मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

Abstract

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मुज़फ्फर इक़बाल सिद्दीकी

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लाइफ-लाइन (कहानी)

लाइफ-लाइन (कहानी)

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वह कबाड़ी जब भी यहाँ से निकलता है। तुम्हारी साइकिल का पूछता है। जब चलाते नहीं तो बेच क्यों नहीं देते। कबाड़ में ही सही। वरना ऐसे पड़ीपड़ी तो जंग खाकर खुद ही ख़त्म हो जाएगी। अब न तुम्हें टाइम है न बच्चों को। टिंकू तो तुम्हारी साइकिल को हाथ भी नहीं लगाता। उसने तो पिछले साल ही बर्थडे पर ज़िद कर के गियर वाली साइकिल ली है। कितना बोला कि तुम्हारी साइकिल चला ले। अब तो उसकी हाइट भी अच्छी हो गई है। सीट पर बैठ कर भी चला लेता। कम से कम तेलपानी ही होता रहता। लेकिन ये बच्चे भी न, पुरानी घर की चीज़ों से तो जैसे इन्हें चिढ़ सी है। हाथ ही नहीं लगाना चाहते। तुम्हारे ऑफिस का चपरासी घनश्याम ले गया था। वह भी रख गया। अब अगर कबाड़ी आए तो क्या बोलूँ उसको?

अभी रुको। जब इतना रुके हैं तो थोड़े दिन और रुक जाओ। कुछ साल बाद रिटायर हो जाऊँगा। फिर हम दोनों बैठ कर चला करेंगे पार्क, घूमने। 

साइकिल पर बैठकर क्यों ? पैदल भी जा सकते हैं। थोड़े दूर ही तो है। फिर मॉर्निंग वॉक भी हो जाएगा।

अरे, तुम तो सीरियस हो गईं। तुम साइकिल पर बैठोगी तो चलाने का मज़ा ही कुछ और होगा। मैं तो मज़ाक कर रहा था।  

तुम भी न अब बुढ़ापे में सठियाते जा रहे हो। बच्चे सामने रहते हैं। थोड़ा ध्यान रखा करो अब बड़े हो रहे हैं। ऐसी बातें करते हो अच्छा नहीं लगता। 

चलो, छोड़ो भी। बच्चे तो बड़े हो गए। लेकिन हम तो अभी भी वही हैं। और हमारी भावनाएँ थोड़ी न बड़ी हुई हैं। तुम ने वह गाना सुना है। दिल तो बच्चा है जी ... थोड़ा कच्चा है जी .... 

रश्मि तुम्हें याद है न। जब हम फैक्ट्री के क्वार्टर में शिफ्ट हो गए थे। तुम ने शहर के स्कूल में ज्वाइन कर लिया था। बस स्टॉप दूर था। मेरी तो ड्यूटी ही लग गई थी तुम्हें बस स्टॉप तक छोड़ने लाने की। अगर बस पहले आ जाती और मुझे ज़रा सा लेने जाने में देर हो जाती तो तुम मुझे बहुत डांटतीं। फिर मैं कहता चलो अच्छा सरदार जी की चाट पर, फुल्की खाते हैं। तब तुम्हारा गुस्सा शांत हो जाता और फिर मैं तुम्हें साइकिल के आगे वाले डंडे पर बैठा कर एक बड़ा सा पार्क का राउंड लगा कर घुमाता, और हम घर आ जाते। 

अब ये इतनी पुरानीपुरानी बातें कहाँ याद रहतीं हैं। वह भी एक समय था। हम लोग ज़िन्दगी की गाड़ी को खींच कर पटरी पर लाने की कोशिश कर रहे थे। छोटी सी तनख्वाह, हमारे बड़ेबड़े सपनों के लिए काफी नहीं थी। मुझे लगता था। मैं भी तुम्हारी कुछ मदद कर सकूँ। छोटे भाईबहनों की भी ज़िम्मेदारियाँ थीं। फिर बच्चे भी छोटे थे। लगता था जब अभी सब कुछ खर्च हो जाएगा। तो हम बच्चों का भविष्य कैसे बनाएँगे। 

मुझे तो एकएक बात याद है। ये ज़िन्दगी भी तो एक चक्र है। बिल्कुल साइकिल के पहिये जैसा। जितना पेडल से दम मारो उतना ही आगे बढ़ती है। जब चढ़ाई शुरू हो जाती है तो दम भी फूलने लगती है। और साइकिल भी बोल देती है कि मेरी सीमा बस यहीं तक है। अब तुम्हें ही अपने पैरों पर चलना होगा। और मुझे भी धकाना होगा। लेकिन हम हिम्मत नहीं हारते। फिर हम चढ़ाई चढ़तेचढ़ते पसीने से तरबतर हो जाते हैं। और जब उतार आता है तो साइकिल कहती है अब तुमने बहुत दम मार ली अब तुम बैठ जाओ इस पर। तब फर्राटे से चलती है और ठंडी हवा के मदमस्त  झौंके जब लगते हैं तो पसीने को एक अलग ही सुकून मिलता है। ये ज़िन्दगी के रास्ते भी तो बड़े टेढ़ेमेढ़े हैं। जब ज़िन्दगी इन पर चलती है तो ऐसा लगता है वक़्त कहीं ठहर सा गया है। लेकिन सरपट मैदानों में तो साइकिल ऐसे दौड़ती है कि पता ही नहीं चलता। जब ज़िन्दगी भी सुकून से कट रही होती है तब भी वक़्त कैसा गुज़र जाता है, पता ही नहीं चलता।

जब मेरी नौकरी लगी तो यही साइकिल थी। और ज़िन्दगी की शुरुआत भी। हाँ, बिल्कुल छोटेछोटे से मुंगेरी लाल के हसीन सपनों जैसी ज़िन्दगी। हमारे एकएक पेडल पर न जाने कितने सपने आह भरते थे। अगर बाजू से कोई कार निकल जाती तो हमें कोई ग़म न था। लेकिन अगर कोई मोपेड पर सवार होकर निकलता तो हम उसे बड़ी हसरत भरी नज़रों से देखते। फिर क्या था, एकएक पेडल पर महीने की तनख्वाह, मोपिड की कीमत और उसकी बनने वाली किश्तों से बराबर गुणा भाग करतेकरते कब फैक्ट्री पहुँच जाते, पता ही नहीं चलता। फिर एक दिन ये भी आया हमने आखिर मोपिड का एडवांस मॉडल दीपावली के मेला ऑफर में ले ही लिया। अब तो ज़िन्दगी की सबसे बड़ी जीत हासिल हो गई थी। कितनी ख़ुशियाँ लाई थी वह दीपावली। इसमें भी पेडल भी था। तुम्हें याद है जब एक बार हम लोग न्यू मार्किट में छोले भटूरे खाने गए थे और वापसी में पेट्रोल ख़त्म हो गया था। तब पेट्रोल पंप तक हम पेडल मार कर ही गए थे। जब पेट्रोल पम्प दूर से दिखाई दिया तब जान में जान आई। 

ज़िन्दगी की गाड़ी इन्हीं पहियों के बल पर आगे बढ़ रही थी। तुम्हारे सपने भी अब हमारे हो गए थे। तुम बारबार कहतीं थीं। तुम्हारे दोस्त राजेन्द्र की स्कूटर कितनी अच्छी है। मार्किट वाले दिन कितनी ही सब्ज़ी डिक्की में रख लो पता ही नहीं चलता। अब मेरा कैलकुलेशन एक बार फिर स्कूटर पर केन्द्रित हो गया।

फिर वेज रिविज़न ने तो हमारे हौसले और बढ़ा दिए। धनतेरस पर स्कूटर भी घर आगई। ज़िन्दगी रफ्तारफ्ता आगे बढ़ती जा रही थी। हम लोग पहली बार लम्बे ट्रिप पर दरगाह गए थे। गाड़ी लेकर साथ में लंच भी रख लिया था तुमने। एक छोटी सी पिकनिक का सा मज़ा आया था।

ज़िन्दगी की गाड़ी ने रफ़्तार तो पकड़ी थी लेकिन साइकिल का पहिया छोटा होता जा रहा था। जो अब पेडल से नहीं पेट्रोल से चलता था। लेकिन मुंगेरी लाल के सपने अभी भी अधूरे लगते जब कोई मोटर साइकिल पास से गुज़रती। ये वह ज़माना था जब मोटर साइकिल गिने चुने लोगों के पास ही हुआ करती थी। मेरे सपने भी बहुत छोटेछोटे से थे। वही तुम्हारी छोटी से आशा की तरह। जब मैं ने तुम्हें बताया कि हम मोटर साइकिल क्यों नहीं ले लेते। तुम बोली रहने दो अपनी तो ये ही ठीक है। सुना है मोटर साइकिल गिरती है तो घुटने में चोट लगती है। हम बहुत सुरक्षित सोच रखने लगे थे न। लेकिन मेरा दिल नहीं माना एक दिन कैलाश की मोटर साइकिल लेकर मैं ने चला ही ली। और थोड़ा बहाना मार कर तुम्हें बैठा कर बिरला मंदिर भी घुमा लाया था। शायद तुमने भगवान् से मोटर साइकिल मांग ली थी। तभी तो वापसी पर बोलीं थीं। स्कूटर कितने में बिक जाएगी। मैं समझ गया था तुम्हारी स्वीकृति है इसमें।

मुंगेरीलाल का एक और हसींन सपना पूरा होने जा रहा था। अबकी बार साइकिल का पहिया फिर से बड़ा हो गया था। लाल रंग की मोटर साइकिल। तुमने उसका कवर भी खरीद लिया था। क्या चकाचक करके रखते थे हम। और रात को तुम कवर डाल देतीं थीं, उस पर ताकि धूल न चढ़े। अब हमने शहर के बाहर भी बड़े राउंड लगाना शुरू कर दिए थे।

ज़िन्दगी फिर थोड़ी सी आगे बढ़ी। बच्चे भी बड़े हो गए। रिंकू आगे बैठता तो उसका सर टकराने लगता। टिंकू पीछे बैठता तो तुम्हें जगह नहीं बचती। फिर एक बार याद है तुम्हें! ट्रैफिक वालों ने पकड़ लिया था। बोले मोटर साइकिल पर दो से अधिक की इजाज़त नहीं है। आप चार लोग बैठो हो चालान कटेगा। जब हमने बहुत मिन्नतें कीं, तब छोड़ा था उसने।

अरे, सब याद है जी। अब ख़त्म भी करो तुम्हारा किस्सा। कुछ भी लेकर बैठ जाते हो। घण्टों लगा देते हो। और भी काम पड़े हैं घर के। तुम्हारे पास बैठी रहूँगी। तो हो गए समझो। रिटायर हो जाओगे तो पता नहीं क्या करोगे। वक़्त बीत गया तो बात गई। 

नहीं रश्मि, ये यादों के झरोखे तो तुम्हीं ने खोले हैं न, साइकिल का ज़िक्र छेड़कर। अभी कहानी ख़त्म कहाँ हुई है इसकी। जब ख़त्म होगी तभी तो बता पाऊंगा कि साइकिल बेचना है कि नहीं। 

अच्छा ठीक है। तो फिर सुनाओ।

रिंकू टिंकू भी साथ में ही बैठे थे। उनको इस कहानी में बहुत आनन्द आ रहा था। 

अरे पापा जी आप रुक क्यों गए? सुनाइए न।

बस उस हवलदार का टोकना था। कि मैं दूसरे ही दिन कार के शो रूम पहुँच गया। अब हमारी ज़िन्दगी को ढोने लिए दो पहिये की नहीं चार पहिये की ज़रूरत थी। हमने एक कम बजट की कार खरीद ली। पिछले दस साल से अब यही हमारी लाइफलाइन है। मेरी तो ऑफिस से लेकर छोटीमोटी गिरस्ती भी इसी में समाई हुई है। 

लेकिन पापा जी, अब नए सेगमेंट की गाड़ी ले लीजिये। ये भी बहुत पुरानी हो गई और हम लोगों ने इससे ड्राइविंग भी सीख ली, इसीसे। 

अब लॉकडाउन खुलने दो, बेटे। हम कोई नई कार ले लेंगे। 

तभी रश्मि ने खीजते हुए कहा बात साइकिल बेचने के निर्णय की थी। तुमने उसका तो कोई जवाब दिया नहीं और इतनी लम्बी कथा सुना दी। 

वही तो बताने जा रहा था। मुझे कल ही फैक्ट्री में स्वास्थ्य निरिक्षण के अन्तर्गत डॉक्टर ने साइकिलिंग करने की सलाह दी है।

बोला अगर आप साइकिलिंग करोगे तो ये आपके घुटनों का दर्द भी चला जाएगा। और वेट भी कम हो जाएगा। 

कल से रोज़ आधा घण्टा साइकिल चलानी है। 


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