लघु कहानी मन के
लघु कहानी मन के
छुक छुक करती ट्रेन प्लेटफार्म पर आ लगी। सुबह के पांच बजने वाले थे, रात का अंधेरा छंट रहा था।खिड़की के बाहर का दृश्य देख मन बहुत विचलित हुया। कुछ लोग बेंच पर लेटे हुये थे, कुछ प्लेटफार्म पर अपने सामान के सहारे सिमट सो रहे थे, कुछ ट्रेन के ईंजन की आवाज से उन्नीदें से होकर करवटें ले रहे थे। कुछ यात्री डिब्बे से उतर कर कुली से बात कर रहे थे।छोटा सा स्टेशन था। दो मिनट में मेरी नजरों ने पूरे प्लेटफॉर्म का मुआयना कर लिया । जो देखा उससे दिल में दर्द और दया का मंथन होने लगा। नींद मुलायम गद्दे या पथरीले फर्श की मोहताज नहीं होती। कहीं भी आ जाती है। गार्ड ने हरी झंडी दिखाई तो गाड़ी धीरे धीरे सरकने लगी पर मेरा मन तो प्लेटफॉर्म के फर्श पर बैठी मां और बगल में टाट के ऊपर सोये उसके दो मासूम बच्चों के बारे में सोचने लगा। मां ने बच्चों को जगा कर टाट की तह लगाकर बगल में ऐसे रखा जैसे कोई बहुमूल्य वस्तु को रखता है , एक बच्चा आंखें मलता हुआ उठा और धीरे धीरे शौचालय की ओर जाने लगा। दूसरा बच्चा टकटकी लगाये जाती हुई ट्रेन को देख रहा था, न जाने क्या सोच रहा होगा।
ऐसे बच्चों को क्या मालूम कि सुबह दांतों को ब्रश से साफ करना, नहाना, बालों में कंघी करना , साफ- सुथरे कपड़े पहनना, पैरों में जूते पहन कर, बस्ता लेकर स्कूल जाना, आदि आदि भी जीवन का एक पहलू है।जिससे ये बच्चे बंचित होकर जी रहे हैं ।देश में ऐसे लाखों की तादाद में बच्चे होंगे जिनकी जिंदगी यूंही गुजरती होगी।
काश इन बच्चों की जिंदगी भी खुशहाल हो। दूसरों के दिये टुकड़ों पर जीने वाले, भीख मांग कर पेट भरने वाले, ये मासूम बच्चे, दीन- ईमान और मेहनत क्या जाने।उनकी भोली शक्लें, उलझे बाल, मिट्टी से लिपटे , फटे- पुराने कपड़े, भावहीन नजरें, मानो उनके जीवन की दास्तां बयां करती हों।काश कभी इनका भी जीवन संवर जाए।
