से उसकी खुशामद में लोग लगे रहते, होता तो कुछ भी नहीं है। जो गरीब हैं, वे मंदिर जा कर और गरीब हो जाते हैं। उनके पैसे से मंदिर को सजते-सँवरते देखा है, सागर ने।
माँ तो अब भी रोज़ करती है पूजा, मिला क्या - ऐसी नालायक संतान जो ढंग से पढ़ भी सकता, कुछ भी कर ले नम्बर आते ही नहीं हैं। खुद को नए-नए अन्दाज़ में कोसने में ही उसे मज़ा आने लगा था। पिछली परीक्षा में उसने भगवान से खूब मिन्नतें की थी पास होने की, हुआ नहीं। इसलिए अब वह खुद के साथ भगवान को भी कोसता है। भगवान के नाम से भी उसे चिढ़ होती है। उसके पिताजी तो कभी भगवान की चापलूसी नहीं करते। माँ से कहीं ज़्यादा खुश रहते हैं। माँ को कॉमडी देख कर भी हंसी नहीं आती। पापा हर शाम टी॰वी॰ देखते हुए क्या ठहाके लगते हैं। अब तो अपने दोस्तों के बीच वो भगवान को गालियाँ भी देने लगा था। गंदी से गंदी, गाढ़ी-गाढ़ी, माँ-बहन वाली गालियाँ। गाली दे कर शान से कहता - देखो! भगवान ने उसका क्या उखाड़ लिया। भगवान ने अगर उसे बनाया तो इतना बदसूरत क्यूँ बनाया। अगर वो होता तो उसके आंसू की पुकार तो सुनता, या उसकी गालियों के जवाब तो देता। जब वो इतना भी नहीं कर सकता, तो किस काम है भगवान। क़िस्से-कहानियों में उसने पढ़ा है, भक्त के सवालों का जवाब देने भगवान यदा-कदा प्रकट होते हैं। पर जब से टी॰वी॰, मूवी में आने लगे हैं, भाव-बट्टा बढ़ गया है उनका भी। सिलेब्रिटी हो गए हैं। अब वहीं नज़र आते हैं, गरीब लोगों को दर्शन देना बंद कर दिया है।
तो कभी अपने शिक्षकों को कोसता। पढ़ना-लिखना आता नहीं है, नम्बर भी कम देते हैं, ऊपर से गालियाँ भी उसे ही देते हैं। ये कौन सी बात हुई पैसे भी उसके मम्मी-पापा से लेंगे और गालियाँ भी उन्हें ही देंगे। एहसान-फ़रामोश कहीं के! फिर उसे लगता उनकी भी क्या गलती है, उसे खुद ही क्या आता है। कुछ भी तो नहीं आता है उसे। दूसरे के गिरेबान पर उँगली उठाने से पहले घर ही देख ले। उसके मम्मी-पापा भी तो शिक्षक हैं, उन्हें भी कोई ऐसे ही गालियाँ देता होगा। उसे वापस खुद पर ग़ुस्सा आता। फिर सो जाता। फिर अगले दिन कोई नया मुद्दा। परेशान आत्मा पता नहीं कब शांत होगी ? घूम फिर कर हर बार खुद को ही कोसता हर रोज़ सागर सो जाता, नींद तो आ जाती पर चैन कहाँ था ? पता नहीं।
किशोरावस्था से जूझते-जूझते दसवीं कक्षा में आ गया। चारों ओर से अब एक ही बात उसके कानों में गूंजती - “बेटा! खूब मेहनत से पढ़ो। दसवीं में नम्बर अच्छे नहीं आए, तो आगे किसी अच्छे कॉलेज में दाख़िला नहीं मिलेगा। फिर कोई अच्छी नौकरी भी नहीं मिलेगी। कोई अच्छी बीवी भी नहीं मिलेगी। ज़िंदगी चौपट हो जाएगी।” स्कूल में, घर पर यही गीत सब गाते रहते। सागर परेशान। छठवीं कक्षा में आख़िरी बार उसने गणित में पास किया था। तबसे अनुकम्पा के नम्बर के भरोसे ही कक्षा-दर-कक्षा बढ़ता आया है। विज्ञान भी उसके पल्ले नहीं पड़ता। कैसे करेगा ? उसे लगने लगा था, उसकी तो ज़िंदगी चौपट ही होगी।
प्री-बोर्ड एग्जाम आए। स्कूल ने शर्त रखी थी, जो भी फेल होगा उसे बोर्ड के पेपर देने नहीं दिए जाएँगे और इस बार अनुकम्पा पर भी नम्बर नहीं मिलेंगे। सागर के हौंसले पस्त थे। फिर भी उसने जी-तोड़ मेहनत की और किसी तरह सारे विषयों में पास हो गया। कम-से-कम अब वो बोर्ड की परीक्षा में बैठ सकता है।
दिवास्वप्न
बोर्ड की परीक्षा में अभी वक्त था। सागर ने कुछ दिनों पहले ‘हैरी पॉटर’ की पहली फ़िल्म देखी थी। कल्पना के संसार से उसे बड़ा लगाव था। कहानियों और उपन्यास से उसका पुराना नाता था। उसे अभी-अभी पता चला कि हैरी पॉटर की पाँचवीं पुस्तक बाज़ार में उपलब्ध है। पापा से ज़िद्द करके उसने पाँचों खंड ख़रीदे और पढ़ने बैठ गया। तीन दिन लगातार पढ़ता रहा। तीन दिनों में उसने पूरे पाँच खंड पढ़ डाले। उसके मन में भी ऐसी कोई काल्पनिक दुनिया बसाने का सपना घर कर गया। लेखक बनने का सपना। कल्पनाओं की दुनिया में विचरण करने का सपना।
पिताजी ने भी एक-दो पुस्तकें लिखी हैं। वह पापा के पास पहुँचा, अपना सपना बताने और पूछने कि वो लेखक कैसे बन सकता है। पिताजी ने समझाया, पर चेतावनी भी दे डाली - “लेखक बन पाना आसान नहीं है। कई लेखक तो आजीवन भुखमरी के शिकार रहे। कई लेखकों की रचनाएँ तो उनके गुजर जाने के बाद प्रचलित हुईं।” उन्हें भी अपनी किताबों कोई ख़ास आमदनी नहीं हुई थी। लेखन से जीवनयापन सम्भव नहीं है। उन्होंने समझाया - अभी पढ़ाई पर ध्यान दो। फिर जो भी बनना चाहो, बन जाना। पढ़ोगे, तभी तो लिख पाओगे। पापा की बात उसे सही लगी।
ग़रीबी वाली बात पर सागर के मन में एक सवाल उठा। उसने पास पड़े पचास का नोट को उठाया और पापा से पूछा - “पापा! ये रुपया-पैसा कौन बनाता है ?”
“केंद्र सरकार बनाती है, भारतीय रिज़र्व बैंक इसे जारी करती है। देखो इसमें गवर्नर ने तुम्हें ५० रुपए देने का वादा भी किया है। उसके हस्ताक्षर भी हैं।”
“तो पापा कोई गरीब क्यूँ होता है ? सरकार ज़्यादा पैसे छापे और सब में बराबर-बराबर बाँट दे, तो कोई भी गरीब नहीं रहेगा। है ना ?” - सागर का सवाल पेंचिदा था। कोई अर्थशास्त्री ही सटीक जवाब दे पाए। पिताजी ने उसे समझाने की कोशिश में कहा - “सरकार मनचाहे ढंग से पैसा नहीं छाप सकती। हर नोट को छापने के बदले, रिज़र्व बैंक में उतने मूल्य का सोना जमा करना पड़ता है। किसी भी देश की सम्पूर्ण सम्पत्ति का प्रतिबिम्ब है, बाज़ार में उपलब्ध मुद्रा। आगे जब अर्थशास्त्र पढ़ोगे तो ठीक से समझोगे।”
सागर की रूह अर्थशास्त्र के नाम ही काँप उठती है। बड़ी भयंकर लगती है उसे अर्थशास्त्र की अवधारणा। अर्थशास्त्र की पढ़ाई उसके स्कूल में होती थी। कम्प्यूटर और अर्थशास्त्र वैकल्पिक विषय थे। उनमें से किसी एक को चुनना था। उसने कम्प्यूटर चुना था। मुख्यतः गणित के कारण, जहां कम्प्यूटर गणित के सवाल हल कर सकता था, वहीं अर्थशास्त्र खुद एक गणित का सवाल था।
कम्प्यूटर को विषय के रूप में चुनने का एक और फ़ायदा हुआ था - पापा ने कुछ दिनों पहले ही सागर को एक कम्प्यूटर ख़रीद कर दिया था। वैसे तो वो कम्प्यूटर सागर के पढ़ाई के लिए कम, खेलने के लिए ज़्यादा उपयोग आता था। पर पिछले कुछ दिनों से उसे कम्प्यूटर कोड को अपने इशारों पर नचाने में मज़ा आने लगा था। लेखक बनने का सपना ग़रीबी के चक्कर में धुंधला पड़ने लगा था। पर ताजी मिली जानकारी के आधार पर सागर को पता चला था - कम्प्यूटर की भाषा में लिखने वाले लेखक आज-कल खूब धूम मचा रहे हैं। रातों-रात अमीर बनने की कई कहानियाँ इन दिनों इन्हीं लेखकों के इर्द-गिर्द घूमती मिलती है। सागर ने माइक्रोसॉफ्ट, याहू, गूगल की सफलता के क़िस्से भी पढ़े थे। लोगों की बातें सुनी थी, सागर ने - आने-वाला सवेरा कम्प्यूटर की दुनिया में ही होगा।
सागर ने जीवन का पहला दिवास्वप्न संजोया - कम्प्यूटर अभियंता बनने का। उसे ज्योतिष वाली बात भी याद आयी, उसने भी तो यही भविष्यवाणी कि थी, वो या तो बड़ा सरकारी अधिकारी बनेगा या फिर इंजीनियर। उसने सोच लिया, वह भी कम्प्यूटर की भाषा सीखेगा और कुछ ऐसा लिख डालेगा की रातों-रात आमिर बन जाए। दिवास्वप्न - खुली आँखों से देखा सपना, कल्पना के फूलों से पिरोयी खवाबों की माला, जिनके सच होने में केवल एहसास के जोरन की ज़रूरत है। सपने कभी झूठे नहीं होते, जब तक हम जाग नहीं जाते वे उतने ही सच हैं जितना ये सच है की हम सो रहे हैं। दिवास्वप्न में शरीर जाग रहा होता है, पर चेतना वर्तमान काल और स्थान के परे चली जाती है। एहसास की मात्रा मात्र ही उसके सच या झूठ का निर्धारण करती है।
दिवास्वप्न में बड़ी स्नेहिल शक्ति है, ममता के अंश से परिपूर्ण। ये ममत्व माँ और मन के सृजन की शक्ति से गतिमान रहता है। दिवास्वपन में यही ममता प्रवाहित होती है। तत्क्षण अपने वर्तमान के सारी उलझनों से कहीं दूर ले जाने में पूर्णतः सक्षम। एक स्वपन-लोक का सृजन करने में सक्षम चेतना भले इस पल वर्तमान में नहीं होती, पर उसका अस्तित्व वर्तमान में आ जाता है। वही चेतना इन पलों में तन-बदन को रोमांच से भर जाती है। खेलने में भी बच्चों को मज़ा क्यूँ आता है ? या कभी स्टेडीयम में मैच देखने में दर्शकों के आनंद का श्रोत कहाँ है ? वर्तमान से जब अस्तित्व सामंजस्य स्थापित कर ले तब आनंद का अनुभव होता है। वर्तमान में ही आनंद ने अपने पूरी सम्पदा का निवेश कर रखा है। दिवास्वप्न मानस-पटल के पर्दे पर चल रही वो मूवी है जिसके नायक हम खुद होते हैं।
मनोरंजन में योग और साधना जैसी ताक़त है। मनोरंजन का बाज़ार इस बुनियादी आध्यात्मिक ज्ञान पर ही टिका हुआ है - जब अस्तित्व वर्तमान में आ जाता है और चेतना एकाग्र हो जाती है, तब मिलती है, मुक्ति। वही मनोरंजन का साधन हमें भाता है जिसमें हमारे अस्तित्व के सबसे अधिकांश भाग को वर्तमान में लाने में सामर्थ्य हो। उदाहरण के लिए भूतिया या डरावनी कहानियाँ हमारी चेतना को वर्तमान में लाने में ज़्यादा सक्षम होती हैं, क्यूँकि ख़तरा हमारी चेतना को वर्तमान से जोड़ देता है। भले हमें देखना पसंद ना हो, इसका कारण ये भी हो सकता है की हम अपने वर्तमान का सामना करने से डरते हैं, भागने के प्रयास में लगे रहते हैं। या फिर मज़ाक़िया कहानियाँ, हमें वर्तमान में ला सकती हैं। सच्ची हंसी जो दिल से फूटी हो, बिना चेतना की अधिकतम भागीदारी के सम्भव नहीं है।
सागर का सम्भवतः पहला दिवास्वप्न, उसे रोमांचित करता है। उसकी आँखें खुली हैं, वह वर्तमान में वहीं है, पर उसकी चेतना सफ़र कर रही है, विचरण का रही है कल्पनाओं के अनजान देश में। रोमांच से भरी-पूरी, चेतना। फिर भी इस पल में उसका अस्तित्व आनंदमयी है। वही आनंद जो मीरा या चैतन्य महाप्रभु ने भोगा होगा। सागर के आनंद की मात्रा इनकी तुलना में बेशक कम रहा होगी, पर इसकी खबर उसे कहाँ है। अभी तो इस लमहें के मज़े ले रहा है, मगन है। थोड़ी देर में जब ये दिवा-नींद टूटेगी तब अस्तित्व खंडित होगा, चेतना वापस बिखर जाएगी भूत और भविष्य में। धर्म और नशा भी मन की यही दशा करता है। इसलिए दोनों का कारोबार फलता-फूलता रहता है। वर्तमान से भागती जनता को या तो धर्म या फिर नशे की शरण में तत्काल जन्नत मिलती है।
मधुशाला और मंदिर के बीच की दिवार को हरिवंशराय बच्चन ने कबकि ध्वस्त कर डाली। एक अच्छा लेखक अपने पाठक को अपना दिवास्वप्न ही तो बेचता है। साहित्य कुछ और नहीं, अनगिनत दिवास्वप्नों का बाज़ार ही तो है। कल्पनाओं की मुद्रा इसी बाज़ार में तो चलती है। सम्भोग में भी वही शक्ति है, जो साहित्य में है। तभी तो दोनों का सुख समान होने की सम्भावना बनी रहती है। साहित्य वही श्रेष्ट है जो सम्भोग-समान सुख देने में सक्षम हो, भावनाओं का सम्भोग ही तो साहित्य है। मनोरंजन के बाज़ार की नींव साहित्य पर ही तो टिकी हुई है। सिनेमा या सीरीयल किसी ना किसी कहानी का ही तो बड़े फलक पर नाट्य-रूपांतरण है।
“सागर! सागर! आओ खाना खा लो।” - माँ ने आवाज़ लगायी थी। दिवा-नींद में सागर को लगा कोई झकझोर गया। अनमनाए ढंग से, अँगड़ायी लेते हुए तो वैसे ही उठा जैसे कोई गहरी नींद से जगा हो। किचन की तरफ़ जाते-जाते सागर ने सोचा, क्यूँ ना वो अपने दिवास्वपन को लिख डाले। फिर उसे लगा अगर शरीर में हरकत होते रहेगी तो दिवा-नींद कैसे आएगी ? उसने अभी-अभी ध्यान दिया था कि बहुत देर से उसका शरीर जस-का-तस पड़ा था, हिला भी नहीं था शायद, तभी तो इतनी तगड़ी अँगड़ायी आयी होगी। शायद इसलिय विद्वान लोग भरोसे के साथ कहते हैं - सच्चा और नेक इंसान किसी भी काम में महारत हासिल कर सकता है, क्यूँकि जब कोई व्यक्ति किसी एक काम में अपने अस्तित्व और चेतना को स्वेक्षा से उनके अधिकांश भाग को शामिल कर ले तो वो उस काम में महारत हासिल कर सकता है।
ख़ैर सागर ने खाते-खाते फ़ैसला किया कि खाने के बाद वो अपने दिवास्वपन को लिखेगा। जल्दी-जल्दी उसने खाना ख़त्म किया और अपने कमरे में पहुँच दरवाज़े की कुंडी लगा कर, सागर कॉपी-कलम ले कर बैठ गया। कोरा काग़ज़ और स्याही से भरी कलम मुस्तैदी से हाथ में लिए, सागर दिवास्वपन का इंतेज़ार करने लगा। जो कुछ भी उसने अभी-अभी देखा था, पतली हवा में कहीं विलीन हो चुका था। चेतना अभी सामने पड़े कोरे-काग़ज़ सी कोरी जान पड़ती है। मन विचिलित हो रहा है। इस अवस्था में तो नींद ना आए, सपने क्या ख़ाक आते। फिर भी सागर हिम्मत बांधे इंतेज़ार में बैठा है। उसे उम्मीद है, किसी भी पल दिवास्वपन आता ही होगा। उसके आते ही वो लिख डालेगा, ताकि बाद में वो दुहरा सके। इंतेज़ार के क्षण लम्बे होते जा रहे हैं। घड़ी की सुई की आवाज़ ऐसे समय में अपने-आप ऊँची हो जाती है - टिक-टिक, टिक-टिक।
विचिलित मन को सिर्फ़ वक्त ही क़ाबू में ला सकता है। वक्त ने सागर के मन को क़ाबू करने के लिए सवाल पूछा - अच्छा बताओ! अगर कोई तुमसे पूछेगा की तुम्हारा आदर्श जीवन कैसा होगा ? तो तुम क्या कहोगे ?
दार्शनिक मन ने फ़ौरन उत्तर दिया - वैसा जीवन जब मैं अपनी पूरी निष्ठा से हरपल ये कह सकूँ कि ये जो पल गुजर रहा है यही मेरा आदर्श वर्तमान है। वैसे जीवन को ही मैं अपना आदर्श जीवन मानूँगा। मुक्ति की भी कमोबेश ऐसी ही परिभाषा हर धर्म में मिलती है। बुद्ध ने सिखाया हो या मुहम्मद ने, सिखाया तो यही है ना - वर्तमान में ही जीवन का वास है। जब इंसान वर्तमान के साथ सहृदयी समन्वय स्थापित कर लेता है, तभी मिलती है, इस जनम-मरण के चक्कर से मुक्ति।
इतनी बड़ी-बड़ी बातें सुन कर सागर का मन फिर से विचिलित हो गया। ज्ञान के इस तूफ़ान को थमने का हुकुम देता है। फिर सोचता है - वो अभी मुक्त कहाँ है ? अभी तो चेतना भविष्य की पतंग के डोर सी बंधी भाग रही है। कभी आगे, कभी पीछे। कभी दाएँ, कभी बाएँ। अस्तित्व तो अभी बस इसी जद्दो-जहद में उलझा हुआ कि कहीं वो डोर टूट ना जाए। अभी तो वो वृंदावन में रहना चाहता है। इस चक्कर में ना उसके भविष्य का कोई ठिकाना है, ना भूत का और वर्तमान का तो कहीं अता-पता ही नहीं है।
सागर को लगा ये तो बड़ी जटिल समस्या है - आदर्श जीवन की परिभाषा क्या होगी ? जब एक आदर्श पर चेतना को केंद्रित करने में सफलता मिलने का आभास सा होने लगता है, तभी दूर क्षितिज पर एक दूसरे आदर्श के सूरज का उदय होने लगता है। एक नए सुनहरे सवेरे की आस लगाए मन एक नए आदर्श को गढ़ने में लग जाता है। जीवन ऐसे ही स्वप्निल सवेरे के दर्शन का तो अभिलाषी है। जैसे फ़िलहाल सागर अपने आदर्श जीवन की कल्पना में संलगन है।
सागर ने सोचा - उसके आदर्श जीवन में किसी भी प्रकार की कमी हो, ऐसी कल्पना भी क्यूँ करेगा भला वो ? तो उस आदर्श जीवन में उसके पास दुनिया का हर सुख भोग पाने का सामर्थ्य तो होना ही चाहिए, हर प्रकार से - शारीरिक, मानसिक या आर्थिक सभी स्तरों पर। इस सामर्थ्य की प्राप्ति के बाद उसे लगा कि वह किसी ऐसी जगह जहां प्रकृति अपना सौंदर्य निछावर कर रही हो, वैसी किसी जगह पर एक छोटी सी कुटिया बनाएगा। कुटिया के आस-पास छोटे-छोटे खेत और बाग लगे होने चाहिए। हर प्रकार की सुख-सुविधा से युक्त उसका छोटा सा आशियाना हो, जहां उसका छोटा सा परिवार रहता हो। उसकी माँ, उसके पापा, फिर उसकी शादी होगी, तब उसके बच्चे भी इसी कुटिया में सुख से रहेंगे। वहाँ कोई अशांति ऐसी ना हो जो मनचाही ना हो। वहाँ रहते हुए सागर खूब पढ़ेगा, और कुछ लिख कर साहित्य और समाज में अपना योगदान देगा।
सहसा वक्त ने एक सवाल पूछा - ऐसे रहते-रहते बोर नहीं हो जाओगे ?
सागर को इस सवाल पर हंसी आयी। उसके बाल मन के आदर्श को उसके युवा मन ने मानने से साफ़ इनकार कर दिया। उसके युवा मन में अनजानी दुनिया के रहस्य को सुलझाने का रोमांच भर आया। आदर्श जीवन में अगर कोई रोमांच नहीं बचा तो क्या ख़ाक आदर्श होगा ? युवा मन ने उसी सवाल को फिर दोहराया जो वक्त अभी-अभी पूछ गया था - कहाँ गयी तुम्हारी जिज्ञासा ? कहाँ गयी वो रवानगी का जज़्बा ? ऐसी शांत कुटिया की शांति से ही दम घुटने लगेगा। परिवार के बाक़ी लोग भी उकता कर अपने-अपने अस्तित्व को पहचान देने के प्रयास में निकल पड़ेंगे। शायद माँ-पिता रह जाएँ, हो सकता है बीवी भी रुक जाए, पर बच्चे तो घोंसला छोड़ कर उड़ना चाहेंगे।
उन्हें रोकने वाला मैं कौन होता हूँ ? मैं भी तो उड़ना चाहता हूँ ?
दसवीं के बाद तो उड़ने का प्लान बना ही रखा है। दुनिया को अपनी आखों से देखने का सफ़र, मज़ेदार तो होगा ही। आदर्श बचपन से चला, युवा अवस्था तक पहुँचा, उड़ान भरता है। रोमांच की इस दौड़ में, नयी ऊँचाइयों की तलाश में, नए अनुभव पाने की लालसा में भटकना ही आदर्श जीवन मान बैठता है, युवा मन। फिर थोड़ी थकान होने लगती है। शरीर अब मन की आज्ञा की अवहेलना करने लगता है।
अब आदर्श वयस्क होने लगा है। उड़ान भरने के बाद कहीं तो लौट जाना चाहता है। अपना एक नया बसेरा बनाने की इच्छा अब प्रबल होने लगी है। इस वक्त उसके पास वापस उस शांत कुटिया में लौट जाने का एक मौक़ा भी मिलता है। अपनी नयी पायी ज़िम्मेदारियों को दर-किनार कर वापस लौट जाने का। बुज़दिल ही होंगे जो अब लौट जाएँगे। अपने आदर्श जीवन की नयी कल्पना के निर्माण का दौर है। सृजन से कैसे भाग जाएगा ये प्रौढ़ मन। यहाँ अपनी नयी दुनिया बसाएगा। जीवन-साथी भी अब यहीं मिलेगी और बच्चे भी। वो बाल मन का आदर्श घर पीछे छूटने लगता है। वो बाल मन की जीवन-संगिनी बिन ब्याहे ही विधवा हो गई।
समय के साथ प्रौढ़ मन धीरे-धीरे वृध होने लगता है। जिस बसेरे में अब वो रहता है, छोटा लगने लगा है। प्रकृति के बीच बसा उसका आशियाना अब याद आने लगा है। उसकी याद भी अब खलने लगी है। एक नाज़ुक सा मौक़ा और मिलता है वापस लौट जाने का। पर अब लौटने में अपने युवा मन के द्वारा बसाए आदर्श परिवार के हर सदस्य से सहर्ष सहमति चाहिए होगी। बाल मन का परिवार तो कब का बिखर चुका है। इस नए परिवार के लोगों के नए नाते-रिश्ते इस नयी जगह से जुड़ गए हैं। सबके हिस्से नये स्थान और काल से जुड़ी जिम्मेदारियाँ हैं। इन सबको एक झटके से छोड़ कर कैसे वापस चले जाएँ। अभी कुछ आख़िरी पीढ़ी का सम्पर्क शेष है। छुट्टियों में जाते हैं वहाँ, दादा-दादी से मिलने। हरदम के लिए तो नहीं लौट सकते, अब ये सम्भव नहीं है।
वापस ना लौट पाने की असमर्थता से प्रौढ़ मन विचिलित हो उठता है। परेशान हो जाता है। अस्तित्वगत संकट से जूझने लगता है। भँवर में फँस जाता है। अब उसके पास दो ही रास्ते हैं - या तो सब छोड़-छाड़ कर अकेले वापस लौट जाने का, या फिर इस नए आदर्श जीवन को ही आदर्श रूप में स्वीकार कर लेना। भलाई इसी में है की अपने बसाए बसेरे को ही आदर्श मान ले, अपने सारे हथियार डाल दे। शरीर में अब संघर्ष की शक्ति चूकने लगी है। ऊर्जा में भरी कमी आ गयी है। खुद के बनाए आदर्श जीवन की रौशनी अब बुझने लगी है। अपने बनाए आदर्श ही बिखरने लगते हैं।
सागर सहसा लिखना बंद कर देता है। ये क्या बकवास लिख रहा है वो। उसका दिवास्वपन अपने अंत की तरफ़ बढ़ चला है। उसका दिवास्वपन दिवा-कुस्वप्न में बदलने लगा था। उसने खुद को चिकोटी काटी। उसके आदर्श जीवन की कल्पना ने तो जैसे आत्म-हत्या कर ली थी। उसकी कलम रुक गई। उसे लगा उसने जहां से शुरू किया वहीं लौटने वाला है। जीवन का चक्र भी तो ऐसा ही होता है। चेतना जिज्ञासा से उलझी इच्छा का दमन थामे चलती रहती है। जब एक सफ़र का अंत आता है, वहीं से दूसरे सफ़र की इच्छा शुरू होती है। जीवन-मरण का चक्कर भी तो ऐसा ही होता होगा। पुनर्जनम और है ही क्या ?
तभी उसके दार्शनिक मन ने मशविरा दिया - इन सब चक्करों से अगर मुक्ति पानी है तो आध्यतम का दरवाज़ा खट-खटाओ। देखो कैसे बुद्ध और महावीर ने जीवन को जीत कर मुक्ति पा ली। सागर के मन में एक नयी इच्छा जगती है - बुद्ध या महावीर सा बन पाने की। सागर को लगा फिर तो मुक्ति मिल ही जाएगी। वह भी बुद्ध-महावीर जैसे ज्ञान बाँटते-बाँटते अपना आदर्श जीवन गुजरेगा।
उसके व्यावहारिक मन ने गुहार लगायी - चलो योग और तंत्र-मंत्र की विद्या सीखते हैं। इसी रास्ते तो बुद्ध को मुक्ति मिली थी। सागर को लगा जब भी उसे लगने लगता है की अब वो एक शांत आदर्श जीवन की कल्पना के क़रीब पहुँच रहा है, उसकी कल्पना एक कदम और आगे बढ़ जाती है। उसने फ़ैसला कर लिया वो अपने मन को क़ाबू करने के लिए ध्यान लगाएगा। सागर पालथी मार कर पद्मासन में बैठ जाता है। जैसे ही सागर को लगने लगता है कि उसका मन उसके क़ाबू में आने लगा है। तभी उसके पेट में गुड़-गुड़ाहट होती है। अब उसे लगता है, उसे भूख लगने लगी है। मन हुकुम चलता है - चलो! पहले खाना खा लो, फिर मुझे क़ाबू करने में लग जाना। शरीर को इसके बीच में क्यूँ घसिड़ते हो।
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। सागर उठता है, रसोईघर जाता है, कुछ खाता है। फिर लौट कर अपने कमरे में आता है। पेट भर गया है, तो मन ने थोड़ा आराम करने की फ़रमाइश कर डाली। मरता क्या ना करता, सो सागर लेट गया। लेट जाने के थोड़ी देर बाद ही उसे नींद आ गयी। सोए हुए सागर के सपने में उसका दिवास्वपन मानस-पटल पर फिर से चलने लगता है। उसी आदर्श जीवन के सवाल का जवाब ढूँढने में मशगूल होने लगता है उसका अवचेतन मन।
सागर ने सपने में एक नया आदर्श जीवन परिभाषित किया, पर इस बार वो नींद में था, सो लिख नहीं पाया। जब उसकी नींद खुली तो उसे लगा आदर्श जीवन का सवाल अभी भी उतना ही ज्वलंत है, जितना उसके दिवास्वपन के पहले था। भ्रमित सा उठ कर आस-पास देखता है। कुछ भी तो नहीं बदला, सब कुछ वैसा ही है जैसा था। एहसास कर लेने से सपने हक़ीक़त नहीं हो जाते, वो एहसास भी क्षणभंगुर ही होते हैं। पर सागर को लगा सपने जीवन को दिशा देते हैं। अपनी दशा के परिवर्तन के लिए गति प्रदान करते हैं। ऐसे ही छोटे-छोटे सपने पूरा करना ही तो जीवन का लक्ष्य है।
नॉन-वेज सच
सागर के सामने कुछ पन्ने बिखरे पड़े थे, जिसमें अपने दिवास्वपन को उसने दर्ज किया था। उसने अपने आदर्श जीवन को दुहराया। बाल-मन के आदर्श का विरोद्ध करते युवा-मन का आदर्श और आख़िर में चिंतित वृद्ध-मन पर उसे दया भी आयी और ग़ुस्सा भी। अपने ही आदर्शों को खंडित करता उसका मन विचलित हो उठता है। फिर उसके तार्किक मन ने समझाया - ‘बदलाव’ को ही आदर्श मान लेने में भलाई है। परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। वो अभी से सारे आदर्श को परिभाषित नहीं कर सकता। स्थान और काल के आधार पर नए आदर्श बनते-बिगड़ते रहते हैं। उसे भी अपने आदर्श को गतिमान बनाए रखना है। पल-पल बदलती दुनिया में निश्चित हो पाना सम्भव नहीं है। उसे लगा निश्चित हो जाने पर नदी से बहते जीवन की अविरलता नष्ट हो जाती है।
सागर ने गौर किया उसका अपना मन उसके क़ाबू में तो नहीं ही है, पर उससे भी आश्चर्य की बात यह है की वह अपने मन को पहचानता तक नहीं है। बाल मन, युवा मन, वृध मन, दार्शनिक मन, व्यावहारिक मन, तार्किक मन और ना जाने उसका मन कितने भेष बदलता रहता है। मन के इन विभिन्न रूपों को देख वो इस बात का निर्धारण ही नहीं कर पा रहा ही कि आख़िर उसका असली मन कौन-सा है ? एक और बात पर उसका ध्यान गया - जब भी कोई चुनौती आती है, उसका मन भागने की फ़िराक़ में अपना रंग-रूप बड़ी कुशलता से बदलता रहता है। अभी भी यही हो रहा है। सामने दसवीं की चुनौती है, और मन वृद्धाश्रम तक का भ्रमण कर आया।
उसने पढ़ाई शुरू की। पर मन कहाँ मानता है, पहला पन्ना भी ढंग ख़त्म नहीं हुआ कि उसका मन हैरी पॉटर की कहानी दुहराने लगा। सोचने लगा - कितनी आसानी से उसने तीन ही दिनों में हैरी पॉटर के लगभग दो हज़ार पन्ने पढ़ डाले। कोई भी उसे पूछेगा तो हैरी की कहानी वो सुना भी सकता है। चलचित्र की भाँति वो कहानियाँ उसके मन पर छाप छोड़ गयी थी। पर ये कोर्स की किताबों का एक पन्ना पढ़ने में लगता है, सदियाँ गुजर जाएँगी। फिर भी ये समझ नहीं आने वाली, ना ही याद रहने वाली हैं। उसे लगा कमजोरी उसमें नहीं है, इन कोर्स की किताबों में ही है। अगर उसमें कोई कमी होती तो वो कुछ भी पढ़ कर समझ नहीं पता, पर हैरी की कहानी ना सिर्फ़ उसके समझ में आयी, उसे उसके लगभग क़िस्से याद भी हैं।
बेचैन मन ने अपनी खवाईश बतायी - काश! परीक्षा में सिर्फ़ हैरी पर सवाल आते। उन सवालों का जवाब वो बड़े मन से देता, तब उसे नम्बर कितने अच्छे आते। पूरी कक्षा में अव्वल आता। फिर उसे शंका हुई, तब तो सभी बच्चों को यही सवाल आएँगे। ज़रूरी नहीं की उसके ही जवाब सबसे अच्छे होंगे। कुछ के जवाब उससे अच्छे तो ज़रूर होंगे, शायद तब भी वो टॉप नहीं कर पाता। उसे अफ़सोस हुआ। पर अगर सवाल भी उसके मन मुताबिक़ होते, जवाब भी और प्राप्तांक भी, तब वो परीक्षा कहाँ रहती ? वो तो स्वेच्छा हो जाती। अपने मन पर क़ाबू पा लेना अगर इतना आसान ही होता तो सब संत ही पैदा होते और तब दुनिया कितनी नियंत्रित और सुंदर हो जाती।
सागर ने सम्भावनाओं का गणित लगाया - कक्षा में लगभग पचास बच्चे हैं, ये कैसे सम्भव हो सकता है की सारे बच्चों को बराबर नम्बर आएँ और सब टॉप कर जाएँ। किसी चमत्कार से ही ऐसा सम्भव हो पाएगा। पर अगर ऐसा हो भी जाए तो क्या इस दशा को आदर्श माना जा सकता है ? फिर दसवीं की परीक्षा में तो देश भर के बच्चे बैठते हैं। सागर का मन चंचल है, अपने वर्तमान से भाग कर सपनों या बहानों की किसी गुफा में छिप जाना उसकी फिदरत है। पर वर्तमान ने कब पीछा छोड़ा है, कितनी भी कोशिश कर लो कुत्ते की दुम सा टेढ़ा पीछे लगा ही रहता है।
सागर ने खिंच-तान कर मन और चेतना को किसी तरह किताबों में वापस लगाया। समझाया - बेटा! पढ़ ले, एक-आध महीने का कष्ट है, फिर तो ज़िंदगी हसीन होगी। आख़िर इस आख़िरी परीक्षा के बाद स्कूल से मुक्ति जो मिलने वाली है। उत्साह और निराशा से जूझते सागर ने किसी तरह परीक्षा दे ही डाली। पहली परीक्षा अंग्रेज़ी की थी, सागर को लगा उसने अच्छा लिखा है। फिर आयी हिंदी, उसमें तो सागर निश्चिंत था। हिंदी तो उसके खून में बसी है। उसके बाद गणित था, सहमा सा जो समझ आया, वो लिख आया। विज्ञान के प्रश्नों से जूझते, आख़िर परीक्षा का दौर समाप्त हुआ। हर परीक्षा से निकल कर उसके सहपाठी प्रश्नों पर चर्चा करते थे, पर सागर बड़ी तेज़ी में वहाँ से निकल जाता था। जो लिखना था, वो लिख आया है, अब बहस कर क्या फ़ायदा ?
परीक्षा के बाद स्कूल की तरफ़ से विदाई-समारोह का आयोजन हुआ। सारे बच्चे अपने परिणाम के इंतेज़ार में अधीर हुए, आख़िरी बार एक साथ विद्यालय के प्रांगण में जमा हुए। सागर भी पहुँचा। बढ़िया खाने की व्यवस्था थी, नाच-गाने के साथ हंसी मज़ाक़ चल रहा था। एक सहपाठी ने सारे शिक्षकों की नक़ल उतरी, सब ने खूब ठहाके लगाए। महफ़िल में एक सवाल बड़ी तेज़ी में घूम रहा था - “आगे का क्या प्लान है ?” छात्र आपस में चर्चा कर रहे थे। अपने शिक्षकों से भी सलाह-मशविरा कर रहे थे। सागर चुप था। कोई जब यह उससे सवाल करता, वो झेंप जाता या बोल देता - “पता नहीं।” पर इससे सवाल ख़त्म नहीं हो जाता। उसके अंदर बेचैनी बढ़ने लगी थी।
उसे लगा अंकित और बिट्टू से यह सवाल किया जाए, उसे भरोशा था, उनका भी जवाब उसके जैसा ही होगा। पर ये क्या! बिट्टू ने बताया, उसके भैया दिल्ली में रहते हैं, कुछ दिनों में वह भी दिल्ली जाने वाला है। बस रिज़ल्ट आ जाए। अंकित ने बताया वो बोकारो जाने कि सोच रहा है। ये सब सुन कर सागर हैरान रह गया। उसे भी उड़ान भरनी है, पर गंतव्य के बारे में तो उसने कभी सोचा ही नहीं।
दोपहर होने लगी। घोषणा हुई - “सारे छात्रों से निवेदन है, खाने के लिए हॉल में पहुँचे।” खाने में बहुत कुछ था, वेज भी, नॉन वेज भी। सागर के घर में नॉन वेज नहीं खाते। माँ सख़्त शाकाहारी थी। माँ ने जिस गुरु से दीक्षा ली थी, उसमें मांसाहार पर सख़्त पाबंदी थी। दादी-घर में सब खाते थे। पिताजी ने शादी के बाद मांस-मछली खाना छोड़ दिया था। माँ बताती है, जब पहली बार वो दादी-घर आयी थी और नॉन वेज बना था, उन्होंने उस दिन के बाद वहाँ खाना ही छोड़ दिया। दो-तीन दिनों तक कुछ नहीं खाया। जब दादी को पता चला उन्होंने नए बर्तन मँगवाए, तब जा कर माँ ने अपना उपवास तोड़ा था। उसके बाद से जब भी वे दादी-घर पहुँचते, चूल्हे पर मांस नहीं चढ़ता।
छठी कक्षा में सागर ने जब पहली बार अपने जीव-विज्ञान की किताब में पढ़ा था कि अंडे और मांस-मछली में प्रोटीन पाया जाता है, और इसके सेवन से ताक़त मिलती है, उसने माँ को नॉन वेज खाने के फ़ायदे गिनाए थे। माँ ने समझाया था, किसी को मार कर खाने से पाप लगता है। अगले चैप्टर में सागर को पता चला पेड़-पौधों में भी जीवन होता है। उसने तुरंत माँ से पूछा - जान तो पौधों में भी होता है, तो उसे मार कर खाने से पाप नहीं लगता क्या ? माँ के तर्क कभी ख़त्म हुए हैं, उन्होंने समझाया - “हम पौधों को मार कर नहीं खाते, उनके फल-फूल खाते हैं। जैसे जब तुम आम खाते हो, तब पेड़ थोड़े ही काट देते हो। जो फल पक कर गिरते हैं, वही खाते हो ना। किसी की जान नहीं जाती। और खाने के बाद जो गुठली बच जाती है, उसे ज़मीन में सिंच दो तो एक और पेड़ उग आता है। तो फल-फूल खाने से जान जाती नहीं, बल्कि नया जीवन मिलता है - हमें भी और पौधों को भी।”
इसके पहले सागर ने एक बार अंडा खाया था, पर माँ-बाप को कभी खबर नहीं लगने दी थी। माँ के बताए तर्कों पर ही उसने तय किया था - अंडा तो फल जैसा ही होता है। पर फिर उसे लगा, अंडा खा जाने के बाद नया जीवन तो नष्ट हो गया। बड़ी पेचीदा समस्या थी। क्या खाए, क्या ना खाए। आज पहली बार नॉन वेज खाने का मौक़ा मिला था। यहाँ उसे रोकने-टोकने वाला कोई नहीं था। उसके कदम हिचके, नॉन वेज के काउंटर तक पहुँच कर दो बार लौट चुका था। इतने में बिट्टू मिला, उसने बताया - “चिकन मस्त बना है।” सागर ने उसकी थाली से ले कर चखा। अच्छा लगा। पर मन घबरा गया, माँ को पता चला तो क्या होगा ? ग्लानि हुई। उसे लगा उल्टी हो जाएगी। अपनी थाली रख, उसने साबुन से रगड़-रगड़ कर हाथ धोए। खूब कुल्ला किया। फिर उदास-सा हॉल के कोने में खड़ा हो गया।
थोड़ी देर में अंकित पहुँचा, पूछा - “खाना हो गया ?” पहली और आख़िरी बार सागर ने अंकित के साथ ही अंडे खाए थे। सागर ने अपनी दुविधा बतायी। अंकित के तर्क ने उसकी दुविधा दूर कर दी, उसने कहा - “अब तो तुमने खा लिया, जो पाप होना था हो गया, अब क्या बचा। देखो मैं तो ब्राह्मण हूँ, मेरे घर में तो सब खाते हैं। जब खा ही लिया है, तो मज़े लो। शेर भी कहीं घास चरते हैं!” चिकन की टंगड़ी से मांस खिंचता अंकित दूसरी लेने चल पड़ा। सागर को लगा अंकित सही तो बोल रहा है। उसने दूसरी थाली उठायी और अंकित के साथ चल पड़ा। अपनी थाली में चिकन लिया, मांस का एक निवाला मुँह में डाला। इस बार कोई स्वाद नहीं आया। जी घबरा रहा था। उसने वापस थाली रख कर हाथ-मुँह धोने चला गया।
खाने के बाद ग्रूप-फ़ोटो लिए गए। फिर शाम ढलने लगी, सबने दुआ-सलाम किया और घर की तरफ़ निकल पड़े। मांस खाने का पाप लगा होगा, इस चिंता में सागर घबराया हुआ है। सहमे कदमों से घर की तरफ़ चल पड़ा। रास्ते में मुख-शुद्धि के लिए दो-चार चूइंग-गुम ख़रीद कर खाए, ताकि उसकी माँ को मांस की बदबू ना लग जाए। घर पहुँचा तो माँ ने पूछा - “कार्यक्रम कैसा रहा ?”
“अच्छा था।” - बुझे स्वर में सागर ने बताया।
माँ ने पूछा - “क्या हुआ ? परेशान से लग रहे हो।”
सागर चुप रहा। उसे डर लग रहा था। पाप वाली बात है। प्रायश्चित्त कैसे करे ? उसे समझ नहीं आ रहा था। माँ को बताए या नहीं। बड़ी कश्मकश है। उसने आख़िर फ़ैसला किया, प्रायश्चित्त का पहला कदम तो अपनी गलती मान लेने में ही है। हिम्मत कर उसने मांस खाने वाली बात माँ को बता दिया। माँ को सदमा लगा, उनके चेहरे पर साफ़ दिख रहा था। पर उन्होंने कुछ नहीं बोला। चुप-चाप पूजा वाले कमरे में चली गयी। सागर को बुरा लगा। उसे लगा माँ उसके पाप का प्रायश्चित्त करने गयी है। कमरे के बाहर मुजरिम सा सागर खड़ा रहा। माँ बाहर निकली, उसे देखा कर भी अनदेखा कर चली गयी। सागर के आँखों में पश्चाताप के आंसू छलक गए। अफ़सोस तो था ही, माँ की बेरुख़ी से दुःख हुआ। पर पाप तो उसने किया है, माँ को सजा क्यूँ मिले। उसने माँ से माफ़ी माँगी। माँ ने कुछ नहीं कहा।
अगले एक हफ़्ते तक माँ ने उससे कोई बात नहीं की। उखड़ी-उखड़ी सी रहती थी। सागर की समझ में नहीं आता, अब वो क्या करे ? कैसे मनाए माँ को। माँ ने उसे सिखाया था, अपने किए कर्मों का फल इंसान को भुगतना ही पड़ता है। लगता है, इस पाप का परिणाम उसे माँ की बेरुख़ी से चुकाना पड़ेगा। उसे माँ के सामने जाने से भी डर लगने लगा। नज़रें छुपाए घर में रहना मुश्किल होने लगा। बाहर जाने की हिम्मत भी नहीं होती।
अपनी दशा पर उसे ग़ुस्सा आने लगा। उसे लगा सच बोल देना ही काफ़ी नहीं है। सच सुनने वाले में भी सच को सहने की क्षमता होनी चाहिए और सही रास्ता दिखाने की चाहत भी। गलती तो इंसान से ही होती है। अगर उसने माँ को सच नहीं बताया होता, तो सब ठीक रहता। सच बता कर ही गलती हो गयी। धीरे-धीरे उसका पश्चाताप, उसके ग़ुस्से का कारण बनने लगा। उसे माँ पर भी ग़ुस्सा आने लगा। माँ के आदर्शों के बोझ तले, उसका दम घुटने लगा। सुबह का भुला अगर शाम को घर आए, और घर पर उसे जगह ही ना मिले तो वो कहाँ जाए ?
जगह ना मिल पाने पर ही तो विद्रोह होता है। लोग बाग़ी बन जाते हैं। एक बार घर छूट जाए तो फिर डर कैसा ? दुनिया का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है - इंसान अपने बच्चों से भी प्यार नहीं करता। अगर करता तो ना कोई सैनिक बनता, ना ही कोई आतंकवादी। सागर को पिछले कुछ दिनों से लगने लगा था, माँ का प्यार उसके लिए थोड़ा कम हो गया है। गलती तो उसी की थी, पर सजा दोनों झेल रहे हैं। ग़ुस्सा जाने से बात ख़त्म हो जाती, पर खामोशी से मामला जस-का-तस रह जाता है। खामोशी से रिश्तों में सड़ांध आने लगती है। सच के प्रति लोगों की प्रतिक्रिया भी सच्ची होनी चाहिए। बुरा लगा तो बुरा ही सही, अभिव्यक्ति तो होनी चाहिए। खामोशी भी अभिव्यक्ति का एक रास्ता है। पर इसमें एक रहस्य है। रहस्य क़िस्से-कहानियों में ही अच्छे लगते हैं। निजी जीवन में रहस्य सिर्फ़ एक समस्या बन कर रह जाती है।
पिछले हफ़्ते से सागर ने माँ की ज़ुबान से अपना नाम तक नहीं सुना। उसके कान तरस गए। पर कोई आवाज़ नहीं आयी। माँ ज़िद्दी है, आदर्शवादी भी। धार्मिक लोग अक्सर निश्चित होते हैं - क्या करना है, क्या नहीं, उन्हें पता रहता है। इसलिए शायद आतंकवाद और धर्म का पुराना रिश्ता रहा है। निश्चित हो जाने से सम्भावनाएँ ख़त्म हो जाती हैं। सम्भावनाओं के ख़त्म होने के बाद ही इंसान मरने-मारने पर उतारू हो जाता है।
सही और ग़लत का पैमाना छलकता रहना चाहिए। नैतिकता में निहित सपेक्षता का सम्मान करना चाहिए। एक ही काम परिस्थिति के अनुसार सही या ग़लत हो सकता है। दुनिया का हर धर्म ‘हिंसा’ को नैतिक स्तर पर ग़लत मानता है, पर हर धर्म में हिंसात्मक वीरता के क़िस्से विद्यमान हैं। अब वो महाभारत का युद्ध हो या राम का संघर्ष, क्रूसयुद्ध की दास्तान हो या जिहाद के क़िस्से। सिर्फ़ बौद्ध या जैन धर्म में हिंसात्मक कहानियों का आभाव मिलता है। वीरता के इन क़िस्सों पर अभिमान और इनकी नैतिक निश्चित्ता ही आतंकवाद के रूप में हमारे सामने आती रहती है। धर्म पर शक करना भी पाप माना जाता है।
जहां तक मांसाहार की बात है, कई धर्मों में प्रसाद का रूप भी लेती है। बलि की प्रथा लगभग हर धर्म में मौजूद है। काल और स्थान के अनुसार नैतिकता अपना रूप बदल लेती है। शराब को इस्लाम में हराम माना गया, वही वाइन चर्चों में प्रसाद है। ये सही और ग़लत का निर्धारण कैसे हुआ होगा ? मरुस्थल में शराब शरीर को नुक़सान करती, इसलिए इस्लाम ने ग़लत मान लिया। वही शराब ठंडे प्रदेशों में शरीर को गर्म रखने में सहायक होती, तो वहाँ के लोगों ने इसे प्रसाद मान लिया। दोनों ही इलाक़ों में खेती की सम्भावना सीमित थी, इसलिए दोनों ही धर्मों ने मांसाहार को स्वीकृति दे डाली। गंगा की उपजाऊ भूमि पर मांसाहार ने शौक़िया रूप लिया तो हिंदू धर्म में कुछ ने इसे सही माना, कुछ ने ग़लत। सत्य, ईश्वर और रीति-रिवाज को सबने अपनी-अपनी सुविधा के हिसाब से स्थापित कर लिया।
सागर को लगता है, धर्म बकवास है। असली धर्म वही है जो ‘नहीं’ है। नेति-नेति। क्या ग़लत है, क्या सही इसका फ़ैसला धार्मिक नहीं हो सकता। हर धर्म के आदर्श उसके आदर्श की तरह वक्त-वक्त पर बदलते रहते हैं। आदर्श भी परिस्थिति अनुसार खुद अपना खण्डन भी करते रहते हैं। ऐसे आदर्श को आदर्श कैसे मान ले ? सागर अपनी माँ के अनुसार ग़लत है, पर जीव-विज्ञान के पाठ के अनुसार सही। उसने जो खाया उसे खाने की शिक्षा तो उसी स्कूल की किताबों में मिली जिसमें लड़-झगड़ कर माँ ने उसका दाख़िला करवाया था। उसने मांस का पहला निवाला भी उसी स्कूल में खाया था। सागर ने इस घटना से एक बात समझी - सही या ग़लत मन का भ्रम मात्र है।
पर माँ को अपनी व्यथा कैसे समझाए, माँ तो बात ही नहीं करती। हर मर्ज़ की दवा या तो मर्ज़ी है या फिर समय। सागर को लगा, जो दशा है वक्त ही इस ज़ख़्म को भर पाएगा। भगवान भरोशे समस्या को छोड़ देने से हल मिलता है, समय को ही भगवान मान सागर ने राहत की साँस ली। जो होगा देखा जाएगा। आज नहीं तो कल माँ मान ही जाएगी। ना भी माने तो एक समय के बाद उसके साथ सामान्य व्यवहार करने ही लगेगी। आख़िर वो इकलौता बच्चा है, दो-चार होते तो भले माँ उसे भुला देती। खुद को आश्वासन देना भी एक कला है।
घोंसला या पिंजरा
इंतेज़ार के लम्हों में वक्त की रफ़्तार धीमी हो जाती है। सागर को दसवीं के परिणाम का इंतेज़ार है। जो अब किसी भी दिन आ सकते हैं। डर भी है, बेसब्री भी। विदाई समारोह के बाद से सागर ने आगे की पढ़ाई के लिए विकल्प तलाशने शुरू कर दिए हैं। उसके सारे दोस्तों ने लगभग तय कर लिया है, वे कहाँ जाने वाले हैं। सागर का अपना कोई ठिकाना नहीं लग पा रहा है। पिताजी से पूछा तो उन्होंने कहा यहीं कहीं दाख़िला करवा लो। बाहर कहाँ भटकने जाओगे। माँ भी अपनी एकलौती जान को दूर भेजने से डरती है, सो पापा की हाँ में हाँ मिलती रहती है। पर सागर को तो उड़ान भरनी है, दुनिया अपनी आखों से देखनी है। छुट्टियों में पापा-मम्मी के साथ कई शहरों को घूमने का मौक़ा मिला था। पर अब वो अकेला सफ़र करना चाहता है। अपना घोंसला छोड़, दोस्तों के साथ नए आसमान छूना चाहता है। पर घोंसला छोड़ने का अंदर एक डर भी है। दूसरी तरफ़ साहस उसे ललकार भी रही है।
वसंत का मौसम अपनी अंतिम साँसें ले रहा है। गर्मी बढ़ने लगी है। सागर को वसंत का मौसम बहुत पसंद है। उसका जन्म भी इसी मौसम में हुआ था। गंगा के मैदानी इलाक़ों में इस मौसम में आम और लीची में मंजर आते हैं। चारों तरफ़ ये मंजर अपनी सुगंध फैला देते हैं। मन और चेतना पुलकित हो उठती है। शरीर में उमंग और साँसों में सुगंध, आत्मा तक को रोमांचित कर देती है। इस साल सागर का रोमांच अपनी नयी ऊँचाइयों पर है। एक नया सुनहरा सपना बुनने का मौक़ा है।
एक दिन सवेरे इंतेज़ार का अंत हुआ। आज के अख़बार के पहले पन्ने पर खबर आयी है - आईसीएसई बोर्ड का परिणाम हुआ घोषित, ९५ प्रतिशत छात्र हुए उत्तीर्ण। मतलब ५ प्रतिशत बच्चे फेल भी हुए थे। कहीं सागर उनमें से एक तो नहीं था ? पापा अख़बार लिए सागर को उठाने आए। खबर सुनते ही सागर की नींद नौ-दो-ग्यारह हो गयी। फ़ौरन उठा और इंटर्नेट कैफ़े की तरफ़ रवाना हुआ। उसके पहुँचने तक कैफ़े में छात्रों की भिड़ लग चुकी थी, जहां दस-दस रुपए में इन छात्रों का भविष्य बताया जा रहा था। उत्सुकता अपने चरम पर थी। जिन्हें अपना रिज़ल्ट पता चलता, उनके चेहरे ही बता देते उनका क्या हुआ होगा। जो बाहर क़तार में लगे थे, उन सब के भाव लगभग एक जैसे थे।
आधे-पौने घंटे के इंतेज़ार के बाद सागर का नम्बर आया। अपना रोल-नम्बर डाला, दो-तीन मिनट लगे रिज़ल्ट सामने आने में। सागर को ८२ प्रतिशत नम्बर आए थे। कम्प्यूटर और हिंदी में ९९ नम्बर, अंग्रेज़ी में थोड़ा कम था और गणित में ८० नम्बर, साइयन्स में ठीक-ठाक नम्बर थे। सागर को समझ नहीं आ रहा था, ये नम्बर अच्छे हैं या बुरे ? हिंदी में ९९ नम्बर कैसे आ सकते हैं ? ऐसा क्या लिख दिया उसने। प्रेमचंद भी अगर परीक्षा दे रहे होते तब भी उनके इतने नम्बर ना आते। कम्प्यूटर में फिर भी आ सकते हैं। ख़ैर सागर को लगा उसके नम्बर तो कमाल के आए हैं। इतने नम्बर तो उसने अपने रिपोर्ट-कार्ड में कभी देखे भी नहीं थे।
सागर घर पहुँचा। पापा-मम्मी बेसब्री से उसका इंतेज़ार कर रहे थे। उसने अपना नम्बर बताया। दोनों चहक उठे। उनकी उम्मीद से कहीं ज़्यादा नम्बर आ गए थे। सागर ने बिट्टू तो फ़ोन लगाया। उसने बताया, उसे ९४ प्रतिशत आए हैं। सागर आश्चर्यचकित रह गया। फिर उसने अंकित को पूछा, उसे भी ८८ प्रतिशत अंक आए थे। अपने दोनों करीबी दोस्तों से काफ़ी कम नम्बर थे। स्कूल में बाक़ी के नम्बर भी उससे अच्छे थे, कुछ को छोड़ कर। जिस नम्बर पर सागर अभी तक इतरा रहा था, बाक़ी के नम्बर जानने के बाद उन्ही अंकों पर उसे अफ़सोस होने लगा। पापा और मम्मी की चहक भी घटने लगी। सुबह तक जो ख़ुशी का महौल घर पर था, शाम होते-होते ग़म का हो गया। इस छोटे से परिवार के सामने एक बड़ा सा सवाल था - आगे क्या ?
देश के अच्छे स्कूलों में तो दाख़िला मिलने से रहा। लगता है, सागर के बाहर जाने का सपना, सपना ही रह जाएगा। पिताजी जिस कॉलेज में व्याख्याता थे, वहाँ भी इतने अंकों में दाख़िला मिलना मुश्किल लगने लगा। वैसे भी वे सरकारी महाविद्यालय हिंदी माध्यम था, वहाँ सागर कैसे पढ़ सकता है। शहर में इक्के-दुक्के ही अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालय थे, जहां सागर को दाख़िला मिल सकता था। बाहर भेजने के पक्ष में तो उसके घर वाले पहले भी नहीं थे, जो नम्बर आए उसमें तो गुंजाइश भी कम थी। फिर भी सागर ने एक-दो बार पिताजी से मिन्नतें की, एक बार कोशिश तो कर ले।
वो भी बिट्टू के साथ दिल्ली जाना चाहता था। बिट्टू दो दिनों में दिल्ली के लिए रवाना होने वाला है। एक बार उसके साथ वहाँ हाथ-पैर तो मार आए, कम-से-कम दिल को थोड़ा सुकून मिलेगा। सबसे अच्छा ना सही, थोड़ा अच्छे से ही काम चला लेगा। पर पिताजी नहीं माने। सागर को ले कर शहर के स्कूलों की ख़ाक छानने में लग गए। बिट्टू चला गया। सागर को शहर के एक स्कूल में दाख़िला मिला। बिट्टू से बात हुई, उसे दिल्ली के दूसरे सबसे अच्छे स्कूल में जगह मिल गयी थी। अब वो हॉस्टल में रहेगा और सागर वहीं अपने घर पर।
