कहानी
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बिना शीर्षक
रात्रि के बारह बजे होंगे, नींद आंखों से कोसों दूर थी। रात के सन्नाटे में, घड़ी की टिक- टिक अपने
होने का एहसास करा रही थी। तेज हवा के झोंकों से झूलती डालियां बार- बार खिड़की से टकरा कर
यह एहसास दिला रही थीं कि कोई दरवाजे पर दस्तक दे रहा हो। मेरे लिये यह सब नया नहीं था, पिछले बीस साल से मुझे, सर्द रातों में, इस एहसास की आदत हो गई थी। दरवाजा खोल कर, बरामदे में रखी कुर्सी पर बैठ गया। बिजली चमकी तो कभी आसमान, कभी आसपास देखा।
आसमान में, रह- रह कर बिजली चमक रही थी, बादलों की गर्जन से बेखबर, ख्यालों में खोया हुया एक साया, टार्च की रोशनी में, सामने की पहाड़ी की पगडंडी पर, बंद छाता हाथ में लिये जा रहा था। इस तूफानी रात में, कोई मजबूरी का मारा ही घर से निकला होगा। अमावस की रात में, बड़े -बड़े कदम उठा कर वो अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहा था, इस बात से अनजान कि उसके पीछे कुछ दूरी पर एक और साया पगडंडी पर उसका पीछा कर रहा था। आगे पहाड़ी के अन्तिम छोर पर मोड़ था फिर वो आगे जा रहा साया उस मोड़ पर ऐसा गया कि पीछे वाला साया, जो मेरी नजरें थीं उनसे ओझल हो गया। रात आधी से ज्यादा हो गई थी, मैं भी अनमना सा होकर कमरे में सोने की कोशिश करने लगा।