लज्जा- एक अधूरा सवाल
लज्जा- एक अधूरा सवाल


वाराणसीएक पवित्र शहर गंगा नदी केकिनारे सदियों से पुरानाधार्मिक गतिविधियों से जाना पहचाना। एक छोटा सा घरऔऱ उसमे लज्जा औऱ उसका भाईवीर दोनों अकेले जीवन जी रहे थे। माँ बाबा दोनोंकी दो साल पहले अकस्मात् में मोत हो चुकी थी।
23 साल की लज्जाके ऊपर पूरी घरकी औऱ भाईकी जिम्मेदारी आ चुकी थी कोई औऱ करनेवाला नहीं था कोई औऱ वहां सहाराभी नथी था। थोडा समय कपडे बर्तन किए पर ज्यादा कुछ मील नहीं पा रहा था महंगाई के ज़मानेमें पैसे कम पड़ रहे थे।
हर रोज़ सुबह वोह मंदिर जाती थोड़े फूल लेके औऱ भगवानको प्रार्थना करती अपनी स्तिथि को सुधरने के लिए। एक बार एक चौधरीने काम दिया पर उसके बदलेमें उसकी
बुरी नज़र उसपे गई थी " एक दिन आ जाओबहोत पैसे दूंगा" पर वोह वहांसे भाग आईउसे मंज़ूर नहीं था पर भाई की पढाईका खर्च दिनबदिन बढ़ता जाता था। दो जगह बर्तन करने जाती थी तब 600 रुपए मिलते थे। अपनी पढाईभी वोह छोड़ चुकी थी कबकी
। पता नहीं पर अंदर ही अंदर अपनी दशासे टूट चुकी थी। कभी कभी बहोत रोती भगवान के सामनेपर वीर के सामने हमेशा सुन्दर मुस्कराहट बिखेरती। मंदिरका पुजारी उसे हमेशा हौसला देता " बेटी भगवान सब ठीक करेगा । फिर उसने मजबूर होके कुछ ठानी
पर ये सोच पर भी दिल पर पत्थर रखना पड़ा आँखोंमें आंसू आगये। उसदिन रातको वोह चौधरीके वहां चली गई। औऱ जब सुबह हुई तब बहुत सारे पैसोके बदले लज्जा अपनी " लज्जा " गवा बैठी थी। सुबह भाई बहनके हाथ में इतने सारे पैसे देख खुश होगया।
सुबह जब मंदिर गई फूल चढाने तब बहोत रोइ
पंडित ने पूछा क्या हुआ पर बोल ना सकी।
मंदिर के बहार निकलते ही चोधरी मिला " ज्यादा पैसे कमाने हो तो सुदेशपुर चली जाओ रानी बनकर रहोगी"
सुदेशपुरवाराणसीके पास रेड अलर्ट एरिया वहां शरीरका व्यापर होता था। उस गलियोंमें कई मासूमभी फस जाती थी पर उनकी चीखे कोई नहीं सुनता था।
पैसोकी लालचमें औऱ मज़बूरीमें ये हवसका व्यापार खूब खिलता था।
लज्जाभी उस गलियों का हिस्सा बन गई सुबह बस में घर आती तब ढेर सारे पैसे उसके पास होते थे औऱ दिल में औऱ बदन में बहोत सारा दर्द। वीर को यही बताया की रात को आया की नौकरी करती है बच्चे संभालती है। महीनो तक ये सिलसिला चला। पैसे बहोत मिलते थे अब तो।
एक रात वोह सुदेशपुर गई तब रात को वोह पंडितका भतीजा उसके साथ था। उसे नहीं मालूम था।
सुबह जब मंदिर गई तब पंडितके साथ वोह भतीजा भी वहां था। उसे देख गुस्सा हो गया" चाचाजीआप इसे मंदिरमें क्यूँ आने देते हो? ये ये गणिका है"ये मंदिर अपवित्र होगा"
पंडित"ये तुम क्या कहे रहे हो, ये तो इस गांव की बिटिया है"
भतीजा" नहीं चाचाजी ये सुदेशपुर जाती है "
सुदेशपुरका नाम सुनकर पंडित बोखला आया जोर से औऱ उसने सारे फूल लज्जाके मुँह पे मार दीये। "कलसे इस मंदिर में ना आना ""अपवित्र लोगो के लिए यहाँ कोई जगह नहीं है भगवानके चरणोंमें भी नहीं "
लज्जा कुछ ना बोली बस दौड़ती गंगा नदीके किनारे आ गई। उसने मंदिरवाले फूल गंगामें बहा दीये औऱ चीत्कार उठी " क्या मेरी मज़बूरी ही अपवित्रता है? "हे गंगेक्या तुज़मे कचरा कोई फेंके तो तू मैली हो जायेगी ? क्या तेरा निर्मल जल मैला हो जाएगा? नहीं ना ! तो फिर में क्यूँ अपवित्र कहलाती हु? वोह जोर से चिल्लाई" तो फिर में क्यूँ?"एक अधूरे सवाल के साथ वोह सिसकती रहीउसे उसका जवाब नहीं मिला गर आपके पास हो तो जरूर बताना
वाराणसीएक पवित्र शहर गंगा नदी केकिनारे सदियों से पुरानाधार्मिक गतिविधियों से जाना पहचाना। एक छोटा सा घरऔऱ उसमे लज्जा औऱ उसका भाईवीर दोनों अकेले जीवन जी रहे थे। माँ बाबा दोनोंकी दो साल पहले अकस्मात् में मोत हो चुकी थी।
23 साल की लज्जाके ऊपर पूरी घरकी औऱ भाईकी जिम्मेदारी आ चुकी थी कोई औऱ करनेवाला नहीं था कोई औऱ वहां सहाराभी नथी था। थोडा समय कपडे बर्तन किए पर ज्यादा कुछ मील नहीं पा रहा था महंगाई के ज़मानेमें पैसे कम पड़ रहे थे।
हर रोज़ सुबह वोह मंदिर जाती थोड़े फूल लेके औऱ भगवानको प्रार्थना करती अपनी स्तिथि को सुधरने के लिए। एक बार एक चौधरीने काम दिया पर उसके बदलेमें उसकी
बुरी नज़र उसपे गई थी " एक दिन आ जाओबहोत पैसे दूंगा" पर वोह वहांसे भाग आईउसे मंज़ूर नहीं था पर भाई की पढाईका खर्च दिनबदिन बढ़ता जाता था। दो जगह बर्तन करने जाती थी तब 600 रुपए मिलते थे। अपनी पढाईभी वोह छोड़ चुकी थी कबकी
। पता नहीं पर अंदर ही अंदर अपनी दशासे टूट चुकी थी। कभी कभी बहोत रोती भगवान के सामनेपर वीर के सामने हमेशा सुन्दर मुस्कराहट बिखेरती। मंदिरका पुजारी उसे हमेशा हौसला देता " बेटी भगवान सब ठीक करेगा । फिर उसने मजबूर होके कुछ ठानी
पर ये सोच पर भी दिल पर पत्थर रखना पड़ा आँखोंमें आंसू आगये। उसदिन रातको वोह चौधरीके वहां चली गई। औऱ जब सुबह हुई तब बहुत सारे पैसोके बदले लज्जा अपनी " लज्जा " गवा बैठी थी। सुबह भाई बहनके हाथ में इतने सारे पैसे देख खुश होगया।
सुबह जब मंदिर गई फूल चढाने तब बहोत रोइ
पंडित ने पूछा क्या हुआ पर बोल ना सकी।
मंदिर के बहार निकलते ही चोधरी मिला " ज्यादा पैसे कमाने हो तो सुदेशपुर चली जाओ रानी बनकर रहोगी"
सुदेशपुरवाराणसीके पास रेड अलर्ट एरिया वहां शरीरका व्यापर होता था। उस गलियोंमें कई मासूमभी फस जाती थी पर उनकी चीखे कोई नहीं सुनता था।
पैसोकी लालचमें औऱ मज़बूरीमें ये हवसका व्यापार खूब खिलता था।
लज्जाभी उस गलियों का हिस्सा बन गई सुबह बस में घर आती तब ढेर सारे पैसे उसके पास होते थे औऱ दिल में औऱ बदन में बहोत सारा दर्द। वीर को यही बताया की रात को आया की नौकरी करती है बच्चे संभालती है। महीनो तक ये सिलसिला चला। पैसे बहोत मिलते थे अब तो।
एक रात वोह सुदेशपुर गई तब रात को वोह पंडितका भतीजा उसके साथ था। उसे नहीं मालूम था।
सुबह जब मंदिर गई तब पंडितके साथ वोह भतीजा भी वहां था। उसे देख गुस्सा हो गया" चाचाजीआप इसे मंदिरमें क्यूँ आने देते हो? ये ये गणिका है"ये मंदिर अपवित्र होगा"
पंडित"ये तुम क्या कहे रहे होये तो इस गांव की बिटिया है"
भतीजा" नहीं चाचाजी ये सुदेशपुर जाती है "
सुदेशपुरका नाम सुनकर पंडित बोखला आया जोर से औऱ उसने सारे फूल लज्जाके मुँह पे मार दीये। "कलसे इस मंदिर में ना आना ""अपवित्र लोगो के लिए यहाँ कोई जगह नहीं है भगवानके चरणोंमें भी नहीं "
लज्जा कुछ ना बोली बस दौड़ती गंगा नदीके किनारे आ गई। उसने मंदिरवाले फूल गंगामें बहा दीये औऱ चीत्कार उठी " क्या मेरी मज़बूरी ही अपवित्रता है? "हे गंगेक्या तुज़मे कचरा कोई फेंके तो तू मैली हो जायेगी?? क्या तेरा निर्मल जल मैला हो जाएगा? नहीं ना ! तो फिर में क्यूँ अपवित्र कहलाती हु? वोह जोर से चिल्लाई" तो फिर में क्यूँ?"एक अधूरे सवाल के साथ वोह सिसकती रही, उसे उसका जवाब नहीं मिला गर आपके पास हो तो जरूर बताना।